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'आप इंसाफ़ नहीं देंगे तो एक दिन पीड़ित आपसे छीन लेंगे न्याय'

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रंगनाथ सिंह, दिल्‍ली:

कई सवर्ण युवकों को सोशल साइट पर पढ़कर लगता है कि वो आरक्षण को लेकर एक काल्पनिक विक्टिमहुड में जीने लगे हैं। कुछ तो उग्र मानसिकता के शिकार हो चुके हैं। ऐसे सभी कास्ट प्रिविलेज्ड नौजवानों को पुरानी कहावत याद दिलाना चाहूँगा कि आप न्याय नहीं देंगे तो एक दिन पीड़ित आपसे न्याय छीन लेंगे। आरक्षण का इतना रोना रोने के बाद तो आईआईटी में 88 प्रतिशत से ज्यादा शिक्षक सामान्य वर्ग के हैं। आरक्षण न होता तो आप कितने होते? 110% या उससे भी ज्यादा? भारत में अंग्रेजों की संख्या अधिकतम 50 हजार रही। उनमें अफसर वर्ग के 5-6 हजार ही थे। इतने से लोग पूरे देश को कंट्रोल करते थे क्योंकि उनका व्यवस्था चलाने वाले अहम पदों पर कब्जा था। हम आज भी कहते हैं कि अंग्रेजों ने भारत को लूटा। अब कोई ब्रिटिश यह कहे कि आप लोग अंग्रेज क्यों कहते हैं क्योंकि सभी अंग्रेज तो आपको लूटते नहीं थे। कई अंग्रेज तो ब्रिटेन की इस लूट के आलोचक या विरोधी थे। 

वंचित वर्गों में काबिल लोगों की कमी का तर्क फ़िजुल

जाहिर है कि जब यह कहा जाता है कि अंग्रेजों ने दुनिया को लूटा तो उन अंग्रेजों को ही कहा जाता है जो लुटेरे थे। 10-20 प्रतिशत भले अंग्रेजों के सदकर्मों की वजह से 80-90 फीसदी अंग्रेजों के कुकर्म विलुप्त नहीं हो जाते। अपवादों के सहारे अपना बचाव करना या तो छल है या फिर भोलापन। आप क्या करते हैं, आप जानें। यह तर्क भी न दीजिएगा कि वंचित वर्गों में काबिल लोगों की कमी है। यही तर्क अंग्रेज देते थे लेकिन हम लोगों ने इसे स्वीकार नहीं किया था। आज भी अमेरिकी-यूरोपीय कभी-कभार भारतीयों को लेकर ऐसा कह देते हैं तो हम बिदक जाते हैं। पहले भी लिखा था कि जिस संस्थान में आपको एक ही जाति लोग 51% से ज्यादा मिलें तो इसे महज संयोग न समझिए। आपके संस्थान में 70-80 फीसद एक ही जाति या वर्ग के लोग हैं तो आप सच से मुँह चुरा रहे हैं। क्या आपको यह महज संयोग लगता है कि जाति विरोधी लेफ्टिस्टों, कम्युनिस्टों और फेमिनिस्टों इत्यादि में भी कुछ जातियों का ही वर्चस्व है! आप संयोग के हेंगे को कहाँ तक और कब तक घसीटेंगे?

प्रतिभाओं को पनपने लायक सिस्टम ही तैयार नहीं किया

भारत में प्रतिभा का अकाल पड़ने की एक बड़ी वजह यह है कि हमने देश की कम से कम 80 फीसदी आबादी के अन्दर पैदा होने वाली प्रतिभाओं को पनपने लायक सिस्टम नहीं तैयार किया है। अमेरिका को कालों ने कितने ओलिंपिक दिलाये। हमारे यहाँ आदिवासी कितने ओलिंपिक लेकर आ रहे हैं। यह तो एक उदाहरण है। सामाजिक न्याय की अवधारणा एक नौकरी या रोजी-रोटी जैसी चीजों तक सीमित नहीं रहती। अपने दुराग्रह-पूर्वाग्रह त्यागकर कभी सोचिए कि समाज के हर वर्ग में जन्म लेने वाली हर तरह की प्रतिभाएँ अगर सामने आने लगेंगी तो भारत के लिए कितना अच्छा होगा। हो सकता है कि कुछ मामलों में आपको थोड़ी निजी तकलीफ हो जाए। कुछ मौकों पर मेरे संग भी ऐसा हुआ है लेकिन याद रखिए कि यह हमारे ही शास्त्रों में लिखा है कि एक व्यक्ति के हित से गाँव का हित श्रेय है, गाँव के हित से देश का हित श्रेय है और देश के हित से समस्त विश्व का हित श्रेय है। बड़े हित के लिए छोटे हित का त्याग करना पड़ता है। हर हाल में याद रखें, आरक्षण कोई समस्या नहीं बल्कि सदियों पुरानी समस्या का समाधान है।

(रंगनाथ सिंह हिंदी के युवा लेखक-पत्रकार हैं। ब्‍लॉग के दौर में उनका ब्‍लॉग बना रहे बनारस बहुत चर्चित रहा है। बीबीसी, जनसत्‍ता आदि के लिए लिखने के बाद संप्रति एक डिजिटल मंच का संपादन। )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।