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साबरमती का संत-24: तुरंत रसोई घर में चले गए और स्वयं ही पराठे और आलू की तरकारी बनाने में लग गए

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है,  24वीं किस्त -संपादक। )

 

शिवानंद तिवारी, पटना:

जगजीवन राम शोध संस्थान ने गांधीजी पर एक बहुत पुरानी किताब पुनर्मूद्रित कराई है। उसका नाम है  'महात्मा गांधी और मैं।' लेखक हैं राम नंदन मिश्र। बहुत सुंदर  कागज और उतनी ही सुंदर छपाई वाली इस किताब को हाथ में लेने पर अच्छा एहसास होता है। इतनी रोचक है कि लगभग पचास पृष्ठों की इस किताब को मैं एक सांस में पढ़ गया था। गांधीजी की बनावट को समझने के लिए यह बहुत ही अच्छी किताब है। आप पंढ़े इसकी अनुशंसा मैं आपसे करता हूं। गांधी ज़ी के साथ मिश्र जी का जुड़ाव कैसे हुआ, यह किस्सा भी बहुत दिलचस्प है.।यह किताब आपको बताती है कि महात्मा गांधी का संघर्ष सिर्फ अंग्रेजों के विरुद्ध ही नहीं था, बल्कि वे हमारे समाज को भी बदलना चाहते थे। हिंदू समाज में जो गैर बराबरी थी, छुआछूत था, दकियानूसी और अंधविश्वास था, उनको मिटाने की लड़ाई भी वे साथ-साथ लड़ रहे थे। देश से हर प्रकार के भेदभाव को मिटाना चाहते थे। चाहे वह जाति का भेदभाव हो या धर्म आधारित या औरत और मर्द के बीच का भेदभाव हो। सभी को मिटा कर वे भारतीय समाज का नव निर्माण करना चाहते थे। गांधी जी की यह लड़ाई अंग्रेजों के खिलाफ उनकी लड़ाई से ज्यादा कठिन और चुनौतीपूर्ण थी बल्कि इसी लड़ाई की वजह से उनकी हत्या भी हुई.।

 

गांधी ने अपने मन के भेद भाव पर भी विजय प्राप्त कर लिया था। अपने और पराए का भेद उनके मन से मीट गया था। इस किताब में मिश्र जी ने एक घटना का जिक्र किया है। उन्हीं के मुहँ से सुनिए--'एक विशेष कार्य से गांधीजी ने मुझे दिल्ली भेजने का निश्चय किया। उस समय गांधी जी के पुत्र देवदास जी स्वर्गीय अजमल खान द्वारा संचालित हिंदी प्रचार संस्था में काम करते थे और दिल्ली में दो कमरे के एक मकान में रहा करते थे। गांधी जी का आदेश हुआ कि दिल्ली जाकर मैं भाई देवदास जी के साथ ही ठहरुं। कस्तूरबा को इस बात की खबर मिल गई कि मैं दिल्ली देवदास जी के पास जा रहा हूं। पूजनीय बा ने एक छोटे से  टीन के बक्से में गुजराती तरीके से बखरी बनाकर देवदास जी को देने के लिए मुझे दिया। उस समय अहमदाबाद से दिल्ली जाने के लिए छोटी लाइन द्वारा रेलवे सफर लगभग दो दिनों में पूरी होती थी। जाने के पहले मैंने गांधी जी को प्रणाम किया और विदा मांगी। गांधी जी ने बहुत स्नेह से आशीर्वाद दिया और मैं विदा हुआ। हठात गांधीजी ने रोककर पूछा - तुम्हारे रास्ते में खाना के लिए "बा" ने कुछ दिया? मैंने सहज भाव से उत्तर दिया- "नहीं।" इस छोटे से उत्तर के परिणाम स्वरुप भयंकर तूफान उठ पड़ेगा, यह मैं कैसे समझ सकता था? लेकिन हुआ वही। सुनते ही गांधीजी की मुद्रा बदल गई। उन्होंने "बा" को बुलाया और पूछा--तुमने रामनंदन को रास्ते के लिए भोजन दिया? "बा" ने अत्यंत सरल भाव से कहा-- 'मैं भूल गई'. गांधीजी ने गंभीर स्वर में कहा- "यदि देवदास जाता होता तो तुम ऐसी भूल कर सकती थी? देवदास और रामन्दन का अंतर कब तुम्हारे अंतर से मिटेगा।"
ऐसा कह कर गांधी जी रसोई घर में चले गए और स्वयं ही पराठे और आलू की तरकारी बनाने में लग गए। "बा" भी आकर बैठ गई. उनकी दोनों आंखों से झरझर आंसू गिर रहे थे और आटा गूंथ कर वे पराठा बेलने लगीं. गांधी तवे पर पराठा पका रहे हैं, "बा"  की आंख से आंसू गिर रहे हैं और वे पराठा बेल रही हैं - - मैं निस्तब्ध खड़ा हूँ! 

 

 

इस चित्र को जीवन में कोई कैई भूल सकता है? गांधीजी की चित्रों से या उनके विषय में  सुनकर धारणा बनती है कि वह बहुत ही रुक्ष किस्म के व्यक्ति होंगे। लेकिन गांधी जी के जीवन में आने वाले तमाम लोगों का यह मानना है कि उनके जैसा हंसी-मजाक करने वाला और खुलकर हंसने वाले व्यक्ति कम ही होंगे। इसी किताब में मिश्र जी लिखते हैं कि उनकी पत्नी भी उनके साथ आश्रम में थी। उनका दो बरस का नटखट बेटा विजय भी उनके साथ था। गांधी जी के आश्रम में नियम था कि हर व्यक्ति को एक घंटा शारीरिक श्रम करना होगा। उसमें किसी के लिए छूट नहीं थी। गांधीजी के लिए भी नहीं. उम्र दराज को हल्का काम मिलता था और जो जवान थे। उनको बड़ा बड़ा बर्तन साफ करने के लिए मिलता था। गांधीजी रसोई घर में सब्जी काटने का काम करते थे। रसोई घर का माहौल  उनके हल्के-फुल्के हंसी मजाक से बिल्कुल खुशनुमा बना रहता था। मिश्र जी लिखते हैं की मेरी पत्नी राजकिशोरी काम से बहुत भागा करतीं। लेकिन कभी-कभी बच्चों की तरह गांधी जी से कहतीं - "बापूजी, मुझे सिनेमा दिखा दीजिए।" गांधीजी हंसते हुए उत्तर देते तुम तीन दिनों तक रोज आठ घंटे रोटियां बेलकर दिखा दो तो चौथे दिन तुम्हें सिनेमा दिखा दूंगा।" और कई बार, उन्होंने तीन मील दूर, अमदाबाद शहर भेजकर, उसे सिनेमा दिखला भी दिया।

 

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(बिहार के भोजपुर में जन्मे लेखक शिवानंद तिवारी देश की लोहियावादी बिरादरी के अहम स्तंभ हैं। सेकुलरिज्म और समाजवादी विचारों के लिए उनकी पहचान है। राजद के उपाध्यक्ष हैं। राज्यसभा सांसद भी रहे।) 

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।