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विवेक का स्वामी-17: स्वामी विवेकानंद के लिए सनातन धर्म एक समुद्र की तरह रहा

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कनक तिवारी, रायपुर:

मौजूदा हुकूमत दोहरा आचरण जी रही है। देश की बड़ी और बुनियादी समस्याओं के लिए गांधी और नेहरू पर तोहमत लगाने में संकोच नहीं करती। ठीक इसके उलट, जरूरत के अनुसार उनके नामों को अपनी छवि चमकाने के लिए उपयोग भी करती है। पाकिस्तान बनने, हिन्दू मुस्लिम इत्तहाद को मुस्लिम तुष्टिकरण कहने, हिन्दू भारत बनाने के बदले सेक्युलर हिन्दुस्तान बनाने, हिन्दू कानूनों में तब्दील करने, मुसलमानों के निजी कानूनों को यूं ही छोड़ देने, मुसलमानों को वोट बैंक बनाने जैसी तोहमतें लगाई जाती रही हैं। झूठ, अफवाह, निंदा और रूढ़ियों का सियासी असर धीरे-धीरे जनता में होता ही गया। नकारात्मक वोट के आधार पर संकीर्ण हिन्दुत्व की ताजपोशी हो ही गई। खुशहाल भारत, सामाजिक समरसता, सियासी परिपक्वता, सांस्कृतिक बहुलता, भौगोलिक एकता वगैरह के मुकाबले ‘लव जेहाद‘, ‘बीफ‘, ‘पाकिस्तान‘, ‘कश्मीर‘, ‘राम मंदिर‘, ‘गंगा‘, ‘गोमाता‘, ‘श्मशान बनाम कब्रिस्तान‘, ‘तीन तलाक‘, ‘समान नागरिक संहिता‘, ‘घर वापसी‘, जैसे भूकंप की तरह उथल पुथल कर लेते हैं। ताजातरीन मामला गोमांस या बीफ के बेरोक टोक खानपान और उसके निर्यात के साथ जातीय और धर्मगत विद्वेष का हो गया है। बीफ से ज्यादा इंसान के गोश्त के कारोबार की हवस बढ़ रही है। 

अब तो कई व्यवसायिक बाबाओं, संतों, महंतों, मुल्ला मौलवियों और पादरियों की समानांतर संस्थाएं उग गई हैं। वे विवेकानन्द के उलट अपनी विनाषकारी हरकतों और समाजतोड़क गतिविधियों के कारण जनता को कूपमंडूक बनाती अपनी पैठ बना चुकी हैं। धर्म का चेहरा नफरत के कारण जितना ज्यादा विकृत हो सकता है, उससे भी कहीं ज्यादा बदसूरत करने में उन्हें गुरेज नहीं होता। धर्म, आध्यात्मिकता और संस्कृति बल्कि बौद्धिकता के अन्य  इलाकों में भी कई शलाका पुरुष हुए हैं। उनके यश को भुनातीं ये कथित नामधारी संस्थाएं बनती हैं। वे उन नामों का फकत भावनात्मक और बौद्धिक शोषण करतीं अपनी मतलबपरस्ती के लिए सायास बनाई जाती हैं। ऐसी संस्थाएं विवेकानन्द के विचारों की समझ और जनप्रियता की प्रतीक, प्रस्तोता और अधिकारिक प्रवक्ता प्रचारित हो जाती हैं। महापुरुष किसी के निजी खाते में नहीं होते। इसीलिए सबके होते हैं। विवेकानन्द के यश के साथ भी यही है। कुछ तत्वों द्वारा उनकी प्रचारात्मक अधिकारिता के बाहर भी विवेकानन्द को ढूंढ़ने का जतन हो रहा है। जिनके माध्यम से विवेकानन्द परिचित हो रहे हैं, वे माध्यम और संस्थाएं खुद को उनसे ज्यादा महत्वपूर्ण बनाती हैं।

उबाऊ उत्सवधर्मिता के चलते विवेकानन्द को (भी) लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी इसी तरह अभिव्यक्त और प्रचारित किया जा रहा है कि उन्हें समझने में सरलता के बजाय कठिनाई की सीढ़ियां चढ़ना होता है। एक अबूझ लोकप्रियता के बुन दिए गए आवरण को हटाकर अन्दर छिपाए गए विवेकानन्द के जनवादी मर्म को समझने की जितनी भी कोशिशें की जा सकती हैं, उनके लिए इतिहास न जाने कब से प्रतीक्षारत है। विवेकानन्द को प्रसिद्ध यायावर, संन्यासी और अब हिंदुत्व के विचार का प्रवर्तक बनाकर समाज में स्थापित करने की संस्थाएं और सरकारें एक अरसे से कोशिश करती आ रही हैं कि विवेकानन्द किसी विचारधारा के लिए वोट बैंक का कारक बन जाएं। इससे भी बुद्धिशोषकों को तकलीफ नहीं होती। विवेकानन्द द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन से इतिहास को स्वाभाविक अपेक्षा रही होगी कि वह उनके विचारों का विस्तार, प्रवर्तन और उन्हें प्रयोजनसिद्ध बनाने के लिए एक आत्मिक शोध संस्थान की तरह कार्य करेगा। ठीक उस तरह विवेकानन्द ने स्वयं अपने गुरु श्रीरामकृष्ण के विचारों को समाजीकृत बनाने में नई राहें अपने हाथों से कूढ़मगज सहकर्मी रूढ़ियों के पत्थरों को उखाड़कर तोड़ी थीं।

संसार के अन्य धर्मों से हिंदू धर्म, वेदांत या सनातन धर्म को उदात्तता के अर्थ में समझने की विवेकानन्द की पैरवी इस आधार पर भी रही है कि हिंदू धर्म किसी एक धार्मिक ग्रंथ या पैगंबर के कारण उद्भूत नहीं हुआ है। यदि ऐसा होता तो हिंदू धर्म एक तालाब का प्रतीक हो जाता। उसकी सरहदों से बाहर जाने की सुविधाएं नहीं होतीं और न ही नदियां उसमें आकर मिल सकतीं। विवेकानन्द के लिए हिंदू धर्म समुद्र की तरह है। उसमें हजारों लाखों लोगों का वैचारिक और कर्म के स्तर पर योगदान है। उसे दुनिया की किसी भी विचार सरिता को अपनी व्यापकता के अंतर में ग्रहण करने की मनोवैज्ञानिक मनाही नहीं है। यही कारण है कि विवेकानन्द इस्लाम और ईसाइयत के तलवार या प्रलोभन के बल पर प्रसरणशील होने पर आपत्ति करते थे। वे नहीं मानते थे कि जो कुछ  अंतिम सत्य वहां कह दिया गया है, बस वही अंतिम है और जिसके अनुपालन के लिए वे अनुयायी बनाते हैं, और शक्ति प्रदर्शन भी करते हैं।

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(स्‍वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।