द फॉलोअप टीम, पटना
एनडीए में सहयोगी दलों के बीच सीटों के बंटवारे की गुत्थी अब तक उलझी हुई है। खासतौर से सहयोगी दलों में लोजपा, जदयू और भाजपा के लिए सिरदर्द बना हुआ है। जदयू अध्यक्ष और बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने तो लोजपा से पल्ला झाड़ कर विवाद की गेंद भाजपा के पाले में डाल दी है। हालांकि राज्य का सियासी और दलित वोट बैंक का गणित ऐसा है कि जिसमें एनडीए के लिए लोजपा से किनारा करना आसान नहीं होगा।चुनावी समीकरणों में एक-दूसरे को मात देने के लिए एनडीए और विपक्षी महागठबंधन दोनों की निगाहें दलित वोटरों पर टिकी है। इस बिरादरी को हाशिए पर डालना मुश्किल है। इस बिरादरी के सियासी महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्य के मतदाताओं में इस वर्ग की हिस्सेदारी 16 फीसदी है।एनडीए ने इसमें सेंधमारी के लिए इस बिरादरी के कद्दावर पूर्व विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी और श्याम रजक की जदयू में घर वापसी कराई है।
दलित बिरादरी की अनदेखी मुश्किल
लोजपा प्रमुख पासवान की दलित बिरादरी में अच्छी पैठ रही है। खराब परिस्थितियों में भी लोजपा को विधानसभा और लोकसभा चुनाव में औसतन छह से 11 फीसदी वोट हासिल होते रहे हैं। वर्तमान में पासवान बेहद अस्वस्थ हैं। इससे चिराग के प्रति हमदर्दी है। ऐसे में दलित बिरादरी में सहानुभूति का ज्वार पैदा हो सकता है। यदि एनडीए ने नाता तोड़ा तो दलितों की नाराजगी महंगी पड़ सकती है।
बड़े भाई की भूमिका में कौन ?
दरअसल विवाद की जड़ में जदयू और भाजपा की महत्वाकांक्षा है। जदयू हर हाल में राज्य की सियासत मंस बड़ा भाई बने रहना चाहता है। जबकि भाजपा इस चुनाव में महाराष्ट्र की तर्ज पर बड़ा भाई बनने की व्यापक संभावना देख रही है। भाजपा की कोशिश खुद और जदयू को सौ-सौ की संख्या में बराबर सीटों पर लड़ने के लिए राजी करना है। ऐसे में बाकी बची 43 सीटों में से बड़ा हिस्सा लोजपा के खाते में जाएगा। ऐसे में अगर भाजपा जदयू से सीटें जीतीं तो गठबंधन में उसके बड़े भाई होने का दावा मजबूत होगा। अब देखना है कि लोजपा का दबाव कितना कारगर साबित हो पाता है?