डेस्क:
शुक्रवार का दिन। स्कूल खुला। बच्चे नहीं आये। स्कूल का ताला खुला। खिड़कियां खुलीं। खिड़कियो से रौशनी आई लेकिन बच्चे नहीं आये। स्कूल खुला। साफ-सफाई हुई। टीचर आये। रसोईया आई। बच्चे नहीं आई। शुक्रवार का दिन था इसलिए बच्चे नहीं आये। सुनने में अजीब लग सकता है लेकिन यही सच है। तस्वीरें जामताड़ा जिला के उत्क्रमित मध्य विद्यालय अलगचुवां और प्राथमिक विद्यालय ऊपर भिठरा की है।
शुक्रवार को समय से स्कूल खुल गया था लेकिन परिसर में सन्नाटा पसरा रहा क्योंकि जिन बच्चों से यहां रौनक होती है वे नहीं आए। जानते हैं क्यों। क्योंकि शुक्रवार को जुम्मा होता है। एक समुदाय विशेष के इबादत का दिन। बस क्या था। गांव में अभिभावकों ने स्वघोषित संविधान लिखते हुए तय कर लिया कि शुक्रवार को हम अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजेंगे। चाहे तो नियम कानूनों की धज्जियां उड़ जाये।
जामताड़ा में वर्षों से शुक्रवार को छुट्टी
दरअसल, यहां ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। कुछ दिन पहले ही मीडिया से बातचीत में जिले के जिला शिक्षा अधिकारी अभय शंकर ने बताया था कि यहां कम से कम 45 स्कूलों में बीते 4 वर्षों से शुक्रवार को स्कूल बंद रहता है। रविवार को क्लास लगती है।
सवाल है कि ये किसने तय किया। नियम तो रविवार को स्कूल खुलने का है। पता चला। चूंकि, शुक्रवार समुदाय विशेष के इबादत का दिन है इसलिए उस समुदाय के बच्चे आते ही नहीं। ऐसे में, दूसरा समुदाय क्या करे। सोमवार भगवान शिव का है। मंगलवार बजरंगबली का। गुरुवार मां लक्ष्मी को समर्पित है तो शुक्रवार मां संतोषी तो। शनिवार को शनिदेव की पूजा होती है।
यदि ये दूसरा समुदाय भी इसी आधार पर छुट्टी मांगेगा तो फिर क्या होगा। इस हिसाब से स्कूल होने ही नहीं चाहिए। यदि शुक्रवार को जुमा है इसलिए छुट्टी होगी तो फिर क्यों ना स्कूलों में स्थायी रूप से ताला लगा दिया जाये। अलग-अलग समुदायों के बच्चों को उनके हाथों में उनका धर्मग्रंथ थमा कर उनके इबादतखानों में बिठा दिया जाये, और तैयारी हो एक धर्मयुद्ध की।
पढ़ाई से वैसे भी क्या हासिल होता है। बेहतर जिंदगी, लेकिन वो किसे चाहिये।
समुदाय विशेष ने खुद ही तय कर लिया कानून
स्कूल के शिक्षकों का कहना है कि यहां बीते कई वर्षो से शुक्रवार को छुट्टी हो रही थी। रविवार को क्लास लगती थी। चूंकि, इन इलाकों में एक समुदाय विशेष की आबादी ज्यादा है। उन्होंने तर्क दिया कि हमारी आबादी 70 से 75 फीसदी है इसलिए नियम भी हमारा होगा और कायदा भी। तो यहां शुक्रवार को छुट्टी होने लगी। हाथ बांधकर प्रार्थना की जाने लगी। मीड डे मिल के मैन्यू में शुक्रवार के आगे लिख दिया गया जुमा। इसके भी आगे भी लिख दिया गया अवकाश। हैरानी की बात है कि ऐसा गांव वालों ने खुद तय कर लिया।
संविधान नहीं आबादी के हिसाब से चलेगा कानून
क्या आपको हैरानी हुई कि विश्व के सबसे विशाल संविधान वाले इस देश में आबादी तय करने लगी है कि वहां नियम क्या होगा। हैरानी की बात है कि यहां आबादी कायदे तय करने लगी और किसी को कानों-कान खबर नहीं हुई। जब सरकार तक बात पहुंची तो प्रशासनिक हमला हिला।
आनन-फानन में स्कूलों में लिखा गया उर्दू मिटाया गया और रविवार की छुट्टी बहाल की गई लेकिन जब निर्देशानुसार शुक्रवार को स्कूल खुला तो कोई बच्चा नहीं पहुंचा।
बच्चा नहीं पहुंचा कहना थोड़ा गलत होगा। ये कहना ज्यादा सही होगा कि बच्चों को उनके अभिभावकों ने स्कूल आने नहीं दिया क्योंकि शिक्षा पर धर्म भारी है।
क्या स्कूल बंद करके धर्मग्रंथों की होगी पढ़ाई
अब विज्ञान, गणित, भूगोल और सामाजिक विज्ञान पहचान नहीं होगी। धर्म ही पहचान होगा। इसी के लिए जीना है और इसी के लिए मरना है। बच्चों से धर्म की दुहाई देकर शिक्षा का बहिष्कार कराना जाहिलियत की पराकाष्ठा क्यों ना कहा जाये। देश है।
संविधान है। कानून है। व्यवस्था है। गाइडलाइन है। आजादी है लेकिन किसने हक दिया कि स्वघोषित राष्ट्राध्यक्ष बन जायें और तय करें कि स्कूल किसकी सुविधाओं के हिसाब से खुलेंगे। किसकी सहूलियत से पढ़ाई होगी। देश धर्मनिरपेक्ष है, लेकिन इसी देश में एक आबादी अपने इलाके में अपने हिसाब, आस्था, मान्यता और सहूलियत के हिसाब से कानून तय कर रही है।
4 जिलों के 150 स्कूलों में बदला गया था नियम
हिंदी दैनिक, दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड के जामताड़ा, गढ़वा, पलामू और लातेहार में 150 से ज्यादा स्कूलों में बीते 2 साल से भी ज्यादा वक्त से रविवार की जगह शुक्रवार को छुट्टी दी जा रही थी। प्रार्थना बदल दी गई थी। वैसे तो कई स्कूल उर्दू स्कूल के रूप में चिह्नित हैं। ये सरकारी व्यवस्था है लेकिन उन सामान्य स्कूलों में भी उर्दू लिख दिया गया था जहां एक समुदाय विशेष की आबादी ज्यादा है।
रिपोर्ट के मुताबिक गढ़वा के 100, जामताड़ा के 50, पलामू के 1 और लातेहार के 1 स्कूल में बीते कई वर्षो से स्वघोषित कानून निर्माताओं ने अपने हिसाब से प्रार्थना और छुट्टी घोषित कर ली थी।
सवाल उठा है और बदलाव तक उठता रहेगा कि आखिर दबाव डालकर नियम बदलने की हिम्मत कैसे की।