डाॅ. परिवेश मिश्रा, सारंगढ़:
1947 के अंतिम महिनों में देश में अनिश्चितता और अव्यवस्था चरम पर थी - समाज में भी और प्रशासन, पुलिस तथा फ़ौज में भी। प्रधानमंत्री नेहरू की सबको साथ लेकर चलने की ज़िद से कुछ नयी अनचाही परेशानियां पैदा हो गयी थीं। उन दिनों भारत में भारत सरकार थी, नेहरू सरकार नहीं। संविधान सभा में कांग्रेस का भारी बहुमत (82%) होने के बाद भी, गांधी जी की सलाह पर नेहरू ने 1947 में बने अपने पहले म॔त्रीमंडल में हिन्दू महासभा के श्यामाप्रसाद मुखर्जी, भीमराव अम्बेडकर, जस्टिस पार्टी के आर. के. शन्मुखम चेट्टी, अकाली दल के सरदार बलदेव सिंह, राजकुमारी अमृत कौर जैसे गैर कांग्रेसी लोगों को शामिल किया था। मंत्रीमंडल में सभी सदस्य अपने अपने क्षेत्रों के दिग्गज थे किन्तु उनकी योग्यता, और उनका शासन करने का अनुभव समान नहीं था। वैचारिक रूप से अलग-अलग धरातल पर खड़े लोगों को साथ लेकर नेहरू विविधता से भरे देश को समावेशी नेतृत्व देने का प्रयास कर रहे थे। अंग्रेज़ जब भारत छोड़कर गये तो सरकारी तंत्र और फ़ौज के वे सारे वरिष्ठ अफसर जिनके पास फ़ैसले लेने का अनुभव था, इंग्लैंड वापस चले गये थे। जो थोड़े बहुत हिन्दुस्तानी बचे थे उनमें तय नहीं हो पाया था कौन भारत में रहेगा कौन पाकिस्तान जायेगा। सरकारी फैसलों का आलम यह था कि शुरुआती हफ़्तों में अनेक अवसरों पर सरकार के दाहिने हाथ को खबर न होती कि बायां क्या कर रहा है।
उस महा-कन्फ्यूज़न के दौर में सरकार के रक्षा मंत्रालय से एक निर्देश जारी हो गया। आज़ादी से पहले फ़ौज को ब्रिटिश इंडियन आर्मी कहते थे। विभाजन के समय फ़ौजियों को दोनों देशों में से एक को चुनने का अवसर दिया गया था। फ़ौज का 45% से अधिक हिस्सा पाकिस्तान चला गया। लेकिन देश में रहे अनेक मुस्लिम परिवारों की तरह फ़ौज में भी अनेक मुस्लिम अधिकारी ऐसे थे जिनकी न तो हिन्दुस्तान छोड़ने की इच्छा थी न उन्हे पाकिस्तान स्वीकार था। रक्षा मंत्रालय से जो निर्देश प्रसारित हुआ था उसमें कहा गया था कि जो मुस्लिम फ़ौजी अधिकारी पाकिस्तान जाना चाहते हैं वे जाने के लिए स्वतंत्र हैं। जो मुस्लिम अधिकारी भारत में रहना चाहेंगे उन्हे भारत में रहने की अनुमति तो होगी किन्तु फ़ौज छोड़नी होगी।
इस निर्देश के पहले तक जिन मुस्लिमों ने भारत में रहने का विकल्प चुना था उनमें सबसे सीनियर दो अधिकारी थे : कर्नल इनायत हबीबुल्ला और कर्नल मोहम्मद उस्मान। कर्नल उस्मान 1935 में जब फ़ौज में भर्ती हुए तो बलूच रेजिमेंट में भेजे गये थे। विभाजन में सारी बलूच रेजिमेंट पाकिस्तान के हिस्से चली गयी थी और सबसे अनुभवी अधिकारी होने के कारण कर्नल उस्मान तथा कर्नल हबीबुल्ला पर पाकिस्तान आने के लिए भारी दबाव बनाया गया था। कर्नल उस्मान को निकट भविष्य में वहां का आर्मी चीफ बनाने का वायदा भी किया गया था (यह जानकारी (तब के कर्नल) ब्रिगेडियर उस्मान की शहादत के बाद उनके मित्र और आगे चलकर जनरल बने हबीबुल्ला के हवाले से बाहर आयी। माना जाता है यह वायदा ब्रिगेडियर अयूब खान का था। (आगे चल कर 1958 में जनरल अयूब खान जब पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने तो उन्होने जनरल मूसा को पाकिस्तान आर्मी का कमान्डर-इन-चीफ नियुक्त किया था। विभाजन से पहले हिन्दुस्तान में मूसा कर्नल उस्मान से जूनियर हुआ करते थे)। सरकार का निर्देश भारतीय मुस्लिमों की आने वाली पीढ़ियों को भी फ़ौज से दूर करने वाला था। इन्हें अहसास था कि बुनियादी रूप से गलत इस फैसले का विरोध इनका फ़र्ज़ था।
सवाल यह था कि रक्षा मंत्रालय के आदेश से कैसे निपटा जाए। संयोग से लखनऊ में जन्मे कर्नल इनायत हबीबुल्ला के पिता शेख मोहम्मद हबीबुल्ला युनाइटेड प्राॅविन्स में कलेक्टर हुआ करते थे (बाद में 1938 से 41 तक लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे) और मोतीलाल नेहरू के घनिष्ठ मित्रों में से एक थे। इनायत हबीबुल्ला बचपन से ही प॔. जवाहरलाल नेहरू से परिचित थे। कर्नल हबीबुल्ला और कर्नल उस्मान ने नेहरू से भेंट की। आदेश प्रथम दृष्टया ही नये निर्मित हो रहे भारत की मूलभूत अवधारणा और सिद्धांतों के खिलाफ़ था। पंडित नेहरू ने तत्काल पहल कर उसे वापस ले लिया। 1947 का वह साल समाप्त भी नहीं हुआ था कि पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। कर्नल उस्मान ब्रिगेडियर के रूप में पदोन्नत हो चुके थे। ब्रिगेडियर उस्मान को झांगर की कमान सौंपी गयी। झांगर जम्मू के राजौरी ज़िले का गांव है। इसकी अहमियत यह थी कि यहां कश्मीर के राजा की फ़ौज का मुख्यालय स्थित था और जब तक राजा ने भारत के साथ विलय पर हस्ताक्षर नहीं किये, यही सेना पाकिस्तान के सशस्त्र घुसपैठियों को रोक रही थी। भारतीय सेना को श्रीनगर तक हवाई जहाज से और वहां से आगे सड़क विहीन भू-मार्ग से झांगर जैसे स्थानों तक पंहुचाना बहुत कठिन काम था। समय लगना स्वाभाविक था। ब्रिगेडियर उस्मान तो जैसे तैसे झांगर पहुंच गये पर उन्होने पाया कि राजा की सेना के पास न आधुनिक हथियार थे, न प्रोफेशनल सेना की ट्रेनिंग और न लड़ने का दम-खम।
उनके पहुंचते तक पाकिस्तान ने झांगर पर कब्ज़ा कर लिया था। ब्रिगेडियर उस्मान को पीछे हटकर पास के नौशेरा नामक स्थान पर आना पड़ा। यह दिसम्बर 1947 की बात है। भारत के मुस्लिम अधिकारियों की पाकिस्तान से लड़ने की इच्छा शक्ति पर शक किया गया था। भले ही रक्षा मंत्रालय में बैठे किसी एक अकेले सिरफिरे ने बिना दूसरों की राय जाने किया हो। इस बात का दबाव ब्रिगेडियर उस्मान पर रहा हो तो ताज्जुब नहीं। ब्रिगेडियर उस्मान ने प्रण किया कि जब तक झांगर को पाकिस्तान से वापस नहीं लेंगे वे ज़मीन पर चटाई बिछा कर ही सोएंगे। कश्मीर में दिसम्बर जनवरी की ठंड में उत्तर प्रदेश के मऊ ज़िले के बीवीपुर गांव में जन्मे ब्रिगेडियर उस्मान का टेन्ट के नीचे सोने का यह प्रण मामूली बात नहीं थी। तब तक भारतीय सैनिक भी पहुंचने लगे। ले. जनरल करियप्पा ने जम्मू पहुंच कर वहांअपना मुख्यालय बना लिया। तैयारियां शुरू हुईं। पाकिस्तान से नियमित सैनिक और हथियार भी झांगर पहुंच गये थे। जनवरी और फरवरी 1948 में नौशेरा पर अनेक हमले हुए पर हर बार पाकिस्तान के हाथ नाकामी लगी। यही वह समय था जब वीरता और श्रेष्ठ युद्ध कौशल के कारण ब्रिगेडियर उस्मान को लोगों ने "नौशेरा का शेर" कहना शुरू कर दिया। नौशेरा पर हुए हमलों के दौरान लगभग एक हज़ार पाकिस्तानी सैनिक मारे गये थे (शहीद भारतीयों की संख्या 33 रही थी)। पाकिस्तान ने ब्रिगेडियर उस्मान के सिर पर पचास हज़ार रुपयों का ईनाम घोषित कर दिया (पाकिस्तानी फ़ौज के साथ आये हज़ारों सशस्त्र कबीलाई घुसपैठियों के लिए यह बड़ा लालच था) । ब्रिगेडियर को न प्रशंसा ने प्रभावित किया न धमकी ने। फरवरी 1948 के अंत में ब्रिगेडियर उस्मान भारतीय सैनिकों का नेतृत्व स्वयं करते हुए आगे बढ़े और घमासान युद्ध के बाद झांगर वापस भारतीय कब्ज़े में आ गया।
झांगर पर कब्ज़ा बनाये रखना भी बड़ी चुनौती थी। बर्फ पिघलते ही पाकिस्तानियों ने भारी तोपखाना लाकर भीषण गोलाबारी शुरू कर दी। सड़क मार्ग की अनुपलब्धता के कारण भारत के लिए ऐसा करना आसान नहीं था। भारी गोलाबारी का माकूल जवाब देने की स्थिति में भारत नहीं था। ब्रिगेडियर उस्मान को कुछ समय के लिए पीछे हटने का सुझाव दिया गया। किन्तु झांगर को दोबारा खाली करने के लिए उस्मान तैयार नहीं थे। वे सामने रह कर पाकिस्तानी तोपखाने को झेलते रहे। अंततः 3 जुलाई 1948 को तोप का एक गोला उनकी मृत्यु का कारण बना। घायल होने पर सैनिकों के लिए उनके शब्द थे : "मैं जा रहा हूं पर जिस ज़मीन के लिए मेरे प्राण जा रहे हैं उसे दुश्मन के हाथ मत जाने देना।" ब्रिगेडियर उस्मान के जनाज़े में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और माऊंटबैटन शामिल हुए थे। वीरता और प्रेरणादायी नेतृत्व प्रदान करने के लिए ब्रिगेडियर उस्मान को महावीर चक्र प्रदान किया गया। 1947-48 के दौरान पाकिस्तान के साथ हुए इस पहले युद्ध में शहीद होने वाले वे सबसे सीनियर अधिकारी थे। (फ़ौज में शाॅर्ट सर्विस कमिशन में नये भर्ती आर्मी अधिकारियों की पहली ट्रेनिंग चेन्नई के ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकादमी में होती है। यहां ट्रेनिंग के लिए बनी बटालियन की एक कम्पनी का नाम "नौशेरा" रखा गया है।) (बर्मा में तैनाती के दौरान शाकाहारी बन गये ब्रिगेडियर उस्मान ने अपने सैनिकों के साथ हर मंगलवार को उपवास रखना शुरू किया था ताकि एक दिन का राशन पास के गांव वालों में वितरित किया जा सके। अविवाहित ब्रिगेडियर उस्मान के वेतन का बड़ा हिस्सा ज़रूरतमंद गरीबों को दान में जाता था।)
अब देखें कर्नल हबीबुल्रा का क्या हुआ। आज़ादी के बाद के भारत में नेहरू ने कुछ परियोजनाओं/संस्थाओं का निर्माण अपनी निजि प्रतिष्ठा से जोड़कर उन्हे सर्वोत्कृष्ट बनाने के प्रयास किये थे। सिंचाई और विद्युत के लिए भाखड़ा-नंगल और हीराकुड जैसे बांध, शिक्षा के लिए आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान, स्वास्थ्य के लिए एम्स, आदि अनेक। 1947 में देश की रक्षा के क्षेत्र में नेहरू का सपना था सेना के तीनों अंगों के लिए उत्कृष्ट सैन्य अधिकारी पैदा करने वाला विश्वस्तरीय संस्थान खड़ा करना। इस सपने को पूरा करने के लिए सामने आयी नेशनल डिफ़ेन्स अकादमी (एन.डी.ए.) जिसकी शुरुआत जाॅईन्ट सर्विसेज़ विंग के रूप में देहरादून के प्रेमनगर में उसी समय (1948 में) हो गयी थी। (इस विषय में विस्तार से अपने पिछले एक लेख में लिख चुका हूं।) इसी जे.एस.डब्लू. के बीज से एन.डी.ए. पैदा हुआ था। कर्नल से ब्रिगेडियर और फिर मेजर जनरल बन चुके इनायत हबीबुल्ला को 1953 में यहां का कमांडेन्ट बनाया गया। उनको नेहरू का ब्रीफ था : एक विश्वस्तरीय संस्थान की स्थापना। उन्होने पूना के पास खड़कवासला नामक स्थान का चयन किया और 1954 में उद्घाटन के बाद से एन.डी.ए. यहां के 7014 एकड़ में फैले कैम्पस में संचालित है।
कुछ वर्षों के बाद मेजर जनरल हबीबुल्ला को लेफ्टिनेंट जनरल के पद पर पदोन्नति देने का समय आया। इस पदोन्नति का अर्थ था उन्हे स्थानांतरित कर किसी कोर और फिर कमांड का मुखिया बनाया जाता, और भारत के आर्मी चीफ बनाने की दिशा में वे आगे बढ़ते। वरिष्ठता और काबिलियत के साथ साथ उम्र भी उन के साथ थी। लेकिन मेजर जनरल हबीबुल्ला ने पदोन्नति स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। अनेक लोगों के अनुसार जनरल हबीबुल्ला का मानना था कि आर्मी चीफ बनने का समय सामने आने पर यदि उनके धर्म को लेकर कोई विवाद खड़ा हुआ तो वह न तो देश के लिए अच्छा होगा न फ़ौज के लिए। 1947 के कटु अनुभव का असर गहरा था और सेनाध्यक्ष बनने का समय आने पर वे अपनी देशभक्ति को कटघरे में खड़े किये जाने की अपमानजनक संभावना से बचना चाहते थे। वे सात साल की लम्बी अवधि तक मेजर जनरल के पद और एक ही पदस्थापना पर एन.डी.ए. में रहे और वहीं से सेवानिवृत्त हुए। हालांकि उनके बेटे वजाहत हबीबुल्ला ने बाद में एक साक्षात्कार में बताया (गज़ाला वहाब की लिखी पुस्तक "बाॅर्न अ मुस्लिम: सम ट्रूथ्स अबाऊट इस्लाम इन इंडिया" में उद्धृत) कि एन.डी.ए. से उनका बहुत अधिक लगाव हो गया था और पदोन्नति के लालच में इससे अलग होना उन्हे स्वीकार नहीं था। बेटे वजाहत हबीबुल्ला आई.ए.एस अधिकारी थे और अनेक मंत्रालयों में सचिव रहने के बाद भारत के मुख्य सूचना आयुक्त तथा अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष भी रहे।
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत के वरिष्ठतम दोनों मुस्लिम फ़ौजी अफ़सरों के करियर तो (अलग अलग परिस्थितियों और कारणों से) एक सीमा से आगे नहीं बढ़ पाये। किन्तु इन दोनों ने आने वाली पीढ़ियों के लिए फ़ौज के दरवाजे खुले रखने में सफलता पायी। बीते पचहत्तर सालों में अनेक अवसरों पर अनेक मुस्लिम सैन्य अफसरों की वीरता, कर्तव्यपरायणता और काबिलियत का लोहा देश ने माना है। 1947 में दोनों कर्नलों ने समय पर नेहरूजी का ध्यानाकर्षण कर रक्षा मंत्रालय का निर्देश वापस करवाया तब भारत में रहने और फ़ौज और देश की सेवा करने के इच्छुक उनसे जूनियर मुस्लिम अफसरों में स्क्वाॅड्रन लीडर इदरीस लतीफ भी शामिल थे। 1978 में एयर चीफ मार्शल के रूप में इदरीस लतीफ भारतीय वायु सेना के अध्यक्ष बने थे। (देशबंधु)
(छत्तीसगढ़ के सारंगढ़ राजघराने से संबद्ध लेखक स्वतंत्र लेखन करते हैं। गिरिविलास पैलेस में निवास।)
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