logo

कलकत्ते कहिये या कोलकाता रहेगा City Of Joy ही, कल आज कल से प्यार

14469news.jpg

पुष्‍यमित्र, पटना:
हुगली नदी के किनारे एक शहर को अंग्रेजों ने रचा ताकि वे वहां से इंडिया के साथ बिजनेस कर सकें। बिजनेस करते-करते ईस्ट इंडिया कंपनी के ये कारिंदे पूरे इंडिया पर राज करने लगे और कलकत्ता नाम वाला वह शहर उन अंग्रेजों की राजधानी, पूरे देश का पावर सेंटर बन गया। फिर वहां अंग्रेजों ने जमींदारों और राजाओं से रचे बने, बंगाल के भद्रलोक को बसाया। उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा दी। उन्हें पश्चिमी दुनिया के लिटरेचर, आर्ट, शौक और आनंद की लत लगाई। और पहले से भारतीय दर्शन, साहित्य, कला के इन अभिजात्य प्रतिनिधियों ने अपने देश के धर्म, विचार, कला, साहित्य, सोच और नजरिये को बदलना शुरू किया। सत्ता, समाज और संस्कृति के इस गठजोड़ से धीरे-धीरे कलकत्ता शहर रोशन होने लगा। वह अपनी अलग ढंग की सोच, अपने मिजाज, अपने रहन-सहन की प्रगतिशीलता से देश और दुनिया के अभिजात्य लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचने लगा। फिर ईस्ट इंडिया कंपनी की विदाई हुई और इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया इस शहर की नयी अधिनायक बनी। फिर इस शहर का भद्रलोक बागी होने लगा। वह अपने इलाके की अस्मिता पर गौरव करना चाहता था, वह इस शहर में पहले दर्जे का नागरिक बनकर जीना चाहता था। अंग्रेजों को यह बात खटक गयी। उन्हें लगने लगा कि जिस कलकत्ता को उन्होंने बड़े प्यार से इस मकसद के लिए खड़ा किया, कि ताकि वह हिंदुस्तान में उसके राज-पाट को मजबूती दे सके। वह जगह उसकी अपनी हो। वहां के लोग उसके हर फैसले में उसके साथ खड़े हों।

 

 

मगर वही शहर अब उन अंग्रेजों से सवाल पूछ रहा था, वहां बंगाल की भाषाई अस्मिता पैदा हो रही थी और वे बंगाल के किसी भी बंटवारे का विरोध कर रहे थे। अंग्रेजों ने तय कर लिया कि अब इस शहर को कमजोर कर देने का वक्त आ गया है। वे अपना बोरिया बिस्तर समेटकर मुगलों की राजधानी दिल्ली की तरफ विदा हो गये और बंगाल को कई टुकड़ों में बांट दिया।  और फिर उस शहर कलकत्ता में जिसे पश्चिमी मानक के लिहाज से भारत का पहला आधुनिक महानगर माना जाता था, सिर्फ विक्टोरिया शैली में बनी इमारतें और अंग्रेजों द्वारा गढ़े गये भद्रलोक रह गये। उदास, उपेक्षित और आहत। जिस महानगर को पूरब का गौरव बनना था, वह अब धीरे-धीरे मिटते चले जाने के लिए अभिशप्त था। और दिलचस्प है कि चार रोज पहले जब मैं कलकत्ता गया तो वह महानगर उसी तरह ठहरा हुआ था, एक सौ दस साल पहले जिस हाल में उसे अंग्रेज छोड़कर गये थे। आज भी उस शहर के बड़े हिस्से पर विक्टोरिया शैली की सैकड़ों इमारतें खड़ी हैं, मगर समय के थपेड़ों ने उनमें से ज्यादातर पर अपने निशान छोड़ दिये हैं। कई ध्वस्त होने की स्थिति में पहुंच गयी हैं, कई थोड़ी मजबूत हैं, कई इमारतों को उसके नये मालिकों ने पुराने हाल में बनाकर रखा है। मगर जिस तरह पिछले तीस-चालीस साल में इस देश के ज्यादातर शहरों में अमेरिकी तर्ज की इमारतें, अपार्टमेंट, स्काइ स्कैपर और शापिंग कांप्लेक्स उठ खड़े हुए वे कलकत्ता के मुख्य शहर में बहुत कम दिखते हैं।

 

 

 

सुना है कि साल्ट लेक से आगे नया कलकत्ता और आधुनिक बस रहा है, जो इसी तरह का है। आज भी कलकत्ता की सड़कों पर ट्राम और हाथ रिक्शे बड़ी संख्या में दिखते हैं। देश का सबसे पुराना मैट्रो आज भी वहां के लोगों के मन में वैसा क्रेज पैदा नहीं कर पाया है, जैसा क्रेज दिल्ली और दूसरे शहरों में उनका है। आज भी कलकत्ता के लोग किसी मॉल में खरीदारी करने के बदले न्यू मार्केट के इर्द-गिर्द स्ट्रीट शॉपिंग करने में दिलचस्पी रखते हैं। और हां, न्यू मार्केट नाम से कंफ्यूज मत होइयेगा, क्योंकि यह न्यू मार्केट भी बहुत नया नहीं है, इसकी बुनियाद भी अमूमन डेढ़ सौ साल पुरानी है। इस शहर में आज भी देवी-देवताओं से अधिक राष्ट्रनायकों की मूर्तियां हैं। आज भी लोग ठेलों पर बिकने वाले चाय, ब्रेड बटर और आमलेट-रोल खाने को तरजीह देते हैं। सियालदह स्टेशन के पास फ्लाइओवर के नीचे बसे चोर बाजार के नाम से मशहूर मार्केज की भीड़-भाड़ में धक्के खाते हुए सस्ती और उपयोगी चीजें खरीदने के लिए तैयार रहते हैं। 

 

 

वैसे तो अंग्रेजी सत्ता के इस महानगर को छोड़कर जाने के बाद यहां बहुत कुछ हुआ। आजादी के आंदोलन हुए, अकाल पड़ा, डाइरेक्ट एक्शन डे के दिन कलकत्ता में भीषण दंगा हुआ, फिर आजादी के दिन इस शहर ने आजादी के सबसे बड़े नायक की मौजूदगी को देखा। यह शहर आजादी के मोहभंग से उपजे नक्सलवाड़ी आंदोलन के पैदा होने और नाराज युवा पीढ़ी के विद्रोह का गवाह बना। बंगाल पर लंबे समय तक चले वामपंथी शासन को इसने देखा और फिर ममता दीदी का पोरिबर्तन और मोदी-शाह की जोड़ी के पराजय को भी इसने गर्वित भाव से देखा। इन तमाम परिवर्तनों के बावजूद इस महानगर का रंग-रूप और मिजाज नहीं बदला। इसकी अभिजात्य वैचारिकता, कला, साहित्य, नाटक और खेल के प्रति इसकी दीवानगी वैसी की वैसी रही। यहां के लोगों ने रहने-खाने और जीने का तरीका नहीं बदला। उसने भले तमाम किस्म के राजनीतिक बदलावों को स्वीकार कर लिया, मगर वह अपने स्वभाव को बदलने के लिए तैयार नहीं हुआ। इसलिए सुहरावर्दी से लेकर सिद्धार्थ शंकर रे, ज्योति बसु और ममता बनर्जी तक को सत्ता हासिल करने के बाद भी खुद को ही बार-बार बदलना पड़ा। उन्हें कला-साहित्य-नाटक ही नहीं, खेल और दुर्गा-काली पूजा तक को अपनाना पड़ा और सरकारी खजाने से उसके लिए पैसे खर्च करने पड़े। हर बदलाव की कोशिश के बाद जब-जब यहां का नागरिक समाज ‘चोलबे नाई’ कहते हुए उठ खड़ा हुआ, तब उसे झुकना पड़ा। 

 

 

 

हालांकि इस शहर की बनावट में खुद को बदलने नहीं देने की जिद पर अड़ा अंग्रेजों द्वारा गढ़ा गया भद्रलोक ही नहीं है। दो-ढाई सौ साल पहले यहां आये मारवाड़ी व्यापारियों और लंबे समय से बार-बार आकर यहां के जूट मिल और दूसरे कारखानों और बाजारों और दूसरे काम-काज में मदद देने के लिए पहुंचने वाला बिहारी-पुरबिया मजदूरों का समाज भी है। मगर ये दोनों समाज सिर्फ तंत्र हैं, वे इस शहर की आत्मा नहीं हैं, शरीर का हिस्सा भर हैं। इसकी आत्मा वही भद्रलोक है। वही जैसे कहते हैं, ये दोनों समुदाय उसी तरह चलते हैं। इनके जिम्मे इस शहर के कारोबार और कामकाज को संभालने की ड्यूटी है, इस शहर का विचार आज भी बंगाली भद्रलोक ही संभालता है। और चूंकि हमलोग भी अपनी-अपनी जगह रहते हुए, उसी भद्रलोक की बुनावट वाले लोग हैं, इसलिए हम जब कलकत्ता जाते हैं तो वहां बची हुई विक्टोरिया मिजाज की दुनिया को देखकर चकित और सम्मोहित होते हैं। हम वहां के लोगों की न बदलने की जिद की सराहना करते हैं और बार-बार उस शहर में और वहां बस जाने की बात सोचते हैं। इसलिए कलकत्ता हम सबके सपनों का महानगर है, हम सब उसे बहुत प्यार करते हैं, क्योंकि उसी भद्रलोकी मिजाज ने हमें भी गढ़ा है। हम कारोबार नहीं करते, कामकाज किये बगैर जिंदगी जीने के शौकीन हैं। हमें अगर बिना नौकरी-चाकरी-रोजगार के साहित्य, कला, खेल, नाटक, इतिहास, किताबें, बहस, सुरुचिपूर्ण भोजन, प्रेम आदि उपलब्ध होते रहे, तो हम उस जीवन को सबसे अधिक पसंद करते हैं। और जब हम किसी छोटी सी यात्रा पर कलकत्ता जाते हैं, तो वही जीवन जीने की कोशिश करते हैं। उसमें डूब जाते हैं और उसके नशे में गिरफ्त होकर लौट आते हैं।

 

 

चार रोज पहले एक संवाद के कार्यक्रम में जब मैं एक बार फिर इस महानगर की यात्रा पर गया था तो हमें एक ऐसे रिजार्ट में ठहराया गया तो किसी जमींदार की हवेली के थीम पर बना था। जैसे राजस्थान में राजा के महलों में आजकर होटल बनने लगे हैं। हालांकि वह वहां के एक मशहूर जमींदार काली प्रसन्न सिंह की हवेली थी, जिसे रेनोवेट और रिस्ट्रक्चर किया था। जिनका नाम हमने बंगाल के नील विप्लव के दौरान सुना था। उन्होंने नील दर्पण नाटक का अनुवाद कराने के दोषी पादरी जेम्स लॉंग की जमानत करवायी थी। मगर यह भाव मुझे थोड़ा अजीब लगा कि आजादी के बाद जिस जमींदार को सरकारों ने विलेन मान लिया, उसी जमींदार की कोठी के थीम पर कलकत्ता शहर में एक रिजार्ट बनता है। हालांकि वहां तीन दिन बड़े आनंद में गुजरे और मन खुश हो गया। फिर दो दिन तक उस महानगर के सड़कों और गलियों में भटकता रहा। उस हैदरी मंजिल की तरफ भी गया, जहां आजादी वाले दिन गांधी, कलकत्ता दंगों के सबसे बड़े कसूरवार सुहरावर्दी के साथ ठहरे थे। मगर रविवार होने की वजह से उस पर ताला लगा था। मगर मैं न विक्टोरिया मेमोरियल गया, न बेलूर मठ, न फोर्ट विलियम्स, न नेशनल लाइब्रेरी। मैं किसी म्यूजियम की तरफ भी नहीं गया, क्योंकि पूरे कलकत्ता शहर की बनावट मेरे लिए किसी भी म्यूजियम से कहीं अधिक आकर्षक थी। मैं न्यू मार्केट और सियालदह के इलाकों में भटकता रहा, चाय-टोस्ट का मजा लेते, सस्ती और रुचिकर चीजें खरीदते और लाटरी टिकटों में किस्मत को आजमाते हुए। 

 

 

मैं सड़कों के किनारे जगह-जगह लगी महापुरुषों की मूर्तियां और तसवीरों को पहचानने में जुटा रहा। देखता रहा है कि इस शहर के बाजारों में दुकानों के साइनबोर्ड तक सौ साल से अधिक पुराने हैं। मैं पुरानी इमारतों में उग आये पेड़ों को देख रहा था। ट्राम और बसों की यात्रा कर रहा था। फूड चैनलों में जिन मुहल्लों के बारे में बताया गया था, उसे परख रहा था। आखिरी रोज मैं अपने साथी परितोष दुबे से मिलने उसके घर गया। जो राजस्थान पत्रिका का चीफ रिपोर्टर है। उसने बताया कि कैसे आज भी मोहल्ले में बने क्लबों के जरिये बंगाल की राजनीति तय होती है। ज्योति बसु के जमाने से मोहल्ले के इन क्लबों को सरकार साल भर के लिए फंड देती है। दुर्गा और काली पूजा के लिए विशेष ग्रांट दी जाती है। कोई भी सरकार बदले यह रिवाज नहीं बदलता। बदले में ये क्लब राजनीतिक दलों की जीत सुनिश्चित करते हैं। उसने कहा कि इस शहर को बदलने की सबसे इमानदार कोशिश सीपीएम के आखिरी मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने की थी, उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। ममता दीदी को मालूम है कि यहां जो जैसा है, उसी तरह रखना है, किसी चीज को बदलना नहीं है। जो दुनिया अंग्रेजों ने गढ़ी है, जिसे ज्योति बसु ने एक अलग तरह का मिजाज दिया है, उसे उसी तरह चलते रहने देना है। कलकत्ता में सिर्फ पार्टी का नाम बदला है, विचार नहीं। 

 

मैं जब वहां था तो पूरा शहर काली पूजा की तैयारियों और खरीदारियों में जुटा था। और हमलोग दो दर्जन से थोड़े अधिक लोग दो दिन तक यह बात कर रहे थे कि बंगाल और बिहार के बीच कैसे फिर से नजदीकी बढ़ाई जाये। इसमें आठ लोग बिहार के थे, और बाकी बंगाल के। कालीप्रसन्ना सिंह की हवेली के एक हॉल में हुई इस गरमागरम और विचारोत्तेजक बैठक में सबसे दिलचस्प बात यह हुई कि बंगाल के लोगों ने बांग्ला का एक शब्द इस्तेमाल नहीं किया, इस वजह से कि उनके बिहारी मेहमानों को समझने में कोई तकलीफ न हो। वे अंग्रेजी में बोलते रहे और हम हिंदी को लेकर डटे रहे। बातचीत अच्छी रही, इतिहास, भूगोल, राजनीति, अर्थशास्त्र, साहित्य, संस्कृति, पर्यावरण हर विषय को टटोला गया और नजदीकियां तलाशी गयीं। यह सिलसिला अभी आगे भी चलना है। अगली बैठक बिहार में होनी है। कलकत्ता शहर से निकलते वक्त बहुत खूबसूरत और आनंददायक बातें हुईं। नीलांबर संस्था के साथी मनोज झा और रितेश पांडे से धरमतल्ला में मुलाकात हुई। उनके साथ खूब सारी बातें हुईं और उन्होंने कलकत्ता के मशहूर होटल चेन भजोहोरि मन्ना में बंगाल के असली जायके से परिचय कराया। वहां मछली, चिंगड़ी(प्रॉन), पातुरी(केले के पत्ते में पैक होकर बनी मछली) और राधाबल्लभ कचौरी का भोग लगा। फिर हमने चाय पी। और फिर उन्हें और उनके इस दिलफरेब शहर कलकत्ता को जिसे अब कोलकाता कहा जाता है, विदा करके मैं पटना लौट आया।

 

हालांकि इस यात्रा में ऐसा कोई प्रसंग नहीं था, मगर त्रिलोचन की चंपा और ज्ञानेंद्रपति की चेतना पारीक याद आती रहीं। चेतना पारीक तो आज भी वैसी ही थी, ट्राम से सफर करती, पुस्तकालयों और आर्ट गैलरियों, सभा सेमिनारों में घूमती। मगर काले अच्छर नहीं पहचानने वाली चंपा की वह बात बार-बार चुभती थी। 

अगर कहीं जो ब्याह हो गया
अपने बलम को साथ रखूंगी
कलकत्ता न जाने दूंगी
कलकत्ते पर बज्जर गिरे। 

मगर हम बार-बार चेतना पारीक से मिलने की ख्वाहिश लिये कलकत्ता जाते रहेंगे। ट्राम और पीली टैक्सियों पर चढ़ते रहेंगे। पार्क स्ट्रीट और न्यू मार्किट में टहलते रहेंगे और खुश होते रहेंगे कि दुनिया को एक रंग में रंग लेने की जो आंधी चली है, उस आंधी में भी कलकत्ता अपने ही रंग में रंगा मस्त महानगर है। इस कलकत्ते पर बज्जर मत गिराना चंपा।

 

 

(लेखक  एक घुमन्तू पत्रकार और लेखक हैं। उनकी दो किताबें रेडियो कोसी और रुकतापुर बहुत मशहूर हुई है। कई मीडिया संस्‍थानों में सेवाएं देने के बाद संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।