द फॉलोअप टीम, दिल्ली:
पुरुषों को यह समझना होगा कि पितृसत्ता किस तरह उनका अमानवीकरण (डिह्यूमनाइज) कर रही है। जैसे, उदाहरण के लिए पितृसत्ता उन्हें रोने की इजाज़त नहीं देती। उन्होंने अपना इमोशनल इंटेलीजेंस खो दिया है। वे ख़ुद अपनी भावनाओं को नहीं समझ पाते।अमेरिका में टेड टॉक हमें बताते हैं कि वहां लड़कियों की तुलना में किशोर लड़कों की ख़ुदकुशी की दर चार गुनी है।
-कमला भसीन 2017 में दिए एक साक्षात्कार में
जितेंद्र विसारिया लिखते हैं, दक्षिण एशिया का स्त्री मुक्ति का इतना सुलझा हुआ चेहरा। विमर्श की बात बिना ऐरोगेंट हुए कहना...मित्रवत कहना...मुस्कराकर कहना...चिकोटी काटते हुए कहना। कहना ऐसे जैसे घर का कोई पुरखा-बुज़ुर्ग अपने साथ-साथ पूरे घर-परिवार, समाज, देश-दुनिया के हित की बात, बिना स्वार्थ अपनी अगली पीढ़ी से कहता है। उसके कहने का प्रभाव इतना गहरा कि अंततः सभी छोटे-बड़े उनकी बातों से सहमत होते...उनके अध्ययन, अनुभव और वक्तृत्व कला की यह अद्भुत विशेषता थी। जाना एक दिन सबको ही है पर जाने की यह क्रिया इस समय उतनी ख़तरनाक इसलिए भी कि दुनिया भर में इस समय, स्त्री को अपना ज़रखरीदार गुलाम समझने की बर्बर क़बीलाई सोच ने फिर से सर उठाया है। आपको थोड़ा और रुकना था मेरी पुरखिन कमला भसीन अपनी उजली सोच के साथ कि तुम्हारे रुकने से अंधेरे के बादल और छंटते।
भसीन का जन्म 24 अप्रैल, 1946 को वर्तमान पाकिस्तान के मंडी बहाउद्दीन में हुआ था। उनकी पढ़ाई लिखाई राजस्थान विश्विद्यालय से हुई और फिर उन्होंने जर्मनी से सोशिलॉजी एंड डेवलोपेमेंट में पढ़ाई की। उसके बाद वह फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन में 27 साल तक काम किया। 27 वर्षों तक संयुक्त राष्ट्र में काम करने के बाद नौकरी छोड़कर संगत संस्था के लिए काम किया। उन्होंने पितृसत्ता और जेंडर पर काफी विस्तार से लिखा है। उनकी प्रकाशित रचनाओं का करीब 30 भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उनकी प्रमुख रचनाओं में लाफिंग मैटर्स (2005; बिंदिया थापर के साथ सहलेखन), एक्सप्लोरिंग मैस्कुलैनिटी (2004), बॉर्डर्स एंड बाउंड्रीज: वुमेन इन इंडियाज़ पार्टिशन (1998, ऋतु मेनन के साथ सहलेखन), ह्वॉट इज़ पैट्रियार्की? (1993) और फेमिनिज़्म एंड इट्स रिलेवेंस इन साउथ एशिया (1986, निकहत सईद खान के साथ सहलेखन) शामिल हैं।उनकी प्रकाशित रचनाओं का करीब 30 भाषाओं में अनुवाद हुआ है। 75 वर्ष की उम्र आज सुबह 3 बजे कैंसर से लड़ते उनका देहावसान हो गया।
आखरी बात बोली थी, फिर भी मैं लडूंगी। मेरी मोहब्बत जिन्दाबाद!
कुसुम रावत कहती हैं, हाथ कांप रहे हैं ये लिखते हुए कि मशहूर नारीवादी, लेखक, ट्रेनर, मानवीय मूल्यों की हिमायती "कमला भसीन" आज सुबह तड़के 3 बजे दुनिया जहान में फैले अपने काफिले को रोता बिलखता छोड़ गई। आज उसी वक्त बड़ा बुरा सा सपना देखा कि कमला दी तुमको कोई जबरदस्ती खींच रहा है। सुबह आभा दी को पूछा क्या खबर है आपकी? तो ये अंदर तक हिला देने वाली खबर मिली।25 सालों की सुंदर दोस्ती का ये सफर यूँ अचानक थम गया। सच में हिला दिया आपने मुझको ही नहीं दुनिया जहांन में मौजूद मानवता और औरतों के हिमायतियों को। "ऐसे ही खुश रहना, गाती बजाती रहना, लिखती रहना मोहब्बत के तराने और खूब जोर से नारे लगाती रहना मोहब्बत जिन्दाबाद के!" हुज़ूर तुमने यही आखरी बात मुझसे बोली थी कि "कुसुम बहुत कम उम्मीद है फिर भी मैं लडूंगी। मेरी मोहब्बत जिन्दाबाद!" हाँ कमला दी तुम्हारी ही मोहब्बत जिन्दाबाद! जाओ अपनी प्रिय "रेड फरारी" में अपने आखरी सफर पर। तुम हमेशा जिंदा रहोगी अपने गीतों, कविताओं, कहानियों, किस्सों और नारों में और मेरे ही नहीं हर बंदे के दिल में हर उस बात में जो हम सबने तुमसे सीखी है प्रिय दोस्त! नारीवादी आंदोलन आपका हमेशा कर्जदार रहेगा।
वो हँसोड़ थीं, जहीन थीं, बहनापा भी थीं और लड़ाका भी
राघवेंद्र कुमार का कहना है कि कमला भसीन के बारे में पढ़ा जाना, बताना, समझाना हमारे शिक्षण तंत्र का आवश्यक हिस्सा होना ही चाहिए। कमला भसीन अब नहीं रहीं। वो भारत और पड़ोसी राष्ट्रद्वय सहित व्यापक दक्षिण एशिया में शांति प्रयासों, स्त्री अधिकारों और मानव गरिमा के सभी समानांतर मुहिम में हमराह भी थीं, रहबर भी थीं और नई राह दिखानेवाली बड़की बहन भी। वो हँसोड़ थीं, जहीन थीं, बहनापा भी थीं और लड़ाका भी थीं। मजाल कि आप इंसानों के हक़ की किसी बात को छोटा करें और उनकी निगहबानी से बच निकलें। वो प्यार से अपने सुलझे तर्कों से आपका गलत ख्याल ठीक कर देती थीं। Tiss के छात्र जीवन सहित अनेक अवसरों पर उनसे सुनने और सीखने को मिला। कमला भसीन और उनकी स्त्री मुक्ति संगठनों की साथिनों ने भारत में अकादमिक वैचारिक संकल्पनाओं को बदल दिया और स्त्री अधिकारों तथा मनुष्यों की आजादी सहित शांति के पैरोकारों की एक से अधिक पीढ़ियों को सिलसिले में जोड़ा।
वो सच्चे अर्थों में उस्ताद रमाबाई और फातिमा की नस्ल को आगे बढानेवालों में से थीं। कमला भसीन की याद हमेशा वैचारिक समाजपरिवर्तक के रूप में होगी। जो उनके व्यक्तिगत और सामाजिक कर्म वाले जीवन को बहुत नजदीक से जानते हैं, वे उनकी मानवीय व्याख्या अवश्य करेंगे, ऐसी उम्मीद है!अभी एक गीत गाया जाए, इस रहबर की याद में....
दरिया की कसम,
मौजों की कसम,
ये ताना बाना बदलेगा।
तू बोलेगी,
मुंह खोलेगी,
तब ही तो जमाना बदलेगा।