डाॅ. जंग बहादुर पाण्डेय "तारेश"
यदि कविता लोक चित्त से जुडने का माध्यम है, तो नागार्जुन सही मायने में स्वाधीन भारत केजनकवि हैं। इस देश की करोडों-करोड़, भूखी-अधनंगी जनता की शायद ही कोई. ऐसी आकांक्षा और अनुभूति हो, जिसकी ओर नागार्जुन का ध्यान न गया हो और जिस पर उन्होंने कभी गहन संवेदनात्मक और कभी तीव्र आक्रामक टिप्पणी न की हो उन्होंने सचमुच हिंदी कविता की विषय वस्तु को अभूतपूर्व विस्तार दिया है और सुन्दर -असुन्दर सभी प्रकार के विषयों पर अपनी बेबाक टिप्पणी की है। डा परमानंद श्रीवास्तव का यह कथन सोलह आने सही है: जनता के पक्ष में कविताएं लिखने वाले और भी हैं,पर जनता को अपने में आत्मसात् कर कविता लिखने वालेनागार्जुन अपने ढंग के अकेले कवि हैं।
नागार्जुन का जन्म दरभंगा जिले के तरौनी नामक ग्राम में एक रुढिवादी मैथिल परिवार में 30 जून 1911 को हुआ था।एक एक कर चार भाइयों के बचपन में ही काल कवलित हो जाने के बाद पिता पं गोकुल मिश्र ने वैद्यनाथ महादेव से संतान की याचना की थी।इसीलिए आगंतुक का नाम पडा वैद्यनाथ मिश्र। वैद्यनाथ की पढाई का श्रीगणेश तत्कालीन प्रथा के अनुसार लघु सिद्धांत कौमुदी और अमर कोष से हुआ। फिर उन्होंने वाराणसी में रहकर संस्कृत का विधिवत अध्ययन किया। 1931 में उनका विवाह अपराजिता देवी से हो गया।लेकिन, इसके केवल तीन वर्ष बाद किसी बात पर रूठकर वे घर से निकल गए।वे सिंहल जाकर बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए और नाम पडा नागार्जुन।
नागार्जुन बहुआयामी प्रतिभा के धनी साहित्यकार हैं। उन्होंने एकाधिक भाषाओं में गद्य और पद्य की अनेक विधाओं में इंद्र धनुषी साहित्य सृष्टि की है। उनका रचना संसार निम्नवत् है:
1संस्कृत(काव्य)-कर्यालोक शतकम्,देश दशकम्,कृषक दशकम्,श्रमिक दशकम्, लेनिन दशकम्।
2 हिन्दी-काव्य-युग धारा,सतरंगे पंखोवाली,प्यासी पथराई आंखें,तालाब की मछलियां, तुमने कहा था,चंदना (लम्बी कविताएं),भस्मांकुर,(खंड काव्य)खिचडी विप्लव देखा हमने,पुरानी जूतियों का कोरस,हजार हजार बांहों वाली।
उपन्यास: रतिनाथ की चाची,बलचनमा,नई पौध,बाबा बटेसर नाथ,वरुण के बेटे,दुख मोचन,कुंभीपाक,हीरक जयंती, उग्रतारा, इमरतिया, जमनिया के बाबा।
3मैथिली ( क)काव्य:चित्रा, पत्र हीन नग्न गांछ।
(ख)उपन्यास:पारो,बलचनमा,नवतुरिया
यह ठीक है कि नागार्जुन को साहित्य में प्रारंभिक प्रतिष्ठा अपने कथा साहित्य विशेष रुप से बलचनमा(1952)नामक उपन्यास के कारण मिली जिसमें उत्तर बिहार केएक विपन्न युवक के जीवन संघर्षों का बडा ही सजीव और बेबाक अकंन हुआ है,पर उनका कवि रुप उनके कथाकार रुप से किसी तरह घटकर नहीं है।
जैसा कि डा नामवर सिंह ने कहा है, नागार्जुन सच्चे अर्थों में स्वाधीन भारत के प्रतिनिधि जन कवि हैं। उन्होंने सामान्य जन के जीवन को केवल निकट से देखा ही नहीं है उसमें साझेदारी भी की है।उन्हें जनता की हर पीडा हर बेबसी की प्रत्यक्ष अनुभूति है और उसपर अपनी गहरी प्रतिक्रिया वे निर्भीक होकर व्यक्त करते हैं।बल्कि वे केवर प्रतिक्रियाएं ही व्यक्त नहीं करते,आगे बढकर जन संघर्ष में अगुआई भी करते हैं।
नागार्जुन प्रतिहिंसा को अपनी कविता का स्थायी भाव मानते हैं।समाज की हर विषमता, हर असंगति की ओर उनकी दृष्टि जाती है और वे उस पर करारी चोट करते हैं।कविता का एक हथियार की तरह इस्तेमाल करने की बात हमने बहुत बार सुनी है,लेकिन उसका सबसे सचेष्ट और सबसे प्रभावी प्रयोग हिंदी में नागार्जुन ने ही किया है।मुट्ठी भर हड्डियों के ढांचेवाले इस कवि का जीवट और अंतर का ओज देखने योग्य है:
जनता मुझसे पूछ रही है,क्या बतलाऊं?
जन कवि हूँ मैं,साफ कहूंगा, क्यों हकलाऊं?
और
जनकवि हूँ मैं,क्यों चांटू मैं थूक तुम्हारी?
श्रमिकों पर मैं क्यों चलने दूं बंदूक तुम्हारी?
किसानों और मजदूरों पर चलनेवाली इस बंदूक का नागार्जुन ने अपनी अनेक कविताओं में भांति भांति से विरोध किया है।शासन की बंदूक वाली कविता में कवि ने बंदूक को दमन नीति का प्रतीक मानकर उसके अनेक चित्र खडे किए हैं:
"खडी हो गई चांप कर,ककांलों की हूक।
नभ में विपुल विराट सी, शासन की बंदूक।
और
जली ठूंठ पर बैठकर, गई कोकिला कूक।
बाल न बांका कर सकी,शासन की बंदूक।।
कोकिला भी काली है और बंदूक भी। किंतु दोनों के प्रतीकत्व में कितना अंतर है।एक में जीवन का उल्लास है तो दूसरी में मृत्यु का आतंक।दोनो को समानांतर प्रस्तुत कर कवि ने मौत के शिकंजे को चुनौती देती हुई अभिनव जीवन चेतना का अत्यंत सांकेतिक और व्यजंक चित्र उपस्थित कर दिया है।जो लोग नागार्जुन की कविता कोअखबारी कतरन और नारेबाजी से अधिक महत्व नहीं देना चाहते,उन्हें ऊपर की पंक्तियां तनिक ध्यान से और पूर्वाग्रह मुक्त होकर देखनी चाहिए।
(लेखक हिन्दी विभाग, रांची विश्वविद्यालय के अध्यक्ष रह चुके हैं। )
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