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राहुल गांधी उवाच से उपजा हिंदू और हिंदुत्‍व के विवाद का राजनीतिक विश्‍लेषण

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कनक तिवारी, रायपुर:

‘‘हम यह चुनाव हिन्दुत्व की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं इसलिए हम मुस्लिम वोटों की कोई फिक्र नहीं करते। यह देश हिन्दुओं का है और आगे भी रहेगा।..........।‘‘ ‘‘यदि तुम मस्जिदें खोदोेगे तो उन सबके नीचे हिन्दू मन्दिरों के अवशेष पाओगे। जो कोई हिन्दुओं के खिलाफ खड़ा होगा उसे उसकी जगह बता दी जानी चाहिए या उसकी पूजा जूतों से करनी चाहिए। प्रभु (उम्मीदवार) को हिन्दू के नाम पर जिताना है। यद्यपि यह देश हिन्दुओं का है फिर भी यहां राम और कृष्ण का अपमान होता है। हमें मुसलमानों के वोट नहीं चाहिए। शहाबुद्दीन जैसा सांप जनता पार्टी में बैठा है। मतदाताओं को उस पार्टी को दफना देना चाहिए।‘‘  ये उन भाषणों के अंश हैं जो महाराष्ट्र विधानसभा के लिए हुए चुनाव में रमेश प्रभु नामक निर्दलीय उम्मीदवार के समर्थन में शिवसेना की ओर से बाल ठाकरे द्वारा दिए गए थे। बम्बई उच्च न्यायालय ने प्रभु के चुनाव को लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के अंतर्गत दो समुदायों के बीच धार्मिक घृणा की भावना को फैलाने के आरोप में रद्द कर दिया।  ठाकरे और प्रभु ने उच्चतम न्यायालय में अपील के जरिए हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी। उनका कहना था कि उन्होंने हिन्दू धर्म के आधार पर वोट नहीं मांगा है, क्योंकि उनके अनुसार ‘हिन्दुत्व‘ धर्म नहीं भारतीय संस्कृति का प्रतिरूप है। 

 

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सुप्रीम कोर्ट ने उनकी अपील स्वीकार कर बम्बई हाईकोर्ट का फैसला रद्द कर दिया।  सुप्रीम कोर्ट ने पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत और उसकी दार्शनिकता का तो समर्थन किया कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा। यदि कोई उम्मीदवार अपने धर्म के आधार पर वोट मांगता है तो वह पंथनिरपेक्षता के संवैधानिक आदेश की हेठी करता है।  किसी चुनाव के भाषण में केवल ‘धर्म‘ शब्द का उल्लेख करने की किसी कानून के अंतर्गत मनाही नहीं है। अन्य धर्म के उम्मीदवार को उसके धर्म का उल्लेख करते हुए वोट नहीं देने को भी नहीं कहा जा सकता। मनोहर जोशी बनाम नितिन भाऊराव पाटिल (ए. आई. आर. 1996, सुप्रीम कोर्ट 796), डाॅ. रमेश यशवंत प्रभु बनाम प्रभाकर काशीनाथ कुंटे (ए. आई. आर. 1996, सुप्रीम कोर्ट 1113) और बाल ठाकरे बनाम प्रभाकर काशीनाथ कुंटे (1996 (1) एस. सी. सी. 384) ने सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने हिन्दुत्व से विवादित विषयों का निपटारा किया। कहा धार्मिक हिन्दू संकीर्णता से नहीं समझा जा सकता। हिन्दुत्व एक तरह से भारतीयता के समानार्थी के रूप में समझा जाता रहा है। उसका मूल प्रयोजन उस हिन्दुत्वमय संस्कृति का विकास है जो देश में व्याप्त सभी संस्कृतियों के सहअस्तित्व में विश्वास करती है।

 

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प्रश्न यह था कि शिवसेना जैसी सांप्रदायिक राजनीतिक पार्टी के पर्चों और भाषणों में जिस धार्मिक उन्मादी भाषा में वोट मांगे जा रहे थे क्या उसे सेक्युलरवाद के सिद्धांतों का पोषण कहा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने शब्दों के खेल में उलझते हुए नहीं ही माना कि हिन्दू या हिन्दुत्व शब्दों के उच्चारण करने से माना जाएगा कि सांप्रदायिक दलों द्वारा हिन्दू धर्म के आधार पर वोट मांगे जा रहे थे। जिस राजनीतिक विचारधारा द्वारा वोट मांगे जा रहे थे वह विनायक दामोदर सावरकर और माधव सदाशिव गोलवलकर जैसे कट्टर हिन्दूवादी राजनीतिक विचारकों के हिन्दू राष्ट्र तथा हिन्दुत्व से प्रभावित थी। उसे देश में एक भाषा, एक धर्म और एक राष्ट्र का आग्रह करने का कारक माना गया था। कई बार हिन्दू धार्मिक मान्यताओं को समझने में न्यायाधीश निजी समझ और मान्यताओं पर भी भरोसा करते हैं। धार्मिक प्रथाओं का सांस्कृतिक स्पेस कठमुल्ला हिन्दुत्व द्वारा प्रदूषित भी कर दिया गया है। उसे हिन्दू राष्ट्रवाद के नाम से भी घोषित किया जाता है। अशोक, कबीर और महात्मा गांधी आदि के दायरे में धर्म का अर्थ सेक्युलरवाद से बहुत भिन्न नहीं था क्योंकि उसके मूल आधार में धार्मिक सहिष्णुता थी जो नए भारत से गायब है। 

‘‘हिन्दुत्व एक जीवन शैली है और भारतीय बहुलतावादी समाज का अक्स तथा प्राण तत्व है।"   हिन्दुइज़्म हिन्दू धर्म के अनुयायियों का संगठन-समाज है। दोनों अभिव्यक्तियों को गड्डमगड्ड नहीं किया जा सकता। हिन्दुइज़्म और हिन्दुत्व का अंतर बहुत सूक्ष्म या चुनौतीपूर्ण नहीं है। उसे न्यायमूर्ति वर्मा ने एक तरह से उलझा दिया था। हिन्दुत्व शब्द का आविष्कार विनायक दामोदर सावरकर ने किया था और उन्होंने कभी खुद आश्चर्य व्यक्त किया था कि दोनों शब्दों को एक ही अर्थ में क्यों समझा जाता है। यह संभव है कि दोनों शब्दों को एक ही अर्थ में प्रयुक्त करने का न्यायमूर्ति वर्मा का कृत्य नीयतन नहीं रहा होगा।      न्याय निर्णय की बौद्धिक क्षेत्रों में तीखी आलोचना हुई कि हिन्दुइज़्म तो पुरानी अभिव्यक्ति है परंतु हिन्दुत्व आधुनिक। हिन्दुइज़्म धार्मिक विश्वास का प्रतीक है। हिन्दुत्व नई परिस्थितियों का तकाज़ा है। इस तरह दोनों शब्दों को एक दूसरे के फेर में इस्तेमाल करने के अपने खतरे रहे हैं। जिसे भारतीय राजनीति को संघ परिवार के माध्यम से भोगना ही भोगना था। हिन्दुइज़्म धर्म है लेकिन हिन्दुत्व नहीं। हिन्दुइज़्म निजी मुक्ति का साधन हो सकता है लेकिन हिन्दुत्व जातीय राष्ट्रीय और सांस्कृतिक फलक का राज्य और समाज के स्तर पर अहसास है। हिन्दुत्व विचार के सभी आयामों का समुच्चय है। हिन्दुइज़्म को उसके एक धार्मिक वैश्वासिक हिस्से के रूप में धर्म विशेष द्वारा अनुभूत किया जाता रहा है।  

 

 

सावरकर ने साफ कहा था हिन्दू वह है जो सिंधु नदी से लेकर सिंधु अर्थात समुद्र तक फैले भू भाग को अपनी पितृभूमि मानता है और उनके रक्त का वंशज है। जो उस जाति या समुदाय की भाषा संस्कृत का उत्तराधिकारी है और अपनी धरती को पुण्य भूमि समझता है। जहां उसके पूर्वज, दार्शनिक, विचारक, ऋषि और गुरु पैदा हुए हैं। हिन्दुत्व के प्रमुख लक्षण हैं एक जाति और एक संस्कृति। गोलवलकर ने तो अपनी पुस्तक ‘‘वीः अवर नेशनहुड डिफाइंड‘‘ में यहां तक कहा कि हमारा एकमात्र लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र के जीवन को उच्चता और उज्जवलता के शिखर पर बैठाना है। वे ही राष्ट्रवादी हैं, देशभक्त हैं जो हिन्दू जाति को गौरव प्रदान करने के उद्देष्य से अपनी गतिविधियों में संलग्न हैं। बाकी सब लोग दगाबाज़ और राष्ट्र के शत्रु हैं। इस दृष्टि से हिन्दुस्तान के गैर हिन्दू लोगों को हिन्दू संस्कृति और भाषा स्वीकार करनी होगी। उन्हें हिन्दू धर्म के प्रति सश्रद्ध होना होगा। उन्हें और किसी आदर्श को नहीं अपनाना है लेकिन वे इस देश में हिन्दू राष्ट्र के मातहत बिना कोई मांग या सुविधा के साथ रह सकते हैं। उन्हें किसी तरह की प्राथमिकता यहां तक कि नागरिक के भी अधिकार नहीं मिलेंगे। आश्चर्यजनक रूप से सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दुत्व की परिभाषा स्थिर करने में इस पूरी पृष्ठभूमि का खुलासा नहीं किया जिसमें यहां तक कहा गया था कि पहला हिन्दू राज्य महाराष्ट्र में स्थापित होगा। 

 

भारतीय जनता पार्टी ने 1999 के चुनाव घोषणा पत्र में जस्टिस जे. एस. वर्मा की बेंच द्वारा दिए गए फैसलों का लाभ लिया। ऐसे सैद्धांतिक तर्क को भाजपा ने अपने उन राजनीतिक कृत्यों की वैचारिक नींव की तरह रेखांकित किया जिनके कारण राम जन्मभूमि आंदोलन को तर्क सिद्ध किया गया। न्यायिक बौद्धिकता के तर्क किसी राजनीतिक विचारधारा और पार्टी के लिए उपयोग में लाए जा सकते हैं-इसका नायाब उदाहरण न्यायमूर्ति वर्मा द्वारा हिन्दुत्व के पक्ष में दिए गए फैसले हैं। न्यायमूर्ति वर्मा ने फैसले के बाद एक इंटरव्यू में कहा था कि उनके अनुसार हिन्दुइज़्म एक जीवन शैली है जिसे वे कोरे दार्शनिक अंदाज़ में कहना चाहते थे। वस्तुतः हिन्दुत्व और हिन्दुइज़्म शब्दों के अर्थों में ज़मीन आसमान का फर्क है। 16 जनवरी 1999 को श्रीमती सोनिया गांधी की अध्यक्षता में कांग्रेस कार्य समिति ने अपने प्रस्ताव में हिन्दुइज़्म को भारत में सेक्युलरवाद का प्रभावशाली जमानतदार करार दिया। श्रीमती गांधी ने उसके पहले भी अपने भाषण में हिन्दुइज़्म को लेकर इसी तरह के विचार व्यक्त किए थे। भाजपा ने ‘बिल्ली के भाग से छींका टूटा‘ जैसी शैली में जानबूझकर यह बयान जारी किया कि कांग्रेस ने हिन्दुत्व संबंधी भारतीय जनता पार्टी की अवधारणा को भारतीय राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय तादात्म्य के प्रतीक के रूप में स्वीकार कर लिया है। ऐसा ही भारत के उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि हिन्दुत्व एक जीवन शैली है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने हिन्दुत्व संबंधी अवधारणा के कारण श्रीमती गांधी की प्रशंसा की। यहां संघ परिवार ने जानबूझकर कांग्रेस की सद्भावनाजन्य भूल के कारण हिन्दुत्व और हिन्दुइज़्म शब्दों को गड्डमगड्ड किया और राजनीतिक फलितार्थ निकाले। 

 

मनोहर जोशी और रमेश यशवंत प्रभु के फैसले की लगातार आलोचना के बाद अंततः सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय बेंच ने अभिराम सिंह और नारायण सिंह के मुकदमे में 2 जनवरी 2017 को लोकप्रितिनिधित्व अधिनियम की धाराओं 23 (3) और 23 (3) (क) पर पुनर्विचार किया। सात जजों की संवैधानिक पीठ ने अहम फैसले में कहा है कि उम्मीदवार या उसके समर्थकों के धर्म, जाति, समुदाय, भाषा के नाम पर वोट मांगना गैरकानूनी है। चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष पद्धति है। धर्म के आधार पर वोट मांगना संविधान के खिलाफ है। जन प्रतिनिधियों को भी अपने कामकाज धर्मनिरपेक्ष आधार पर ही करने चाहिए। भाजपा की दलील थी कि धर्म के नाम पर वोट का मतलब उम्मीदवार के धर्म से होना चाहिए। इसके लिए व्यापक नजरिये को देखना होगा। राजनीतिक पार्टी अकाली दल का गठन अल्पसंख्यकों सिख के लिए काम करने के लिए बना है। आईयूएमएल मुस्लिमों के कल्याण की बात करता है। वहीं डीएमके भाषा के आधार पर काम करने की बात करता है। ऐसे में धर्म के नाम पर वोट मांगने को पूरी तरह से कैसे रोका जा सकता है। कांग्रेस की ओर से सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल की दलील थी कि किसी भी उम्मीदवार, एजेंट या अन्य पक्ष द्वारा भी धर्म के नाम पर वोट मांगना भ्रष्ट आचरण है। राजस्थान, मध्यप्रदेश व गुजरात की ओर से एडीशनल साॅलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि धर्म को चुनावी प्रक्रिया से अलग नहीं किया जा सकता। उम्मीदवार धर्म के नाम पर वोट मांगे तो उसे भ्रष्ट आचरण माना जाए। मुख्य न्यायाधीश ने टिप्पणी की धर्म के नाम पर इसकी इजाजत क्यों दी जाए। सुनवाई के दौरान माकपा ने मामले में दलील दी कि धर्म के नाम पर वोट मांगने पर चुनाव रद्द हो। 

सात जजों की बेंच ने लेकिन यह भी साफ किया कि वह हिंदुत्व के मामले में दिए गए 1995 के फैसले की दोबारा समीक्षा नहीं कर रही। सुनवाई के दौरान एडवोकेट के. के. वेणुगोपाल की दलील के दौरान चीफ जस्टिस टी. एस. ठाकुर ने कहा कि वह मसला हमारे पास भेजा ही नहीं गया है। सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड, सेवानिवृत्त प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम और दिलीप मंडल ने याचिका दाखिल कर धर्म और राजनीति को अलग करने की गुहार लगाई थी।

 

 

 

(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।