रांची
संथाल हूल के अमर शहीद सिदो-कान्हू के वंशज मंडल मुर्मू भी अंततः भाजपा में शामिल हो गए। बीजेपी नेता चंपाई सोरेन ने इसके कारण बताये हैं। सोशल मीडिया एक्स पर जारी एक पोस्ट में उन्होंने कहा है, “क्या आप जानना चाहते हैं कि आदिवासी समाज से जुड़े मुद्दों को उठाने वाले इस युवक ने यह निर्णय क्यों लिया? इसे समझने के लिए आपको संथाल परगना की वीर भूमि भोगनाडीह की परिस्थिति को देखना होगा। वहां जाते वक्त रास्ते में, तथा वीरों के उस पवित्र गांव में भी आपको सड़क किनारे कई नए पक्के मकान मिलेंगे, जिस पर एक राजनैतिक दल के झंडे दिखेंगे।“
चंपाई ने कहा, इनमें से अधिकतर मकान बांग्लादेशी घुसपैठियों के हैं और उन पर लगे झंडे बताते हैं कि उन्हें आदिवासियों की जमीन लूटने, बहु-बेटियों की अस्मत से खिलवाड़ करने तथा आदिवासी समाज के ताने-बाने को बिगाड़ने की "हिम्मत" कहाँ से मिलती है। यह झंडा बाकी लोगों को "एक दल विशेष के इन दामादों" से नहीं उलझने की चेतावनी देता है। जिस माटी, बेटी एवं रोटी के लिए हमारे पूर्वजों ने अंग्रेजों को झुका दिया था, आज उसी संथाल परगना की माटी पर इन घुसपैठियों का कब्जा है। पाकुड़, साहिबगंज एवं अन्य स्थानों पर आदिवासी समाज अल्पसंख्यक बन चुका है। जिकरहट्टी, मालपहाड़िया, तलवाडांगा, किताझोर समेत दर्जनों ऐसे गांव हैं, जहां अब आदिवासी ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलते। उनके घर, उनकी जमीन तथा उनके खेतों पर घुसपैठियों ने कब्जा कर लिया है।
चंपाई ने कहा कि आदिवासियों की हितैषी होने का दंभ भरने वाली यह सरकार हाई कोर्ट में झूठा ऐफिडेविट फाइल कर सच को नकार रही है। जब हाई कोर्ट ने इस मामले की जाँच के लिए एक फैक्ट फाइंडिंग कमेटी गठित करने का आदेश दिया तो ये लोग उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चले गए। इसी से पता चलता है कि इनकी प्राथमिकता आदिवासियों को नहीं, बल्कि घुसपैठियों को बचाना है।
भाजपा में शामिल होने के बाद मंडल मुर्मू को धमकियाँ दी जा रही हैं, उनके खिलाफ पोस्टर लगाये जाने की सूचना मिली है। इन सब के पिछे वही लोग हैं जिन्हें लगता है कि वे आदिवासियों को हर मुद्दे पर बेवकूफ बना सकते हैं, डरा-धमका कर चुप करवा सकते हैं। उन लोगों का असली डर यह है कि कहीं हम लोग उनके चेहरे से आदिवासियत का नकाब ना उतार फेंके। कहीं दुनिया को उनकी सच्चाई ना पता चल जाये।
बीजेपी नेता ने कहा, झारखंड आंदोलन के समय दर्जनों बार गोली चलवा कर, आंदोलन को कुचलने का दुस्साहस करने वाली कांग्रेस तो हमेशा से आदिवासी और झारखंड विरोधी थी। उन्होंने ही 1961 में जनगणना से "आदिवासी धर्म कोड" हटाया था। फिर उनके सहयोगियों से क्या उम्मीद कर सकते हैं? जिन लोगों ने हमारे द्वारा फाइनल किए गए पेसा कानून को रोका, प्राथमिक विद्यालयों में जनजातीय भाषाओं में पढ़ाई के हमारे प्रयासों पर कुंडली मार कर बैठ गए और युवाओं को सड़कों पर आने को मजबूर किया, उनका हिसाब राज्य की जनता करेगी। झारखंड से इस आदिवासी विरोधी सरकार की विदाई की उलटी गिनती जारी है। बस, दो हफ्ते और...