आरके जैन, दिल्ली:
दिल्ली में ठीक लाल क़िले के सामने जैनियों का प्रसिद्ध और प्राचीन लाल मन्दिर है। यह मन्दिर सन 1656 में बनकर तैयार हुआ था।
मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने दिल्ली को जब राजधानी बनाया, तो उसने बड़े-बड़े सेठ-साहूकारों को दिल्ली में बसाने की सोची। चांदनी चौक को बड़ा व्यापारिक स्थान के रूप में विकसित करना था। उस वक़्त बड़े सेठ और साहूकार जैन थे। उनके लिये एक भव्य मन्दिर बनाने के लिये बादशाह ने ज़मीन और तमाम ज़रूरी सुविधाएं उपलब्ध कराईं। जामा मस्जिद और लाल मन्दिर लगभग साथ-साथ बने थे। जामा मस्जिद की तरह लाल मन्दिर भी लाल पत्थर और संगमरमर से बना है।
लाल क़िले के ठीक सामने जैन मन्दिर का उस समय बनाया जाना अपने आप में उस वक़्त के साम्प्रदायिक माहौल को बयां करता है। शाहजहाँ के बाद औरंगज़ेब बादशाह हुऐ, जो कट्टर माने जाते थे। पर उन्होंने भी मन्दिर के होने पर ऐतराज नहीं किया। जबकि उस समय भी पूजा और भगवान की आरती के समय खूब घंटे और घड़ियाल बजते रहे होंगे। लाल मन्दिर आज भी अपनी कलात्मकता और ख़ूबसूरती के लिये प्रसिद्ध है।
मैं यह कहना चाहता हूँ कि हमारा देश तो सदियों से साम्प्रदायिक एकता की मिसाल रहा है और आज भी देश के विभिन्न जगहों पर हमारे प्राचीन और खूबसूरत मन्दिर स्थित है। कुछ अपवाद हो सकते हैं कि आततायीयो ने धर्म स्थलों को चोट पहुँचाई पर अधिकतर जगहों पर धार्मिक स्थलों की पवित्रता और उनकी सरंक्षा का पूरा ध्यान समाज के हर वर्गों के द्वारा रखा गया है। वैसे धार्मिक स्थलों को चोटपहुँचाने वाले आतातायी आज के जमाने में भी है जो नहीं चाहते कि देश में शांति और सद्भाव क़ायम रहे।
मुगल सम्राट शाहजहां ने दारिबा
गली के आसपास चंदानी चौक के दक्षिण में भूमि दी थी। उन्होंने जैन समाज को एक
जैन मंदिर बनाने के लिए निर्माण करने की अनुमति भी। जैन समुदाय ने मंदिर के लिए
संवत 1548 में भृतराक जिनचंद्र के पर्यवेक्षण में जीवराज पापीवाल द्वारा
स्थापित तीन संगमरमर मूर्तियों का अधिग्रहण किया था। मुख्य मूर्ति तीर्थंकर पारशव
की है। यह मंदिर होने के साथ-साथ पक्षियों के लिए एक
चैरिटेबल हॉस्पिटल भी चलाता है, जहां
असहाय पक्षियों का इलाज किया जाता है।
(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।