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किस्‍से पुराने: सत्य साईं बाबा, पंडित रविशंकर और बाबा अलाउद्दीन खाँ

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मनोहर महाजन, मुंबई:
एक्टर मनोज कुमार के बेटे कुणाल ने घर की घण्टी बजाई। यह वही जुहू वाला टैरेस फ़्लैट था जो मेरे प्रोड्यूसर बनने के चक्कर में बिक गया था। कहा, " पापा आपको याद कर रहे हैं, कुछ जरूरी काम है।" उनका घर करीब ही था, कोई पाँच सौ मीटर की दूरी पर। मैं कुणाल के साथ हो लिया। मनोज कुमार ने मुझे देखते ही कहा, ओये कलाकार! एक शो करना है।" बताया कि सत्य साईं बाबा का आयोजन है, बड़े-बड़े आर्टिस्ट हैं। मैंने इनकार में सिर हिलाया तो उन्होंने कहा, "की होया?" वे मुझसे पंजाबी में ही बात करते थे। मैंने कहा कि मैं बाबा के बारे में कुछ नहीं जानता तो बोलूँगा क्या? मनोज बाबा के बड़े भक्त थे। वे कुछ सुनने को तैयार न थे। कहा, "करना तो पड़ेगा। बाबा की कृपा से सब ठीक हो जाएगा।" मैंने फिर से ना-नुकुर की तो उन्होंने कहा, "अच्छा मैं तुम्हारी मदद के लिए एक आदमी दे देता हूँ।" जो आदमी उन्होंने मुझे दिया वे 'बीस साल बाद' फ़िल्म के स्क्रिप्ट राइटर थे। सत्य साईं बाबा के बारे में वे भी उतना ही जानते थे, जितना मुझे पता था। 

देश के नामी-गिरामी गायक और संगीतकार इकठ्ठे 
आयोजन मुंबई के वल्लभ भाई स्टेडियम में था। महालक्ष्मी के सामने। बगल में रेसकोर्स। देश के नामी-गिरामी गायक और संगीतकार इकठ्ठे हुए थे। पंडित भीमसेन जोशी, पंडित रविशंकर और उस्ताद अमजद अली खान साहब भी। इनके सबके बारे में मुझे ठीक-ठाक मालूमात थी ही। असल मसला तो यह था कि न तो मुझे कार्यक्रम के स्वरूप के बारे में कुछ पता था, न मैं सत्य साईं बाबा के बारे में कुछ जानता था। स्क्रिप्ट राइटर से पूछा तो उन्होंने इतना ही बताया के पहले बाबा अपने भक्तों को दर्शन देंगे। यह थोड़ा ड्रामेटिक होगा। कुछ ऑडियो-विजुअल जैसा। फिर गायक-संगीतकार बाबा के सम्मान में प्रस्तुतियां देंगे। मुझे विंग्स में माइक के सामने खड़ा कर दिया गया। बाबा एक सिँहासन पर विराजमान हो गए। स्क्रिप्ट राइटर मेरे कंधे पर हाथ रखकर खड़े हो गए, जैसे दिलासा दे रहे हों कि "फिक्र न करो सब ठीक हो जाएगा!" मैंने कहा कि कंधे में हाथ रखने से अच्छा था कि दो-चार लाइन बता देते। पर्दा खुला। सारा खेल रोशनी का था। लाइट्स के जरिए एक रहस्य-लोक जैसा निर्मित किया गया। रंग-बिरंगी रोशनी मंच पर थिरक रही थी। इन्हीं के बीच अचानक चंद लम्हों के लिए बाबा की कोई तस्वीर झलकती और फिर तेजी से गायब हो जाती। फिर रोशनी ऊपर से नीचे की ओर आई। बाबा का चेहरा रोशन हुआ। आशीर्वाद की मुद्रा में उन्होंने दोनों हाथ उठाते हुए भक्तों को दर्शन दिए। रोशनी का यह खेल मुझे जितना समझ मे आ रहा था, मैं अपनी जुबाँ में बयाँ कर रहा था। "आकाश से नूर उतर आया है" किस्म के कुछ लफ्ज थे। मैंने क्या कहा था, यह ठीक-ठीक मुझे खुद नहीं मालूम। देखने-सुनने वालों ने बाद में बताया कि मैं बहुत बढ़िया बोल रहा था। मैं खुश हो गया। कहीं से थोड़ी-सी तारीफ मिल जाए तो इंसान को खुश होना ही चाहिए। उस्तादों ने अपने कार्यक्रम पेश किए। पंडित रविशंकर अपने वादन से पहले खुद चलकर मेरे पास आए। वे जानना चाहते थे कि मैं उनके परिचय में क्या बोलना चाहता हूँ।  मैंने बताया। वे संतुष्ट हो गए। 



बाबा मुक्त कंठ से प्रस्तुति की प्रशंसा करते रहे
कार्यक्रम ठीक-ठाक निपट गया। मैंने राहत की साँस ली। कुछ लोगों ने आकर मेरे संचालन की तारीफ की। मेरे पाँव जमीन से एकाध इंच ऊपर पड़ने लगे। मंच के पीछे से बड़े कलाकारों की विदाई हो रही थी। कलाकार हाथ जोड़कर विदा ले रहे थे और बाबा मुक्त कंठ से उनकी प्रस्तुति की प्रशंसा कर रहे थे। मनोज कुमार जरूरत के मुताबिक कलाकारों का परिचय भी दे रहे थे। मैंने सोचा कि थोड़ी तारीफ में भी बटोरता चलूँ। मैं उनके सामने मंडराता-फिर रहा था पर उन्होंने मेरी तरफ देखा भी नहीं। मुझे लगा कि अचानक शरीर का वजन जरा बढ़ गया है। पैर वापस जमीन पर पड़ने लगे। मेरा परिवार भी साथ था। मैंने मनोज से भी विदा नहीं ली और भारी मन से घर लौट आया। 
अगले दिन सुबह फिर से कुणाल आ धमका। कहा, "पापा याद कर रहे है।" मैंने कुछ झल्लाते हुए कहा," यार अब क्या हो गया? पहुँचा तो मनोज ने मेरे सिर पर हाथ रखा। उन्हें मेरे बाल बहुत पसंद थे। कहते थे, 'ये कहाँ से मिले हैं?" मैं कहता, "पता नहीं, माँ ने कडुआ तेल लगाकर इन्हें सँवारा है।" उन्होंने कहा, "ओए कलाकार! बाबा ने तुझे याद किया है। मैंने कुछ चिढ़कर कहा, "क्या याद किया है! तीन बार सामने गुजरा..तवज्जो तक नहीं दी।" कार्यक्रम के लिए पैसे-धेले भी नहीं मिले थे। मेरी कोलाबा में एक रिकार्डिंग थी। मैंने कहा, "मनोज जी, मुझे रिकॉर्डिंग के लिए जाना है। कल भी नहीं जा सका।" उन्होंने कहा, " ग्यारह बजे बुलाया है। नहीं गए तो बाबा क्रोधित होंगे। गए तो आशीर्वाद मिलेगा।"

 बेगानी शादी में अब्दुल्लाह दीवाने की तरह था....
मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि क्या आशीर्वाद मिलेगा। पत्नी लेकिन यह समझ रही थी कि नहीं गए तो बाबा क्रोधित होंगे। बाबा का आश्रम अंधेरी में था। अपनी कोलाबा वाली रिकॉर्डिंग को छोड़कर हम सपरिवार आश्रम पहुँच गए। वहाँ बड़े-बड़े लोग बाबा की प्रतीक्षा में पंक्तिबद्ध थे। हम लोग भी मनोज कुमार के परिवार के साथ पंक्ति में खड़े हो गए। कुछ देर बाद बाबा प्रकट हुए। वे ऊपर हाथ लहराते और भक्तों को भभूत का प्रसाद देते जाते। कभी-कभी हाथ में कोई और चीज आ जाती। कुछ लोग कहते थे ये बाबा का चमत्कार है, कुछ कहते हाथ की सफाई है। आगे भगवान रजनीश ने जादूगर आनन्द को लेकर एक बड़ा शो किया था। ये बताने के लिए कि बाबा जो करते हैं वो कोई चमत्कार नहीं है। तब आनन्द स्वामी आनन्द 'भारती' हो गए थे। ऐसा माना जाता था कि उन दिनों देश में अध्यात्म के दो केंद्र उभर रहे थे। दक्षिण भारत में सत्य साईं बाबा और उत्तर में भगवान रजनीश। तब वे ओशो नहीं हुए थे। एक तरह से यह वर्चस्व का मामला था। बहरहाल, बाबा जब मनोज कुमार के सामने से गुजरे तो सिर पर हाथ फेरा। आस्था न होते हुए भी मैंने सामने की ओर हाथ फैला दिया। बाबा ने न मेरे हाथों में कुछ रखा, न मुझे देखा। वे मेरे सामने से मुझ पे नज़र डालें बगैर गुजर गए। अब मैंने मनोज कुमार की ओर गुस्से से देखा। ऐसा लग रहा था कि काबू से बाहर न हो जाऊँ। मनोज जी की पत्नी ने आकर कहा, " ओए शांत हो जा! गुस्सा न कर।" मैं फनफनाता रहा। थोड़ी देर में पता चला कि बाबा समाधि में चले गए हैं। मनोज मुझसे बचते रहे। हम निकलने को थे कि अचानक शोर मचा। किसी ने कहा कि, "बाबा वापस आ रहे हैं।" इस बार वे आए तो सीधे मेरे सामने आकर खड़े हो गए। मेरे गालों को थपथपाया। दक्षिण भारतीय लहजे में कहा, "बहुत अच्छा गाता!" मैंने कहा, "गाता नहीं, बोलता।" उन्होंने कहा, "गाना-बोलना एक।" फिर उन्होंने अपने हाथ ऊपर की ओर उठाए और मेरे हाथों में भभूत और एक चांदी का सिक्का धर दिया। लोग मेरे हाथों पर टूट पड़े। उन्हें लगा कि बाबा ने अलग से आकर दिया है तो इसमें कुछ खास होगा। लूट मच गई। मनोज मुझसे कहते रहे कि मैं प्रसाद ग्रहण कर लूँ, पर लोगों ने मुझे इसका मौका नहीं दिया। सिक्का किसी तरह बचा रहा। मैं बेगानी शादी में अब्दुल्लाह दीवाने की तरह था, पर अब मुझे भी कुछ-कुछ मजा आने लगा था। मैं अचानक लोगों की निगाह में महत्वपूर्ण हो गया था।



रेडियो सिलोन वाले दिनों में भारतीय दूतावास में थी पोस्टिंग 
दोपहर को मैंने अपनी रिकॉर्डिंग निपटाई। शाम को घर आया तो अचानक एक फोन आया। ये घेरा साहब थे। रेडियो सिलोन वाले दिनों में उनकी पोस्टिंग भारतीय दूतावास में थी और अब वे दक्षिण अफ्रीका में थे। उनकी उड़ान कोई छः घण्टे की देरी से चल रही थी। मैंने उन्हें घर बुला लिया। वे आए तो पता चला कि वे 15 दिनों से भारत में हैं और सत्य साईं बाबा के दर्शन के लिए आए हैं। लेकिन वे जहाँ जाते हैं, बाबा कुछ देर पहले ही निकल जाते हैं। आज भी वे इधर मुंबई पहुँचे और उधर बाबा मुंबई से निकल लिए। यह किस्सा सुनते हुए श्रीमतीजी बार-बार मेरा मुँह देख रही थीं। विशिष्ट होने का उनका एहसास गहराता जा रहा था। फिर उन्होंने बड़े इत्मीनान से पिछले दो-तीन दिनों का किस्सा सुनाया। घेरा साहब और उनकी पत्नी का मुँह खुला रह गया। वे दोनों बेतहाशा मेरा हाथ चूमने लगे। घेरा साहब ने गुजारिश की कि मैं चांदी का सिक्का उन्हें सौंप दूँ। मैं शायद दे भी देता। श्रीमतीजी ने साफ इंकार कर दिया।
मेरे लिए इस कार्यक्रम का हासिल कुल इतना था कि पंडित रविशंकर खुद चलकर मेरे पास आए थे। यह मेरे लिए थोड़ी हैरानी की बात थी। फिर आगे चलकर भी मैंने इस बात को महसूस किया कि बड़े कलाकार इस मामले में थोड़े संजीदा होते हैं। वे चाहते हैं कि उनके श्रोताओं के बीच उनका ठीक-ठीक परिचय पहुँचे। बतौर एनाउंसर यह मेरे लिए एक सबक था। पंडित जी मेरे पास आए तो एक पल को रुके। गौर से देखा। उन्होंने कहा तो कुछ नहीं पर उनके चेहरे के भावों से लगा कि वे मुझे पहचान गए हैं। उन्हें शायद याद आ गया था कि यह वही शख्स है जो कोलंबो में हाथ धोकर उनके पीछे पड़ गया था।

 पंडित जी एकदम से ठिठक गए और पूछा, "क्या कहा?"
हुआ यूँ कि रेडियो सिलोन के दफ्तर में कहीं से उड़ते हुए यह खबर आई कि पंडित रविशंकर कोलंबो में कोई कॉन्सर्ट करने आ रहे हैं। खबर की पुष्टि भी न हो पाई थी कि मुझे उनका इंटरव्यू करने का फरमान मिल गया। मैंने भारतीय दूतावास में अपने सूत्रों को खंगाला पर वे किसी सहयोग के मूड में नहीं थे। थोड़ी मशक्कत और भाग-दौड़ के बाद पता चला कि खबर सही है। पंडित जी सुबह भारत से कोलंबो पहुँचेंगे। शाम को सिटी हॉल में प्रोग्राम करेंगे और रात की उड़ान से अमेरिका चले जायेंगे। किस होटल में वे ठहरेंगे यह भी मालूम कर लिया था पर आखिर तक उनसे कोई संपर्क नहीं हो सका। प्रोग्राम शाम 7 बजे था। मैं 5 बजे ही एक टेप रिकॉर्डर लेकर मौका-ए-वारदात पर पहुँच गया कि जैसे ही वे मिल जाएं, उन्हें किसी तरह घेर लूँगा। मेरी किस्मत अच्छी थी कि वे सचमुच ही हॉल में पहुँच गए थे। मंच में एक शख्स सितार लेकर माइक के सामने विराजमान था। वह सितार के तार छेड़ता और पंडित जी साउंड-बॉक्स के सामने जाकर आवाज की जाँच करते। कभी अँगूठे को ऊपर की ओर हिलाते तो कभी नीचे की ओर। वे एक-एक स्पीकर की जांच खुद कर रहे थे और जरूरी निर्देश भी देते जाते। मेरे मन में उनके लिए बड़ी श्रद्धा उमड़ आई कि बड़े आर्टिस्ट 'परफेक्शन' के लिए कितने सचेत होते हैं। वे जब एक स्पीकर के आगे खड़े होकर  अपना काम कर रहे थे, मैं टेप रिकॉर्डर लिए उनके पीछे खड़ा हो गया। उन्हें मेरी उपस्थिति का एहसास हुआ होगा। वे पलटे। आँखों में प्रश्न था कि "भाई तुम हो कौन ?" मैंने हाथ जोड़कर अपना परिचय दिया और आने का मकसद बताया। उन्होंने कहा, "देखिए, मेरे पास बिल्कुल समय नहीं है। बहुत मारामारी मची हुई है। माफ कर दें।" वे दूसरे स्पीकर की ओर बढ़ गए। मैं भी उनके पीछे हो लिया। इस बार वे खासे नाराज हो गए, कहा, "लगता है बात आपकी समझ में नहीं आई।" बात मुझे समझ में आ गयी थी पर मैं इतनी जल्दी मैदान छोड़कर भागने वालों में से नहीं था। थिएटर का लम्बा अनुभव था। अभिनय करना आता था। काम निकालने के लिए थोड़ी बदमाशी कर लेने और थोड़ा झूठ बोलने की काबिलियत आ गयी थी। ऐसे वक्त में 'राजा बेटा' किस्म के आज्ञाकारी लोग नहीं चल पाते।" मैंने पंडित जी से कहा, "जी मैं लौट जाता हूँ। पर आपको शायद यह अच्छा न लगे कि आपकी वजह से एक हिंदुस्तानी की नौकरी चली जाए!" मेरा तीर खटाक से जाकर निशाने पर लगा। पंडित जी एकदम से ठिठक गए और पूछा, "क्या कहा?" मैंने कहा कि, "रेडियो वालों ने कहा है कि किसी भी तरह आपका इंटरव्यू लेकर आऊँ। न कर सका तो नौकरी खत्म!" जो अपना समय ज्यादातर परदेस में गुजारते हैं उनके लिए यह जरा जज्बाती मामला होता है। वे पिघल गए। कहा, "अच्छा आओ।" मैं उनके पीछे चलता रहा। सारे स्पीकर्स जाँच लेने के बाद वे मुझे ग्रीन रूम ले गए। वहाँ एक भारी-भरकम सज्जन पहले से विराजमान थे। पंडित जी ने कहा, "जब तक इनसे बातें करो, मैं जरा तैयार हो लूँ।" वे सज्जन और कोई नहीं बल्कि उस्ताद अल्ला रक्खा खां साहब थे। मैंने मौके का फायदा उठाया और उनका इंटरव्यू रिकार्ड करना प्रारंभ कर दिया। यह मेरे लिए सूद की तरह था।



पंडित रविशंकर और उस्ताद अल्ला रक्खा खां की जोड़ी दुनिया में मशहूर थी
पंडित रविशंकर के साथ उस्ताद अल्ला रक्खा खां साहब की जोड़ी उन दिनों पूरी दुनिया में मशहूर हो चली थी। दोनों एक साथ परफॉर्म कर रहे थे। फ़िल्म-संगीत में भी उनका बड़ा योगदान था। कोई 30-35 फिल्में वे कर चुके थे। फ़िल्म 'बेवफा' और 'सबक' के गाने खूब चले भी थे।  फिल्मी दुनिया में उन्हें ए. आर. कुरैशी के नाम से जाना जाता था। उनके बारे में मेरी मालूमात और मेरे सवालों से वे बड़े खुश हुए। जब तक पंडित रविशंकर का बुलावा आता मैं उस्ताद अल्लारक्खा का इंटरव्यू रिकॉर्ड कर चुका था। अब मैं सिर्फ सितार की तान लेकर नहीं लौटने वाला था, बल्कि उसके साथ तबले की थाप भी थी।

जनता की मांग पर भारतीय संगीत सुनाना क्या गलत है
पंडित रविशंकर दूसरे ग्रीन-रूम में थे। कपड़े वगैरह बदल लिए थे और अब चेहरे पर लीपापोती चल रही थी। मेरे कमरे में घुसते ही एक पल भी गँवाए बगैर उन्होंने कहा, "शुरू हो जाओ।" मेरे हाथ में उसी दिन का "टाइम्स ऑफ इंडिया" अखबार था। उसे उनकी ओर बढाते हुए मैंने कहा, 'यह आपके बारे में क्या लिखा है?" अखबार ने उनकी तस्वीर के साथ पहले पन्ने की खबर बनायी थी। उन्होंने अखबार देखने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। उल्टा सवाल किया, "क्या लिखा है?' मैंने बताया कि अखबार कह रहा है कि आप भारत के होकर भी भारत के नहीं हैं। वे उत्तेजित नहीं हुए। कहा, "अपना-अपना ख्याल है। ये ठीक है कि मैं अपने प्रोग्राम के सिलसिले में ज्यादातर देश के बाहर रहता हूँ तो इसमें गलत क्या है। यूँ भी मीडिया वालों को टीका-टिप्पणी की आदत होती है। अब खुद को ही देख लो कि किस तरह तिकड़म से तुमने मुझे अपने जाल में फँसा लिया...।"
मैंने कहा, "पंडित जी! कुछ तो सचाई होगी इस खबर में। अब देखिए कि संगीत का ज्ञान तो आपने अपने मुल्क में हासिल किया और इसे बाँट रहे है गैर-मुल्कों में।" वे धीरे से मुस्कुराए। कहा, "नाम क्या है तुम्हारा?' मैंने कहा, "जी! मनोहर।" उन्होंने कहा, "तो मनोहर यह बताओ कि तुम्हारे रेडियो स्टेशन में इन दिनों जो गाने बजते हैं, क्या वे सब शास्त्रीय रागों पर आधारित होते हैं?" मैंने कहा, "नहीं। बल्कि अब संगीत थोड़ा पाश्चात्य हो चला है। गानों में बीट्स आने लगे हैं।" उन्होंने कहा, 'यह सब क्यों बजाते हो?" मैंने कहा, "जनता की मांग होती है।" पंडित जी ने कहा, "मैं जनता की माँग पर उन्हें भारतीय संगीत सुना रहा हूँ, तो इसमें क्या गलत है?" 
मुझे कोई जवाब नहीं सूझा। मैंने बातचीत की पटरी बदल दी। कहा, "हाल ही में जॉर्ज हैरिसन के साथ आपका अल्बम आया है..।" उन्होंने कहा, "हाँ, जॉर्ज मेरा शिष्य है। मुझसे भारतीय संगीत सीख रहा है। मैं उससे पाश्चात्य संगीत सीख रहा हूँ।" मैंने हैरानी से कहा, "आप संगीत सीख रहे हैं?" उन्होंने कहा, 'हाँ! संगीत मनुष्य की वैश्विक भाषा है। किसी भी उम्र में इसे बूझने-समझने का जतन करते रहना चाहिए।"  कुछ और सवाल जवाब हुए। मेरा काम हो चुका था। इस बीच पंडित जी का भी बुलावा आ चुका था। वे मंच के लिए प्रस्थान कर गए। 

गुरु बाबा अलाउद्दीन खां और मैहर की याद आ गयी
संगीत सीखने-सिखाने की बात पर मुझे उनके गुरु बाबा अलाउद्दीन खां और मैहर की याद आ गयी। यह किस्सा भी बड़ा दिलचस्प है तो इसका बयान करता चलूँ। पंडित जी का विवाह बाबा अलाउद्दीन खां साहब की पुत्री अन्नपूर्णा देवी से हुआ था। लोगों का मानना था कि संगीत के मामले में अन्नपूर्णा देवी पण्डित रविशंकर से किसी भी तरह कमतर नहीं थीं। कहा जाता है कि यही अहम का टकराव उनके अलगाव का कारण बना और अमिताभ-जया की 'अभिमान' फ़िल्म इसी से प्रेरित थी। अन्नपूर्णा देवी पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया जी की भी गुरु रहीं। चौरसिया जी बड़ी मुश्किल से उन्हें इस काम के लिए राजी करवा पाए थे।  बहरहाल, जो किस्सा मैं बयान करने जा रहा हूँ, उससे शायद आपको इस बात का एहसास हो सके कि बाबा के सानिध्य का असर किसी भी इंसान पर क्या हो सकता है, अन्नपूर्णा देवी तो उनकी बेटी और शिष्या थीं। मैहर के पास हम लोग धर्मराज जायसवाल जी का एक नाटक खेलने गए थे। ग्रुप में एक रवि शुक्ला भी थे, जो संगीत के इंतिहाई शौकीन और जानकार थे। नाटक खत्म होने के बाद रवि ने मुझसे कहा कि मैहर में बाबा का संगीत समारोह चल रहा है, अपन भी चलते हैं। हम लोगों ने साइकिल का बंदोबस्त किया और सभा-स्थल पर पहुँच गए। पंडित वी जी जोग का वॉयलिन वादन चल रहा था। श्रोताओं में सितारा देवी और दिलीप कुमार साहब भी बैठे हुए थे। कुछ देर बाद देखा कि बाबा अपने हाथ में एक पतली सी छड़ी लिए हुए श्रोताओं के बीच से गुजर रहे हैं और चलते-चलते किसी-किसी की पीठ पर हौले से मार देते हैं। पता चला कि वे सब बाबा के शिष्य हैं। जिन्होंने कोई नई चीज प्रस्तुत की हो और बाबा को वह पसंद आई हो तो वे उसकी पीठ पर अपनी छड़ी लगा देते। यह एक तरह का दीक्षांत-समारोह जैसा होता, जिसमें बाबा अपनी डिग्री बाँटते थे। बहरहाल, कोई चार-साढ़े चार बजे तक हम लोग संगीत का आनन्द लेते रहे। फिर थकान हो चली थी। लौटने से पहले कमर सीधी करने के लिए हम लोग एक नदी के किनारे रेत पर लेट गए। रवि के गले से रात को सुना वी जी जोग का राग फूट रहा था। दूसरी तरफ से ईंट लादे हुए गधे के साथ उसे हाँकने वाला चला आ रहा था। रवि के राग को सुनकर वह रुक गया। रवि ने उसे प्रश्न-सूचक निगाहों से घूरा। उसने कहा, "तुम राग गलत ढंग से गा रहे हो।" रवि का गुस्सा जैसे सातवें आसमान पर पहुँच गया। उसने "मास्टर ऑफ म्यूजिक" की डिग्री ली हुई थी और गधे को हाँकने वाला कह रहा था कि राग गलत है। रवि ने पूछा, "क्या गलत है?' गधे हाँकने वाले ने गाकर सुना दिया और गधे को चलने का इशारा किया। उसके पैरों से रेत उड़ने लगी थी। रवि का मुँह अब तक खुला था। मैंने कहा कि वह मुँह बंद कर ले वरना उसमें रेत चली जायेगी!
(जबलपुर निवासी स्‍वतंत्र पत्रकार दिनेश चौधरी से बातचीत पर आधारित संस्‍मरण।)



(मनोहर महाजन शुरुआती दिनों में जबलपुर में थिएटर से जुड़े रहे। फिर 'सांग्स एन्ड ड्रामा डिवीजन' से होते हुए रेडियो सीलोन में एनाउंसर हो गए और वहाँ कई लोकप्रिय कार्यक्रमों का संचालन करते रहे। रेडियो के स्वर्णिम दिनों में आप अपने समकालीन अमीन सयानी की तरह ही लोकप्रिय रहे और उनके साथ भी कई प्रस्तुतियां दीं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।