(लेखक गुरुग्राम में रहते हैं। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।
भरत जैन, दिल्ली:
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रमन्ना ने दिल्ली की नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में इस बात पर अफसोस ज़ाहिर किया कि पिछले तीन दशकों में, जब से अर्थव्यवस्था का उदारीकरण हुआ है, देश में कोई प्रमुख छात्र नेता नहीं उभरा है। उन्होंने कहा के छात्र ही आज़ादी , न्याय ,बराबरी और नैतिकता के संरक्षक हैं। जब तक छात्र सामाजिक और राजनीतिक तौर पर सतर्क रहेंगे तभी शिक्षा, भोजन जैसे बुनियादी मुद्दों पर पूरे देश का ध्यान जाएगा। उन्होंने कहा कि समाज की सच्चाई से कोई भी पढ़ा - लिखा युवा दूर नहीं रह सकता। जब आप डिग्री के साथ संस्थान से निकलेंगे तो हमेशा उस दुनिया के बारे में जागरूक रहें जिस दुनिया का आप हिस्सा हैं।
वास्तव में पिछले तीन दशकों पर दृष्टि डालें तो देश में छात्र आंदोलन नदारद है। एक समय में देश के कैंपस जन आक्रोश के केंद्र होते थे। लोहिया जी ने संसदीय राजनीति में कोई उल्लेखनीय जीत हासिल नहीं की परंतु पूरे देश में समाजवादी विचारधारा से प्रभावित आंदोलन खड़ा किया। उन्हीं के प्रयत्नों का परिणाम था कि 1973 - 75 में जब जयप्रकाश नारायण ने तत्कालीन सरकार के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया तो पूरे देश के विश्वविद्यालयों के छात्र उनके साथ होने के लिए कक्षाओं से बाहर निकल पड़े। अरुण जेटली, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव, रामविलास पासवान और सुशील मोदी - सभी जेपी आंदोलन से ही प्रकाश में आए थे। उससे भी पहले सातवें दशक के उत्तरार्ध और आठवें दशक के प्रारंभ में नक्सलवादियों को देशभर के छात्रों का समर्थन मिलता था। दिल्ली विश्वविद्यालय के ईलीट ( आभिजात्य ) समझे जाने वाले सेंट स्टीफन कॉलेज एक समय में नक्सलवादियों से सहानुभूति रखने वालों का गढ़ माना जाता था।
दो बातें स्पष्टतः जुड़ी हुई हैं - वामपंथी विचारधारा का पराभव और छात्र आंदोलन की शिथिलता। पिछले तीन दशकों में कुछ छात्र नेता यदि निकले हैं तो वामपंथ का गढ़ समझे जाने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय अर्थात जेएनयू से ही। आज तक भाजपा का छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद भरसक प्रयास करने के बाद भी वहां चुनाव नहीं जीत सका है। इसी कुंठा का परिणाम है जेएनयू के छात्रों पर लगातार आक्रमण। कुछ वामपंथी विचारधारा के युवा नेता वहां से उभरे हैं - कन्हैया कुमार, उमर खालिद और सहला रशीद।
पांच दशक पहले के वामपंथ की व्यवस्था विरोधी तेवर के बदले पूंजीवादी व्यवस्था में निहित स्वार्थ कामयाब हो रहे हैं। आज का युवा धनी होने के लालच में स्वार्थी हो गया है। उसे अपने स्वार्थ के अलावा कुछ सूझता ही नहीं है। वह देश में होने वाले अन्याय , धर्मांधता ,आर्थिक विषमता और बेरोजगारी जैसे मुद्दों में कोई दिलचस्पी नहीं रखता। प्रसिद्ध लेखक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने लिखा था कि यदि आप बीस साल की उम्र में कम्युनिस्ट नहीं है तो आप हृदयहीन हैं। आज वही पीढ़ी हमारे सामने है - असंवेदनशील , स्वार्थी और केवल धन के लिए महत्वाकांक्षी। देश में दक्षिणपंथी , प्रतिगामी , पुरातन पंथी सोच वाली भाजपा का कामयाब होना यूं ही अचानक नहीं हुआ। 1991 में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण का परिणाम है यह। उस आर्थिक नीति के संवाहक मनमोहन सिंह के हाथ से बागडोर दक्षिणपंथी ,पूंजीवादी विचार के प्रतीक मोदी के पास जाना इतिहास का क्रूर अट्टहास है।
(लेखक गुरुग्राम में रहते हैं। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।