(हिंदी के वरिष्ठ लेखक असगर वजाहत 2011 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्म शताब्दी समारोह में शिरकत करने पाकिस्तान गए थे। वहां लगभग 45 दिन घूमते रहे। लाहौर, मुल्तान और कराची में अनेक लोगों से मिले थे। संस्थाओं में गए थे। उन अनुभवों के आधार पर उन्होंने एक सफरनामा 'पाकिस्तान का मतलब क्या' लिखा था, जो तब ज्ञानोदय में छपा था और उसके बाद ज्ञानपीठ ने उसे पुस्तक रूप में छापा था । उस पर आधारित कुछ अंश द फॉलोअप के पाठक 12 हिस्से में पढ़ चुके हैं। अब इस सफ़र को आगे बढ़ा रहे हैं यूपी सरकार में वरिष्ठ अधिकारी रहे मंज़र ज़ैदी। प्रस्तुत है 15 वां भाग:)
मंज़र ज़ैदी, लखनऊ:
गुरुद्वारे से बाहर निकलने के बाद हम बादशाही मस्जिद की ओर बढ़े। मस्जिद में जाने के लिए दिल्ली की जामा मस्जिद की तरह बहुत सी सीढ़ियां चढ़ना पड़ीं। बादशाही मस्जिद में प्रवेश करने पर भूतल पर दायीं ओर एक संग्रहालय था जिसमें विभिन्न आकार के अति सुंदर कुरान रखे हुए थे। एक कुरान ऐसा भी देखा जो लगभग 3 * 2 फीट साइज का कपड़े के पन्नों का बना हुआ था। कपड़े पर कुरआन के अक्षर काढ़े गए थे, जिसके बनाने में कई वर्ष लगे थे। उसके बायीं ओर प्रथम तल पर एक दूसरा संग्रहालय था, जिसमें पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब की पगड़ी, उनकी बेटी हज़रत फ़ातिमा ज़हरा की चादर और उनके नवासे हज़रत इमाम हुसैन की कई अद्भुत वस्तुएं वहां दर्शन के लिए रखी हुई थी। संग्रहालय में फोटो खींचना मना था इसलिए हम वहां के फोटो नहीं ले सके।
यह मस्जिद मुगल सम्राट औरंगज़ेब द्वारा 1671 - 73 ईसवी की अवधि में बनवाई गई थी। यह एशिया की सबसे बड़ी मस्जिद थी। परंतु 1986 में इस्लामाबाद में फैसल मस्जिद, (सऊदी अरब के शाह फैसल के नाम से बनवाई गई है) के बनने के बाद यह एशिया की दूसरी बड़ी मस्जिद हो गई है। परंतु इस मस्जिद का बाहर का आंगन इतना बड़ा है जो विश्व में किसी दूसरी मस्जिद का नहीं है।
पाकिस्तान के 500 रूपए के नोट पर इस मस्जिद का चित्र बना है। नमाज का समय ना होने के कारण मस्जिद में बहुत कम व्यक्ति थे कुछ व्यक्तियों से बात करने का अवसर मिला। हमने उन्हें बताया कि हम इंडिया से आए हैं। हमने उनसे ज्ञात किया कि मस्जिद के बहुत समीप ही गुरुद्वारा है क्या कभी आपको उनसे या उनकी पूजा की वजह से कोई दिक्कत हुई है या उन्हें नमाज के वक्त ज्यादा तादाद में लोगों के इकट्ठा होने की वजह से और मस्जिद में लाउडस्पीकर के इस्तेमाल करने पर कभी कोई एतराज़ हुआ। उन्होंने बताया कि ऐसा अभी तक तो नहीं हुआ है। वे अपनी इबादत करते हैं और हम अपनी इबादत करते हैं। जरूरत पड़ने पर हम एक दूसरे की मदद भी करते हैं।
मस्जिद से बाहर आए। सीढ़ियां उतरने के पश्चात दायीं ओर मशहूर उर्दू के कवि डॉक्टर इकबाल का मकबरा बना हुआ है जिसके अंदर जाकर हमने फातिहा पढ़ी। उस समय हमें डॉ इकबाल की मशहूर कविता की ये पंक्तियां याद आने लगी।
सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा।
हम बुलबुले हैं इसकी यह गुलसितां हमारा।
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।
हिंदी हैं हम वतन है हिन्दुस्तां हमारा।
जारी
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पहला भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: हिंदी के एक भारतीय लेखक जब पहुंचे पाकिस्तान, तो क्या हुआ पढ़िये दमदार संस्मरण
दूसरा भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: पड़ोसी देश में भारतीय लेखक को जब मिल जाता कोई हिंदुस्तानी
तीसरा भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: आतंकवाद और धर्मान्धता की जड़ है- अज्ञानता और शोषण
चौथा भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: हिन्दू संस्कारों की वजह से मैं अलग प्लेट या थाली का इंतज़ार करने लगा
पांचवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: दरवाज़े पर ॐ लिखा पत्थर और आंगन में तुलसी का पौधा
छठवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: पत्थर मार-मार कर मार डालने के दृश्य मेरी आँखों के सामने कौंधते रहे
सातवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: धर्मांध आतंकियों के निशाने पर पत्रकार और लेखक
आठवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: मुल्तान में परत-दर-परत छिपा हुआ है महाभारत कालीन इतिहास का ख़ज़ाना
नौवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: कराची के रत्नेश्वर मंदिर में कोई गैर-हिंदू नहीं जा सकता
दसवां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: अपने लगाए पेड़ का कड़वा फल आज ‘खा’ रहा है पाकिस्तान
11वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: कराची में ‘दिल्ली स्वीट्स’ की मिठास और एक पठान मोची
12 वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें : इस्लामी मुल्क से मैं लौट आया अपने देश, जहां न कोई डर और ना ही ख़ौफ़
13 वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें : बस से जब पहुंचा लाहौर, टीवी स्क्रीन पर चल रही थी हिंदुस्तानी फिल्म
14 वां भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें : 18 वीं शताब्दी के इस गुरुद्वारे की दीवारें हैं पांचवें गुरु अर्जुन देव की शहादत की गवाह
(मूलत: यूपी के जिला बिजनौर के चांदपुर के रहने वाले मंज़र ज़ैदी शायर और लेखक हैं। सिंचाई विभाग में अधिकारी रहे। संप्रति UP-RRDA से संबद्ध और स्वतंत्र लेखन )
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।