द फॉलोअप टीम, रांची:
हाल के दिनों में जिस तरीके से झारखंड की बेटियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल की दुनिया में झारखंड का नाम रोशन किया है। उससे यह स्पष्ट हो जाता है की झारखंड की मिट्टी की ताकत यहां को हवा-पानी में बाकी जगहों से कुछ अलग बात तो जरूर है। बड़ी बात यह रही की इन बेटियों ने तमाम विषम परिस्थितियों में बिना सुविधाओं के अपने मंजिल को पाया। ये काफी गौरवपूर्ण बात है।
झारखंड की खिलाड़ियों ने रच दिया इतिहास
बात हो रही है विश्व तीरंदाजी चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीत चुकी दीपिका कुमारी, कोमालिका या अंकिता भगत की या फिर हॉकी की राष्ट्रीय टीम में टोक्यो ओलंपिक में चुनी गई निक्की प्रधान या सलीमा टेटे की हो या फिर हंगरी में होने वाली विश्व जूनियर कुश्ती चैंपियनशिप के लिए चुनी गई चंचला कुमारी की। इन सभी उदाहरणों में एक समानता है कि इन्होंने विषम परिस्थितियों में अपने मुकाम को प्राप्त किया। झारखंड के जंगलों से घिरे ग्रामीण क्षेत्रों की शुद्ध हवा हो या झरनों से बहता पानी। यहां की मिट्टी की ताकत में कुछ तो ज़रूर है जो गांव की इन प्रतिभाओं की प्रतिभा को मरने नहीं देता। बल्कि एक दिन वे ध्रुव तारे की तरह आसमान में चमक उठती हैं।
बांस के फट्टों वाले धनुष से हुआ आरंभिक प्रशिक्षण
दीपिका एक बहुत साधारण परिवार से आती है। बांस के फट्टों से बने धनुष से उन्होंने तीरंदाजी की प्रैक्टिस शुरू की थी देखते ही देखते अंतरराष्ट्रीय तीरंदाजी जगत में झारखंड का नाम रोशन कर दिया। अनेक वर्षों से लगातार भारत के लिए पदक जीती रही दीपिका के नेतृत्व में भारतीय टीम ने कल विश्व चैंपियनशिप में फिर से स्वर्ण पदक जीतने का गौरव हासिल किया। सलीमा टेटे और निक्की प्रधान झारखंड के अत्यंत पिछड़े जिलों सिमडेगा और खूंटी के जंगलों में स्थित गांवों से आती हैं। यहां हॉकी की खेलने की सुविधा का घोर अभाव था। चंचला ओरमांझी के सुदूर हटवाल गांव की रहने वाली है। चंचला की कहानी तो इस मायने में और भी प्रेरणा देती है क्योंकि वो जिस कुश्ती स्पर्धा में विश्व जूनियर चैंपियनशिप खेलने जा रही है उसमें पौष्टिक आहार को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है।
बिना पौष्टिक भोजन लिये पाई कामयाबी
पहलवानी करने वालों को कम उम्र से ही पहचान कर पौष्टिक खाना और प्रशिक्षण दिया जाता है। 'फूड पिरामिड डाइट' के अनुसार उन्हें गेहूं,पास्ता फल, सब्जी, दूध, योगर्ट , मछली ,अंडा, बादाम का मिश्रण भोजन में दिया जाता है ताकि उनको पर्याप्त मात्रा में विटामिन, मिनरल, कार्बोहाइड्रेट, फाइबर, प्रोटीन, कैल्शियम,आयरन,जिंक मिल सके।लेकिन अपनी चंचला बेटी तो बचपन से सिर्फ माड़-भात- चोखा खाकर पहलवानी की तैयारी करती रही और आज वह विश्व चैंपियनशिप में हिस्सा लेने जा रही है। यह संभवत पूरे देश का एकमात्र अपवाद भरा उदाहरण होगा जहां बिना पौष्टिक खाना खाए सिर्फ खेत-खलिहान में काम करके अपनी ताकत, अपनी स्टेमिना को बनाने वाली किसी बेटी ने विश्व चैंपियनशिप में खेलने की पात्रता बनाई हो।
चंचला ने मेहनत और लगन से पाया मुकाम
चंचला इतनी गरीब परिवार से आती है कि उसके माता-पिता चाह कर भी उसे पौष्टिक खाना नहीं दे पाते थे। फिर भी उसने हार नहीं मानी। जहां बाकी बच्चे प्रशिक्षण केंद्रों में मैट पर कुश्ती के प्रशिक्षकों से प्रशिक्षण लेते थे वहीं चंचला का पहला प्रशिक्षण तो खेत खलिहान में धान के भारी बोरों को उठाकर घर तक पहुंचाने से होता था।
सुदूर ग्रामीण इलाकों में तलाशनी होगी प्रतिभा
इन उदाहरणों से स्पष्ट है की अब समय आ गया है कि हमारे राष्ट्रीय चयनकर्ताओं को भी शहरों के अतिरिक्त सुदूर गांवों में प्रतिभाओं को तलाशना चाहिए। वैसे झारखंड के लिए दीपिका कुमारी, निक्की प्रधान ,सलीमा टेटे और चंचला कुमारी का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उभार ने यह सिद्ध कर दिया है कि कुछ तो अलग है झारखंड की मिट्टी में जहां से तमाम मुश्किलों के बावजूद भी खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय खेल जगत में उभर रहे है।