(हिंदी के वरिष्ठ लेखक असगर वजाहत 2011 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्म शताब्दी समारोह में शिरकत करने पाकिस्तान गए थे। वहां लगभग 45 दिन घूमते रहे। लाहौर, मुल्तान और कराची में अनेक लोगों से मिले थे। संस्थाओं में गए थे। उन अनुभवों के आधार पर उन्होंने एक सफरनामा 'पाकिस्तान का मतलब क्या' लिखा था, जो तब ज्ञानोदय में छपा था और उसके बाद ज्ञानपीठ ने उसे पुस्तक रूप में छापा था । उस पर आधारित कुछ अंश द फॉलोअप के पाठकों के लिए। प्रस्तुत है 9वां भाग:)
असग़र वजाहत, दिल्ली:
मैंने डाॅ. आसिफ फ़र्रुखी (प्रतिष्ठित लेखक, अनुवादक, संपादक इसी वर्ष निधन हुआ है) से कराची की हिन्दू आबादी के बारे में कई सवाल किये और कराची के हिन्दू मंदिर देखने की इच्छा जाहिर की। डाॅ. आसिफ ने कहा कि वे एक हिन्दू नौजवान करीम को मेरे पास भेजेंगे जो मुझे हिन्दू मंदिर दिखाएगा। उन्होंने मेरे सामने उसको फोन किया और दिन, टाइम वगै़रह तय करा दिया। मुझे करीम का फोन नम्बर दे दिया। कराची ही नहीं लाहौर में भी मुझे लगा कि पाकिस्तान में हिन्दुओं और ईसाइयों ने अपने पहले नाम (फस्र्ट नेम) ऐसे रखे हुए हैं, जिससे उनके धर्म का पता नहीं चलता। कराची में ऐसे ड्राइवरों से मिला और लाहौर में एक होटल के ड्राइवर के नाम के साथ भी यही स्थिति देखी। तत्कालीन प्रधानमंत्री आसिफ ज़रदारी के मंत्रिमंडल के अकेले स्वर्गीय ईसाई मंत्री शहबाज़ भट्टी के नाम से भी कोई यह पता नहीं लगा सकता था कि वे ईसाई होंगे। डाॅ. आसिफ ने मुझे फ़ोन किया कि वे डाॅक्टरों की काॅन्फ्रेंस में हिल्टन होटल जा रहे हैं। मैं चाहूँ तो उनके साथ चल सकता हूँ। मैं तैयार हो गया। कराची का ‘हिल्टन होटल’ पुराना है। मेरे ख्याल से कम से कम तीस साल पुराना होगा। अब उसमें वह भव्यता नहीं है जो पहले रही होगी। दिल्ली और मुम्बई के सात सितारा होटलों से उसका कोई मुकाबला नहीं है। बहरहाल ‘हिल्टन’ में कराची का उच्च वर्ग ही जाता है। यहाँ महिलाओं को आधुनिक कपड़ों में देखा। इससे पहले लाहौर में भी मैंने नोटिस किया था कि आधुनिक कपड़े पहने लड़कियाँ या औरतें पाकिस्तान के सार्वजनिक स्थानों जैसे औसत दर्जे के बाजार, रेलवे स्टेशन, रेस्त्राँ वगै़रह में नहीं दिखाई देतीं।
काॅन्फ्रेंस जारी थी। हम लोग बाहर ही खड़े हो गये। बातचीत में डाॅ. आसिफ ने कहा कि कराची में अब तक बयालीस शिआ डाॅक्टरों की हत्याएँ हो चुकी हैं। ”क्यों?“
”शिआ सुन्नी कान्फ्लिट।“ वे बोले।
”सिर्फ़ डाॅक्टर ही क्यों?“
”सोसाइटी के योग्य लोग...काबिल लोग...प्रोफेशनल लोग“ वे बोले।
”शिओं ने सुन्नियों पर भी ऐसे हमले किये होंगे?“
”नहीं...शिओं में इतनी ताकत नहीं है, उनका नम्बर बहुत कम है और फिर उसका ‘रिएक्शन’ बहुत ज़्यादा होता...इसलिए। टारगेटेड हमलों की बात तो नहीं कही जा सकती, लेकिन सुसाइड बाम्बिंग हो सकती है।“ उन्होंने बताया।
”अच्छा ये जो मस्जिदों में बम विस्फोट होते हैं।“ मैंने कहा।
”हाँ।“ वे बोले।
पाकिस्तान के जातीय संघर्षों में शिआ-सुन्नी संघर्ष के बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि यह कट्टरतावादी सुन्नी मुसलमानों और शिओं का संघर्ष है। इस्लाम धर्म तथा खिलाफत के उत्तराधिकार पर मतभेदों के कारण शिआ और सुन्नी मुसलमानों में पुराना मतभेद है जो कभी-कभी बहुत उग्र हो जाता है और कभी शान्त रहता है। कट्टरपंथी सुन्नी मुसलमान शिओं पर इस्लाम को अशुद्ध करने का आरोप लगाते हैं और इसी प्रकार शिआ सुन्नियों पर कुछ गंभीर आरोप लगाते हैं। पाकिस्तान में यह समस्या एक राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है।
दक्षिण पंजाब के झंग जिले में शिआ-सुन्नी संघर्षों में 1985 से लेकर 1989 के बीच 300 से अधिक लोगों की जानें गयी हैं और शहर वस्तुतः दो हिस्सों में बँट गया है, दोनों समुदाय अलग-अलग रहते हैं। ऑन लाइन इनसाइक्लोपिडिया ऑफ मास वायलेंस के अनुसार 1989 से लेकर 2003 के बीच इस संघर्ष में 1468 लोग मारे गये थे और 3370 लोग जख्मी हुए थे। नौवें दशक के मध्य तक यह हिंसा केवल पंजाब में केन्द्रित थी लेकिन अब यह देश के अन्य भागों में भी फैल चुकी है। कराची में 1994-95 के बीच 103 शिआ और 28 सुन्नी इस हिंसा की भेंट चढ़ चुके हैं। पाकिस्तान के अन्य प्रान्तों में भी यह हिंसा जारी है। 2003 में बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा की जामा मस्जिद और इमाम-बारगाह में किए गये एक आत्मघाती हमले में 53 शिआ मारे गये थे। दूसरा बड़ा हमला 1 अक्तूबर, 2004 में सियाल्कोट की शिआ मस्जिद पर किया गया था जिसमें 75 लोग हताहत हुए थे।
शिआ-सुन्नी समुदायों के बीच सशस्त्रा संघर्ष के कारणों में एक प्रमुख कारण जनरल ज़ियाउल हक़ द्वारा पाकिस्तान का इस्लामीकरण माना जाता है। पाकिस्तान का इस्लामीकरण दरअसल बहुसंख्यक सुन्नी मुस्लिम समुदाय की आकांक्षाओं के अनुसार किया गया था जिसके कारण शिआ समुदाय ने इसका विरोध किया था। दूसरा कारण राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली घटनाओं जैसे ईरान की इस्लामी क्रान्ति (1979), अफ़गानिस्तान पर सोवियत हमला (1979-88), ईरान-इराक युद्ध (1980-88) और कश्मीर का ‘जिहाद’ मानी जाती हैं। इसके अलावा कट्टरपंथी सुन्नियों को सऊदी अरब, एक समय में इराक की भी आर्थिक सहायता मिलती थी। शिआ कट्टरपन्थियों को ईरान की सहायता ने भी इस संघर्ष को बहुत हवा दी है।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के ज़माने के मित्र डाॅ. जमाल नकवी ने तय किया था कि मुझे कराची के सभी कोने दिखा देंगे। मुझे ख़्याल पसन्द आया था। हम समन्दर के किनारे दूर तक चले गये जहाँ बन्दरगाह हैं। यहीं उन्होंने दूर से क्लिफ्टन वाला मंदिर भी दिखाया जहाँ मैं हिन्दू नौजवान के साथ जाने वाला था। हम लोट कर पुरानी कराची में आ गये। यह विभाजन से पहले की कराची है और कुछ-कुछ जगहों पर पुरानी मुम्बई के इलाके जहाँ कारोबारी लोग रहा करते थे जैसे मकान दिखाई पड़े। नीचे दुकानें और उन पर चार-पाँच मंज़िला इमारत। मैंने तस्वीरें लेनी शुरू की तो वही हुआ था जो मुल्तान में देख चुका था। लोहे की रेलिंग के बीच में ॐ बना हुआ था। डाॅ. जमाल ने बताया कि यह एरिया पूरी तरह हिन्दू सिंधी व्यापारियों का इलाका हुआ करता था। कराची के बड़े उद्योग-व्यापार हिन्दू सिन्धी व्यापारियों या कुछ बोहरा मुसलमानों के हाथ में थे।
इतवार का दिन था। बाज़ार बंद था। लेकिन इमारतें दिलचस्प थीं। उनमें कराची का पूरा इतिहास छिपा हुआ था। हम लोग टैक्सी से इलाके का चक्कर लगाते रहे, रुकते रहे। कुछ देर बाद मैंने महसूस किया कि जमाल कुछ थक जाते हैं या सैकड़ों बार देखी इमारतों और बाज़ारों को फरवरी की धूप में देखने की क्या ज़रूरत है। कुछ देर बाद मैंने उनसे कहा, तुम गाड़ी में बैठो मैं अकेला ही इस इलाके में घूमना चाहता हूँ। जमाल घबरा गये क्योंकि कराची के उस इलाके में अकेले?
”नहीं...नहीं ऐसा क्या है...गाड़ी से चलते हैं...जहाँ कहोगे गाड़ी रोक दी जाएगी। देख लेनाा।“
”नहीं यार बात बनेगी नहीं।“ मैंने कहा।
”ओहो...इसमें क्या परेशानी है?“
”यार...मुझे अपने को थकाने में मज़ा आता है।“
जमाल नकवी हँसने लगे। उनकी फिक्र वाजिब थी और मेरा प्वाइंट भी अपनी जगह पर सही था। मैं रोज़-रोज़ कराची के उस इलाके में न आ सकता था, न घूम सकता था। आज मौका था और मैं घूमना चाहता था...अपने तौर पर घूमना चाहता था तो...।
”ठीक है...तुम्हारे पास मोबाइल तो है न?“ जमाल ने पूछा।
”हाँ है?“
”और पासपोर्ट?“
”पासपोर्ट की काॅपी है...वीज़ा की भी...।“
”ठीक है...पैसा तो बहुत नहीं है।“
”पैसा पाँच-सात हज़ार पाकिस्तानी रुपये।“
”अच्छा...ठीक है...तुम घूमो...ज़रा-सी भी कोई प्राॅब्लम हो तो बताना, ठीक है।“
”हाँ...ठीक है।“
मैं जमाल नकवी को छोड़कर अतीत में चला गया। सामने कोई सौ साल पुरानी इमारत नज़र आ रही थी। पास जाकर देखा तो चैम्बर ऑफ कामर्स एंड इंडस्ट्री कराची की शानदार इमारत थी। गे्रनाइट से बनी भव्य इमारत अपने अतीत का गौरवान कर रही थी। मैं उसके पास गया तो गेट के एक तरफ़ अंगे़जी में लिखा था, ”इस, इमारत की बुनियाद 8 जुलाई, 1934 को महात्मा गाँधी ने रखी थी।“ मैं यह पढ़कर हैरान रह गया। तो 1934 तक महात्मा गाँधी की प्रतिष्ठा और ख्याति इतनी बढ़ चुकी थी कि सिन्धी व्यापारियों ने...।
और आगे बढ़ा। कुछ विशाल पुरानी खंडहरनुमा इमारतें दिखाई पड़ीं, उनमें से एक के बोर्ड पर इतना जंग लग गया था कि कुछ जो पढ़ पाया वह अमन मिल्स स्टोर था। लोहे के शानदार फाटकों में ऐसे बड़े-बड़े ताले लटक रहे थे जैसे वे दसियों साल से नहीं खुले हैं और भविष्य में जाने कब खुलेंगे। पी. एंड.ओ. प्लाजा की शानदार इमारत भी बहुत प्रभावशाली लगी। यह भी उजाड़ थी। दीवारों पर वर्षों की गर्द जमी थी, लेकिन फिर भी उसके पीछे अतीत का वैभव जाग रहा था।
गर्मी, धूप और पसीने से परेशान मैं गलियों, सड़कों में इस तरह भटकता रहा कि वापसी का रास्ता याद रहे और जहाँ जमाल ने गाड़ी खड़ी करायी है वहाँ पहुँच सकूँ। कैमरे के जूम लेंस को तकलीफ देते रहने का एक और अच्छा फल मिला। एक पुरानी इमारत के गेट के ऊपर लगे नामपट्ट में मैंने हिन्दी लिखी देखी। यह अद्भुत था कि कराची में, वह भी कम-से-कम अस्सी-सौ साल पुरानी इमारत पर हिन्दी में लिखा था। ऊपर अंगे्रजी में शिकारपुरी क्लाथ मार्केट लिखा था और उसके नीचे हिन्दी में ‘शिकारपुरी कपड़े का मारकीट’ लिखा था। नीचे तारीख़ वगै़रा नहीं पढ़ पाया। आगे बढ़ा तो एक शानदार चर्च नज़र आया, यह भी अंगे्रजों के समय का ही लग रहा था। गोथिक स्टाइल में बनी, अपने डिजाइन में लगभग पूरी तरह योरोपियन लगने वाली एक पुरानी इमारत ने अपनी तरफ़ खींचा। यहाँ के सभी पुरानी इमारतें गे्रनाइट पत्थर की बनी हैं। गेट के ऊपर गोथिक स्टाइल में पत्थर पर उकेरे गये कलात्मक त्रिकोण के अन्दर अंगे्रजी में अपने पहली पंक्ति थी ‘1912’। दूसरी पंक्ति में ‘सेठ रामचन्द’ और तीसरी पंक्ति में ‘केशवदास’ लिखा था।
लौटकर गाड़ी पर आया तो हम आगे बढ़े। कराची में भव्य आधुनिक इमारतों की भी कमी नहीं है। चमचमाती इमारतों से गुज़रते हम कायदे आज़म मुहम्मद अली जिन्ना की मज़ार पर पहुँचे। संगेमरमर से बने इस मकबरे का स्थापत्य काफी अनोखा, अच्छा और आधुनिक है। विशाल पार्क के बीच में यह मकबरा अपना प्रभाव छोड़ता है। जिन्ना की ‘आधुनिकता’ इसमें पूरी तरह झलकती है। उनके व्यक्तित्व की दृढ़ता और राजनीतिज्ञ के रूप में उनके तार्किक होने का आभास भी मिलता है।
दिनभर हम लोग कराची की खाक छानते रहे। दोपहर को कराची की फूड स्ट्रीट में अजीब तरह के लेकिन मजेदार कबाब खाए।
शाम को कराची के किसी शानदार क्लब में ‘फैज़’ पर कोई आयोजन किया गया था जिसमें पाकिस्तान प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव राहत सईद साहब को बुलाया गया था। राहत साहब उन दिनों किसी प्रोग्राम में भारत गये हुए थे। उन्होंने डाॅ. जमाल नकवी से अपना प्रतिनिधित्व करने का अनुरोध किया था। जमाल ने मुझे भी साथ ले लिया था। हम खोजते-खोजते क्लब पहुँचे। बताया गया कि यह कराची का एक बहुत प्रतिष्ठित क्लब है। अंदर आये तो कार्यालय के बाहर बोर्ड पर जो जानकारियाँ दी गयी थीं उसमें लिखा था कि क्लब की मेम्बरशिप फीस पाँच लाख रुपये है।
क्लब के स्वीमिंग पूल के किनारे ‘शामे फैज़’ का आयोजन किया गया था। मुख्य अतिथि सिन्ध के राज्यपाल के सलाहकार कुँवर यूसुफ जमाल थे। वे पहली लाइन में हम लोगों के साथ ही बैठे थे। उन्होंने अपना विजिटिंग कार्ड दिया तो मैंने भी अपना कार्ड दिया। परिचय हुआ। जानकारी मिली कि यूसुफ साहब पाकिस्तान सिविल सर्विस के बहुत सीनियर लोगों में हैं।
कार्यक्रम के दो बहुत रोचक पक्ष थे। पहला यह कि स्थानीय स्कूल की लड़कियों ने ‘फैज़’ की कविता ‘लाज़िम है के हम भी देखेंगे’ का नाट्य रूपान्तर प्रस्तुत किया था। इसमें कोई शक नहीं कि पाकिस्तान में इस्लामीकरण का जो जुनून आया हुआ है उसका असर जीवन के प्रत्येक क्षेत्रा में देखा जा सकता है। ‘फैज़’ की इस कविता का इस्लामीकरण देख कर मैं डर गया। मैंने सोचा, इस्लाम के नाम पर जिस देश में इतनी घृणा और हिंसा फैलायी जा रही है, ‘मनुष्यता’ का विभाजन किया जा रहा है, उसका नतीजा बहुत ही भयानक होगा। ‘फैज़’ की कविता लाज़िम है कि हम भी...‘डिक्टेटरशिप’ और निरंकुश शासकों के विरोध में लिखी गयी कविता है जिसमें कवि यह भविष्यवाणी करता है कि तानाशाही का पतन अवश्य होगा। कवि और आवाम इस पतन को अपनी आँखों में देखेंगे।
कविता की नाट्य-प्रस्तुति के लिए मंच सज्जा इस तरह की गयी थी कि मंच के एक ओर पर्दे पर मक्का मदीना का चित्रा बना था जिसके सामने साड़ी पहने और बिन्दी लगाए दो लड़कियाँ बैठी थीं। मेरे विचार से इसका आशय था कि ‘जब अर्जे़ खु़दा के काबे से सब बुत उठवाये जाएँगे।’ फैज़ ने इस पंक्ति को जितना बहुआयामी और कलात्मक बनाया है उसके विपरीत नाट्य प्रस्तुति वालों ने उसे स्थूल, कलाविहीन और थोथा बना दिया था। ‘अनलहक’ के नारे को, जिसका अर्थ अहम् ब्रह्म है, अल्लाहो अकबर का नारा बना दिया गया था। मंच पर कुछ कुर्सियाँ रखी थीं जिन पर कोट पैंट पहने अमेरिका और पश्चिमी देशों के प्रतीक बैठे थे। कविता में जब यह पंक्ति आयी कि ‘जब तख्त गिराए जाएँगे जब ताज उछाले जाएँगे।’ तो कुर्सियों पर बैठे अमेरिका और योरोप के प्रतिनिधियों को, अरबी कपड़ों और दाढ़ियों में आये कुछ लोगों ने जो निश्चित रूप से मुसलमानों के प्रतीक थे, कुर्सियों से गिरा दिया और उस पर मुसलमान बैठ गये। यह नाटिका इतनी असहनीय हो गयी कि देखा नहीं जा रहा था। फिर यह भी लग रहा था यह देश अपने युवाओं को क्या संस्कार दे रहा है?
कार्यक्रम के अन्त में यूसुफ जमाल साहब ने अपने भाषण में कहा कि बच्चों को किसी और कविता का नाट्य रूपान्तरण करना चाहिए। यह कविता कुछ कठिन है। यूसुफ जमाल साहब ने अपने भाषण में फैज़ की कुछ कविताएँ जुबानी सुना दीं। यह मेरे लिए सुखद आश्चर्य की बात थी। मैंने प्रोग्राम के बाद उनसे कहा भी कि भारत में उनके जैसे साहित्य प्रेमी सिविल सर्वेंट बहुत कम हैं। सुबह-सुबह उस हिन्दू लड़के को फोन मिलाया जिसके बारे में फर्रुखी साहब ने बताया था। फोन की घंटी की आवाज़ की जगह एक गीता या गाना बजने लगा जिसका मुखड़ा था, ‘जब जीवन राह अंधेरी हो...।’ मैंने सोचा, हाँ हिन्दुओं और दूसरे अल्पसंख्यकों की जीवन राह पाकिस्तान में अंधेरी ही है। भारतीय मुसलमान भारत में अपने लिए सरकार से अनेक माँगें करते रहते हैं। अपनी सुरक्षा और विकास के लिए सरकारों पर ज़ोर डालते हैं, लेकिन पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों की कोई क्यों चिन्ता नहीं करता? भारत सरकार या यू.एन. सबने उन्हें छोड़ रखा है। करीम दो बजे के बाद आया क्योंकि वह जिस रेस्त्रां में काम करता है वहाँ से उसे सिर्फ़ दो घंटे की छुट्टी मिली थी। वह आटो लेकर आया था। मैं तैयार बैठा था। हम सबसे पहले ‘क्लिफ्टन’ के श्री रत्नेश्वर महादेव मंदिर पहुँचे। यह वही मंदिर है जहाँ पाकिस्तान के भूतपूर्व राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ आये थे। पाकिस्तान यात्रा के दौरान अल्पसंख्यकों से बात करके लगा कि जनरल मुशर्रफ उनके लोकप्रिय नेता हैं।
मंदिर के द्वार के ऊपर पहले अंगे्रजी और फिर हिन्दी में ‘श्री रत्नेश्वर महादेव’ और नीचे ‘मंदीर’ लिखा था। आसपास फूल बेचने वालों की दुकानें थीं। हम दोनों अन्दर जाने लगे तो एक आदमी ने रोक दिया और कहा, ”आप लोग कौन हैं।“
करीम ने अपना परिचय दिया और मेरे बारे में बताया कि मैं इंडिया से आया हूँ और मंदिर देखना चाहता हूँ।
उसने कहा कि मंदिर में गै़र-हिन्दू नहीं जा सकते।
काफ़ी देर तक बहस होती रही। करीम ने मुझसे कहा कि वह अंदर जा रहा है और बड़े पंडित जी की ‘परमीशन’ ले आएगा। वह अंदर चला गया। मैं मंदिर के बाहर फोटो लेने लगा तो मुझे मना कर दिया गया कि फोटो नहीं ले सकते। वाह! अजीब ज़बरदस्ती थी। बहरहाल एक-दो फोटो तो मैंने ले ही लिये। मैं मंदिर के बाहर ही खड़ा था कि सफ़ेद शलवार कमीज़, पहने, पूरी तरह सिन्धी लगने वाले एक पैंतालीस-पचास साल के सज्जन फूल की दुकान पर आये। उनके साथ उनकी पत्नी भी थीं जिन्होंने शालवार सूट पहन रखा था। लेकिन महिला के चेहरे पर हिन्दू होने की कोई निशानी नहीं थी। न तो बिन्दी थी, न सिन्दूर था, न गले में मंगल सूत्रा था। यह देखकर न जाने कितने बातें साफ़ हो गयीं। फूल लेकर दोनों मंदिर के अन्दर चले गये।
कुछ देर बाद करीम मुँह लटकाए मंदिर से निकाला। मैं उनकी बाॅडी लैंग्वेज से समझ गया कि काम नहीं बना, लेकिन किया क्या जा सकता था। वे बोले, ”चलिए दूसरे मंदिर चलते हैं?“
”दूसरे?“
”हाँ सिटी में बड़ा मंदिर है।“
समुद्र के किनारे से हम लोग बीच शहर की धमाचैकड़ी में आ गये। धुआँ
-धुआँ सड़क के दोनों तरफ दुकानें थीं। एक तरफ़ दुकानों के बीच से एक चैड़ा रास्ता अंदर मंदिर की तरफ़ जा रहा था। गेट पर कुछ लोग खड़े थे, लेकिन करीम ने आॅटो वाले से कहा कि बस अंदर चले चलो, गेट पर मत रुकना।
दिन के तीन थे। मंदिर के परिसर में, जो काफ़ी बड़ा है, लोग कम थे। लेकिन मुझे डर था कि कहीं पहचान पत्रा न माँग लिया जाए? फोटो लेने पर पाबन्धी न बता दी जाए। इसलिए मैं डरा-डरा करीम के पीछे सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर मंदिर के मुख्य द्वक्षर तक आ गया। गर्भगृह बंद था। करीब ने बताया कि सन् 2004 में मंदिर की स्थापना के 150 साल पूरे हुए हैं।
कराची में यह अकेला स्वामी नारायण मंदिर है जो स्वामी नारायण सम्प्रदाय का है। मंदिर के परिसर में हिन्दू त्योहार मनाये जाते हें।
मंदिर से ही हमें एक बड़े जाल के नीचे कुछ मोर दिखाई पड़े। कुछ दूसरी चिड़ियाँ भी थीं। करीम ने बताया कि यहाँ गोशाला भी है। यात्रियों के लिए धर्मशाला का भी इन्तिज़ाम है। मैं सुनता रहा और मंदिर के फोटो लेता रहा। इस स्वामी नारायण मंदिर का अहमदाबाद से भी ताल्लुक है। वहाँ से भक्त यहाँ आते हैं। प्रभु स्वामी नारायण की ‘ओरीजनल’ मूर्ति यहाँ नहीं है। वह 1947 में इंडिया चली गयी थी...यहाँ हिन्दुओं की ‘गु्रप मैरिज’ भी होती है...
मैं चाहता था करीम से देा-चार और मुलाकातें हों ताकि बातचीत का और भी मौका मिले। लेकिन मेरे चाहने के बावजूद यह नहीं हो सका।
जारी
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(असग़र वजाहत महत्त्वपूर्ण कहानीकार और सिद्धहस्त नाटककार हैं। इन्होंने कहानी, नाटक, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, फिल्म तथा चित्रकला आदि विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान किया है। ये दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके हैं। संप्रति स्वतंत्र लेखन )
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।