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जन्मदिन पर लालू यादव के दिलचस्प किस्से : गांव की लड़कियों के सामने नाचा, पूर्व प्रधानमंत्री रहे मोरारजी को मंच पर अकेला छोड़ कैसे निकल गए थे लालू यादव..

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द फॉलोअप टीम : महावीर राय और मुकुंद राय लालू यादव के बड़े भाई थे, जो उनके पहले पटना पशु चिकित्साविद्यालय चुके थे और उस बड़े शहर में शरण ले चुके थे. दोनों ही अनपढ़ थे इसलिए दोनों ने ग्वाले का काम करना शुरू कर दिया. लेकिन अपने चाचा यदुनंद राय की तरह उन्हें भी महाविद्लाय के परिसर में सिर छुपाने को जगह मिल गई थी.

महावीर राय बताते हैं, ‘’फुलवरिया में रहना हमारे लिए मुश्किल होता जा रहा था. हमारा परिवार बहुत बड़ा था और सबका पेट भरन संभव नहीं हो रहा था. हमारे चाचा जी को पशु चिकित्सा महाविद्यालय में नौकरी मिल गई थी, इसलिए हम भी अपनी किस्मत आजमाने आ गए. हमें कुछ महीने इंतजार करना पड़ा लेकिन चाचा जी ने बहुत मदद की और हमें नौकरी मिल गई. जब हम महाविद्यालय में ठीक ठाक तरीके से जम गए तो हमने सोचा लालू को गांव से लाकर स्कूल में भर्ती करा दें.’’ 

 ‘’हम सब भाई बहनों में शुरू से कुछ खास था. वह एक लोकप्रिय बच्चा था और होशियार समझा जाता था. उसमें गांव में अपने लिए बहुत जल्दी नाम कमा लिया था. वह त्योहारों और शादी ब्याह में नाचता-गाता था और सबसे घुलमिलकर बात करता था. हमने सोचा, हमारे परिवार में कोई तो पढ़ा लिखा होना चाहिए और लालू हमारी स्वभाविक पसंद था. हम सब शुरू से जानते थे कि उसमें कोई ऐसी बात थी, जो हममें से किसी के पास नहीं थी. हालांकि हममे से किसी ने नहीं सोचा था कि वह एक दिन मुख्यमंत्री बन जाएगा.’’

‘’छोटी-छोटी अजीब सी बातें उसे खास बनाती थी. उसमें एक अलग सा आकर्षण था, जिसका इस्तेमाल वह बचपन में भी करता था. वह हम सबमें अकेला था, जो हिम्मत करके बाबू साहेबों के खेत में घुस जाता था और उनसे बात भी कर आता था. वह उनके बच्चों के साथ खेल भी आता था और हम अपने जैसों के साथ ही अटके रहते थे. अजीब बात यह थी कि वह जितना वह सामाजिक सीमाओं का उल्लंघन करता था, उतनी ही उसकी पहुंच बढ़ती जाती थी.’’ 

‘’गर्मी की एक दोपहर में जब वह छह या सात साल का था, मैंने उसे गांव की बहुत सी लड़कियों के सामने गाना गाते देखा था. उनमें से कई ऊंची जाति की थी, लेकिन न उन्हें इस बात कोई परवाह थी, न लालू को. हम सबमें से वह अकेला था जो परिवार के नाम ‘राय’ का उपयोग नहीं करता था. वह हमेशा लालू राय के स्थान पर लालू यादव लिखता था. यह सब उसके स्कूल के शुरूआती दिनों की बात है. हमारा इस ओर ध्यान नहीं गया जब तक कि उसने राजनीति में नाम कमाना नहीं शुरू कर दिया. लेकिन वह जाति का नाम ‘यादव’ हमेशा अपने नाम के आगे लगाता था.

जब मोरारजी को मंच पर अकेला छोड़ पान खाने निकल गए थे लालू

लालू यादव को राजनीति में लाने वाले और बिहार के वरिष्ठ नेता नरेंद्र सिंह बताते हैं, ‘’हलांकि लालू यादव ने युद्ध में एक जहाज का कार्यभार ग्रहण किया था लेकिन उन्होंने कभी अधिक कप्तानी नहीं की. उन्हें कभी भी रणनीति तैयार करने या उसके कार्यान्वयन की योजना बनाने में दिलचस्पी नहीं थी. वे जहाज के आगे से भिड़ते तूफान का सर्वेक्षण करते थे, जबकि दूसरे लोग जहाज के संचालन का काम करते थे और अधिकांश छात्रसंघ नेताओं के विपरीत लालू यादव परिसर में रहे नहीं थे. उन्होंने पटना पशु चिकित्सा महाविद्यालय में रहना जारी रखा था जो इस विद्यालय परिसर से दूर शहर के दूसरे कोने में था और हर सुबह वे रिक्शे पर शान से बैठकर आते थे.’’ 

नरेंद्र सिंह के मुताबिक ‘’उनका झुकाव हमेशा नाटकीयता की ओर ज्यादा रहता था. वे सड़क और स्टेज के आदमी थे. नरेंद्र सिंह ने मुझे बताया, एक बार, जब वे पटना विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष थे, हमने मोरारजी देसाई को एक वार्ता के लिए आमंत्रित किया था. वे पोडियम पर आए, मोरारजी देसाई का परिचय दिया और खुद ही एक लंबा चौड़ा भाषण देने लगे और भाषण समाप्त करने बाद मोरारजी देसाई को अकेला छोड़कर वहां से गायब हो गए.’’ 

वह बातते हैं, ‘’समारोह की समाप्ति के बाद हममें से कुछ लोग उन्हें खोजने गए तो वह अपने हमेशा वाले अड्डे पर मिले.- पटना कॉलेज के निकट एक खास पान की दुकान पर. वे वहां खड़े कुछ लोगों से अपने अंदाज में बात कर रहे थे. जब मैंने उनसे पूछा कि वे मोरारजी देसाई की वार्ता समाप्त होने तक रुके क्यों नहीं और उन्होंने मुख्य अतिथि से पहले खुद बोलना क्यों शुरू कर दिया, तो वे बोले, अरे मैं क्या बेवकूफ हूं. मोरारजी देसाई के बोलने के बाद मुझे सुनने के लिए कौन रुकता. इसलिए मैं पहले बोलने लगा और मैं वहां से इसलिए आ गया क्योंकि दूसरों के भाषण मुझे उबाऊ लगते हैं. के सुनी दोसर के गटर-पटर हो...’’ 

नरेंद्र सिंह बताते हैं, ‘’लालू यादव शुरू से ऐसे ही थे. उन्हें बस अपनी भूमिका अदा करने से मतलब रहता था. दूसरों के काम में उन्हें रत्ती भर भी दिलचस्पी नहीं रहती थी. यहां तक कि जब कार्यक्रमों के आयोजन की बात आती थी तो भी संगठन के अध्यक्ष के रूप में उनकी भूमिका मंच के केंद्र में रहती थी. पीछे का सारा काम, संपूर्ण व्यवस्था और प्रबंधन वे हमारे ऊपर छोड़ देते थे. वे एक हीरो की तरह व्यवहार की तरह व्यहार करते थे और हम उनके सेट पर उनके सहायक होते थे.’’ 

नोट : यह किस्सा वरिष्ठ पत्रकार संकर्षण ठाकुर की लिखी किताब "बंधु बिहारी" से ली गई है।