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वाजिब प्रश्‍न: भारतीय न्यायपालिका में महिलाओं की तादाद इतनी कम क्‍यों

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भारत के मुख्य न्यायाधीश ( CJI) एनवी रमना ने पिछले दिनों कहा कि निचली न्यायपालिका में 30 प्रतिशत से भी कम जज महिलाएं हैं। उच्च न्यायालयों में 11.5 फीसदी महिला जज हैं। जबकि सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ 11-12 फीसदी यानी 33 में से सिर्फ चार महिला जज हैं। देश में 17 लाख वकीलों में महज़ 15 फीसद महिलाएं हैं। राज्यों की बार काउंसिल में केवल 2 प्रतिशत निर्वाचित प्रतिनिधि महिलाएं हैं। CJI ने बेहद वाजिब सवाल उठाया है। आईये इसी संदर्भ में इस लेख को पढ़ा जाए।-संपादक

 

डॉ. वेदप्रताप वैदिक, दिल्‍ली:

भारत के मुख्य न्यायाधीश न.व. रमन ने पिछले हफ्ते भारत की न्याय व्यवस्था को भारतीय भाषाओं में चलाने की वकालत की थी, इस हफ्ते उन्होंने एक और कमाल की बात कह दी है। उन्होंने भारत की अदालतों में महिला जजों की कमी पर राष्ट्र का ध्यान खींचा है। उन्होंने कहा है कि भारत के सभी न्यायालयों के जजों में महिलाओं की 50 प्रतिशत नियुक्ति क्यों नहीं होती? देश में कानून की पढ़ाई में महिलाओं को क्यों नहीं प्रोत्साहित किया जाता? महिला वकीलों की संख्या पुरुष वकीलों के मुकाबले इतनी कम क्यों है? उनकी राय है कि देश की न्याय व्यवस्था में महिलाओं की यह कमी इसलिए है कि हजारों वर्षों से उन्हें दबाया गया है। न्यायमूर्ति रमन ने मांग की है कि राज्य सरकारें और केंद्र सरकार इस गलती को सुधारने पर तुरंत ध्यान दें। यदि भारत के नेताओं और लोगों को यह बात ठीक से समझ में आ जाए तो हमारी अदालतों की शक्ल ही बदल जाएगी।

 

सबसे पहले हम यह समझें कि आंकड़े क्या कहते हैं। हमारे सर्वोच्च न्यायालय में इस समय 34 जज हैं। उनमें से सिर्फ चार महिलाएं हैं। अभी तक सिर्फ 11 महिलाएं इस अदालत में जज बन सकी हैं। छोटी अदालतों में महिला जजों की संख्या ज्यादा है लेकिन वह भी 30 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। इस समय देश की अदालतों में कुल मिलाकर 677 जज हैं। इनमें से महिला जज सिर्फ 81 हैं याने सिर्फ 12 प्रतिशत ! प्रदेशों के उच्च न्यायालयों में 1098 जज होने चाहिए लेकिन 465 पद खाली पड़े हैं। इन पदों पर महिलाओं को प्राथमिकता क्यों नहीं दी जाती ? प्राथमिकता देने का यह अर्थ कतई नहीं है कि अयोग्य को भी योग्य मान लिया जाए। महिलाओं को या किसी को भी जो 50 प्रतिशत आरक्षण मिले, उसमें योग्यता की शर्त अनिवार्य होनी चाहिए। देश के वकीलों में सुयोग्य महिलाओं की कमी नहीं होगी लेकिन दुर्भाग्य है कि देश के 17 लाख वकीलों में मुश्किल से 15 प्रतिशत महिलाएं हैं। राज्यों के वकील संघों में उनकी सदस्यता सिर्फ दो प्रतिशत है और भारत की बार कौंसिल में एक भी महिला नहीं है।

देश में कुल मिलाकर 60 हजार अदालतें हैं लेकिन लगभग 15 हजार में महिलाओं के लिए शौचालय नहीं हैं। हमारे इस पुरुषप्रधान देश की तुलना जरा हम करें, यूरोप के देश आइसलैंड से ! वहाँ कल हुए संसद के चुनाव में 63 सांसदों में 33 महिलाएँ चुनी गई हैं याने 52 प्रतिशत। वहां की प्रधानमंत्री भी महिला ही हैं- श्रीमती केटरीन जेकबस्डोटिर। उसके पड़ौसी देश स्वीडन की संसद में 47 प्रतिशत महिलाएँ हैं और अफ्रीका के रवांडा में 61 प्रतिशत हैं। दुनिया के कई छोटे-मोटे और पिछड़े हुए देशों में भी उनकी संसद में भारत के मुकाबले ज्यादा महिलाएँ हैं। भारत गर्व कर सकता है कि उसके राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष पद पर महिलाएं रह चुकी हैं लेकिन देश के मंत्रिमंडलों, संसद और अदालतों में महिलाओं को समुचित प्रतिनिधित्व मिले, यह आवाज अब जोरों से उठनी चाहिए। इस स्त्री-पुरुष समता का समारंभ हमारे राजनीतिक दल ही क्यों नहीं करते?


 

(लेखक दैनिक नवभारत टाइम्‍स के साथ न्‍यूज एजेंसी भाषा के संपादक रहे हैं। संप्रति भारतीय विदेश नीति और भारतीय भाषा सम्‍मेलन के अध्‍यक्ष के साथ स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।