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2026 के परिसीमन का उलझन : कमजोर होगा अनुसूचित क्षेत्र, राज्यपाल ही सहारा 

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सुधीर पालः 
झारखंड में ‘पेसा’ की उलझन तो दूर हो जाएगी लेकिन परिसीमन को सुलझा पाना मुश्किल होगा। पेसा का मसला समुदायों से जुड़ा है और देर-सबेर सामुदायिक चेतना से सहमति बन ही जाएगी। सरकार इस मसले पर सुस्त तो है लेकिन लंबे समय तक टालने की स्थिति में नहीं है। 
2007 में झारखंड परिसीमन के दायरे से बाहर आ गया। 2026 के परिसीमन से भी झारखंड बाहर रझेगा इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए। मित्र रतन तिर्की ने ठीक ही कहा है कि परिसीमन लागू होने से राज्य के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक हालत पूरी तरह बदल जाएंगे और अनुसूचित क्षेत्र होने के नाते मिली विशेष पहचान भी खतरे में पड़ जाएगी। अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों की संख्या विधान सभा और लोक सभा दोनों में घटेगी। यदि ऐसा होता है, तो यह न केवल जनजातीय समुदाय के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को प्रभावित करेगा, बल्कि उनकी परंपराओं, अधिकारों और संस्कृति पर भी नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। 2007 में परिसीमन के दायरे से झारखंड को बाहर रखने के अभियान में रतन तिर्की की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। 


माना जा रहा है कि 2026 के परिसीमन के बाद भी यदि लोकसभा में सीटों की संख्या नहीं बढ़ी तो भी एक सीट का नुकसान होगा। 14 लोक सभा सीटों की जगह झारखंड में यह संख्या घाट कर 13 होने की संभावना है। अनुसूचित जाति ( ST) को राजनीतिक फायदा होगा। एससी के लिए अभी सिर्फ पलामू सीट आरक्षित है। परिसीमन के बाद पलामू के साथ-साथ चतरा को भी एससी के लिए आरक्षित किया जाना है। अनुमान है कि यदि लोक सभा में सीटों की संख्या 543 से बढ़कर 848 होती है तो झारखंड में यह संख्या 18 होगी। लेकिन दोनों स्थिति में अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों की कम होगी। फिलहाल झारखंड में अनुसूचित जनजाति ( ST) के लिए 28 सीटें हैं। 


इसी तरह अनुसूचित जाति (SC) के लिए 8 सीटें आरक्षित हैं। नए परिसीमन के अनुसार एसटी की सीटें घटकर 22 और एससी की सीटें बढ़कर 10 हो जाएंगी। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन फिलहाल साबिगंज जिले के बरहेट से विधायक हैं। परिसीमन के बाद सीट का नाम बरहड़वा होगा और यह सीट एसटी के लिए न होकर सामान्य होगी। लेकिन 2021 की जनगणना पर 2026 का परिसीमन होना है और ऐसी स्थिति में 2001 की तुलना में कम से कम 4 और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटें कम होगी। यानि राज्य में एसटी आरक्षित सीटों की संख्या 18-19 के आस-पास रह जाएगी।    
   
लेकिन 2007 और आज के राजनीतिक हालात में जमीन-आसमान का अंतर है। दिल्ली का निजाम बदल गया है। केंद्र में भाजपा नीत एनडीए की सरकार है और उनकी प्रतिबद्धता ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ और ‘एक देश, एक विधान’ की है।पाँचवीं अनुसूचित क्षेत्र का वैविध्य संसार और आदिवासियत का सम्मान तथा स्वशासन आदि सरकार के अजेंडे से बाहर है। परिसीमन कानून ने कोर्ट के दरवाज़े पहले ही बंद कर रखे हैं। सनद रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने 10 मई, 2023 को उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ यह तर्क दिया गया था कि भारत के संविधान की पांचवीं अनुसूची के खंड 5(1) के तहत राज्य के राज्यपाल द्वारा जारी अधिसूचना के अभाव में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 और परिसीमन अधिनियम, 2002 अनुसूचित क्षेत्र पर लागू नहीं होते हैं । न्यायालय ने इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि संविधान की पांचवीं अनुसूची एक गैर-आदिवासी व्यक्ति अनुसूचित क्षेत्र में बसने और मतदान करने के अधिकार को छीन लेती है। 


परिसीमन राज्य के लिए घातक है क्योंकि यह सामाजिक-सांस्कृतक ताना-बाना को छिन्न-भिन्न करने के साथ-साथ राजनीतिक और आर्थिक तौर पर राज्य को कमजोर बनाएगी। 2007 में मधु कोड़ा सरकार कांग्रेस और झामुमो के समर्थन से चल रही थी। केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। सोनिया गांधी यूपी सरकार की अध्यक्ष थीं। 2007 में मधु कोड़ा के नेतृत्व में झारखंड के आदिवासी नेताओं और विधायकों ने सोनियां गांधी और मनमोहन सिंह से मुलाकात की थी। झारखंड में परिसीमन आयोग की रिपोर्ट लागू न करने के लिए जोर दिया था। नतीजतन, झारखंड में परिसीमन आयोग की रिपोर्ट लागू नहीं हुई।   


लेकिन आज की परिस्थिति में राज्यपाल ही एकमात्र विकल्प हैं। राज्यपाल पाँचवीं अनुसूचित क्षेत्र के संरक्षक हैं और संविधान उन्हें हस्तक्षेप का अधिकार देता है। इसी मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे से निपटा - क्या केंद्रीय और राज्य अधिनियम अनुसूचित क्षेत्र पर लागू हो सकते हैं जब तक कि राज्यपाल द्वारा उक्त अधिनियमों को अनुसूचित क्षेत्र पर लागू करने वाली एक विशिष्ट अधिसूचना जारी नहीं की जाती है। पांचवी अनुसूची के खंड 5(1) के अवलोकन पर, जो अनुसूचित क्षेत्रों पर लागू कानूनों से संबंधित है, न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल की शक्ति का विस्तार - 1. एक अधिसूचना द्वारा निर्देशित करना कि एक विशेष केंद्रीय या राज्य कानून राज्य में अनुसूचित क्षेत्र पर लागू नहीं होगा, और; 2. एक अधिसूचना द्वारा निर्देशित करना कि एक विशेष राज्य या केंद्रीय अधिनियम कुछ संशोधनों के अधीन अनुसूचित क्षेत्र पर लागू होगा। न्यायालय ने कहा कि चूंकि प्रावधान राज्यपाल को यह अधिसूचित करने का अधिकार देता है कि कुछ केंद्रीय और राज्य कानून अनुसूचित क्षेत्र पर लागू नहीं होंगे, यह दर्शाता है कि शुरू में उक्त कानून सभी अनुसूचित क्षेत्रों पर लागू होते हैं। अन्यथा ऐसी शक्ति राज्यपाल को प्रदान नहीं की जाती। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि राज्यपाल अंततः केंद्र का एजेंट होता है और केंद्र की राजनीतिक इच्छाशक्ति से अलग स्टैन्ड लेने का साहस सामान्यतः राज्यपालों में नहीं होता है।

 
अगर परिसीमन में अनुसूचित जनजातियों की आरक्षित सीटें घटती हैं, तो यह कई स्तरों पर झारखंड के आदिवासी समाज को प्रभावित कर सकता है:
1. राजनीतिक प्रतिनिधित्व में गिरावट
आरक्षित सीटों की संख्या में कटौती होने से झारखंड में आदिवासियों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व कमजोर होगा। इससे उनकी राजनीतिक मांगों और अधिकारों की आवाज़ संसद और विधानसभा में कमजोर पड़ सकती है।
2. पंचायती राज और स्थानीय शासन पर असर
झारखंड में पंचायती राज व्यवस्था के तहत आदिवासी समाज को अनुसूचित क्षेत्रों में विशेष अधिकार प्राप्त हैं। यदि परिसीमन के कारण राजनीतिक प्रतिनिधित्व कमजोर होता है, तो इससे ग्राम सभाओं की प्रभावशीलता पर असर पड़ सकता है और आदिवासी समुदाय की आत्मनिर्भरता पर चोट पहुंचेगी।
3. वनाधिकार और भूमि सुरक्षा पर प्रभाव
झारखंड में आदिवासी समाज का जीवन जंगलों और भूमि से जुड़ा हुआ है। वन अधिकार अधिनियम (FRA) और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम जैसे कानून आदिवासियों के पारंपरिक अधिकारों की रक्षा करते हैं। लेकिन अगर राजनीतिक रूप से इनकी आवाज कमजोर हुई, तो भूमि अधिग्रहण और विस्थापन की दर बढ़ सकती है।
4. पारंपरिक पहचान और संस्कृति पर असर
झारखंड की आदिवासी संस्कृति, परंपराएँ और भाषाएँ पहले से ही मुख्यधारा की राजनीति और विकास नीतियों के चलते कमजोर हो रही हैं। यदि राजनीतिक प्रतिनिधित्व घटता है, तो उनके सांस्कृतिक संरक्षण के प्रयासों को और अधिक कठिनाई होगी।

पाँचवीं अनुसूची वाले अन्य राज्यों पर प्रभाव
भारत में पाँचवीं अनुसूची के तहत आने वाले अन्य राज्य—ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश—भी परिसीमन से प्रभावित हो सकते हैं। इन राज्यों में जनजातीय आबादी विभिन्न स्तरों पर फैली हुई है, लेकिन परिसीमन की प्रक्रिया के कारण निम्नलिखित प्रभाव हो सकते हैं:
1. अनुसूचित क्षेत्रों का पुनर्गठन
यदि परिसीमन के कारण अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटें घटती हैं, तो इन राज्यों में अनुसूचित क्षेत्रों की राजनीतिक संरचना भी प्रभावित हो सकती है। इससे आदिवासी स्वशासन और संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार कमजोर हो सकते हैं।
2. पेसा (PESA) कानून की प्रभावशीलता में गिरावट
पंचायती राज अधिनियम (PESA) के तहत अनुसूचित क्षेत्रों को स्वायत्तता दी गई है। लेकिन यदि परिसीमन के चलते जनजातीय नेतृत्व कमजोर हुआ, तो PESA कानून को प्रभावी ढंग से लागू करना और कठिन हो जाएगा।
3. भूमि और खनिज संसाधनों पर दबाव
इन राज्यों में बड़ी मात्रा में खनिज संसाधन हैं, जिन पर बाहरी कंपनियों की निगाहें टिकी रहती हैं। राजनीतिक प्रतिनिधित्व में गिरावट के कारण आदिवासियों के पारंपरिक भूमि अधिकारों को बनाए रखना और मुश्किल हो सकता है।
4. आदिवासी आंदोलनों की बढ़ती चुनौतियाँ
झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में आदिवासी समुदाय अपने अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलनों का नेतृत्व करते रहे हैं। यदि परिसीमन में उनकी राजनीतिक शक्ति कमजोर होती है, तो इन आंदोलनों को सरकार से संवाद स्थापित करने में कठिनाई होगी।
रास्ता क्या है 
1.    संविधान संशोधन की माँग: अनुसूचित जनजातियों की आबादी भले ही राष्ट्रीय स्तर पर धीमी गति से बढ़ रही हो, लेकिन उनका ऐतिहासिक अधिकार बना रहना चाहिए। इसके लिए संसद में संविधान संशोधन की माँग की जानी चाहिए।
2. राज्यों की विशेष मांगें: झारखंड जैसे राज्य, जहाँ आदिवासी बहुल क्षेत्र हैं, को परिसीमन आयोग के समक्ष विशेष मांग रखनी चाहिए कि ST आरक्षण वाली सीटों को बनाए रखा जाए।
3. आंदोलन और जागरूकता: जनजातीय समाज और सामाजिक संगठनों को इस विषय पर जागरूकता बढ़ाने और नीति निर्माताओं को उचित निर्णय लेने के लिए मजबूर करने की दिशा में प्रयास करना चाहिए।