डाॅ. जंग बहादुर पाण्डेय, रांची:
जिन कवियों ने हिंदी कविता को छायावाद की कोहेलिका से बाहर निकाल कर उसे प्रसन्न आलोक के देश में पहुंचाया उसमें जीवन का तेज भरा और उसको सम सामयिक संघर्षों से उलझना सिखाया , उनमें दिनकर का नाम सर्वोपरि है। सच तो यह है कि आधुनिक काल में हिंदी की राष्ट्रीय चेतना ने तीन ही मंजिलें तय की हैं। उसकी पहली मंजिलभारतेंदु हरिश्चंद्र में मिलती है, जब उसने ब्रज के करीब कुंजों को छोड़कर देश दुर्दशा की ओर साश्रुनयन निहारा था, उसकी दूसरी मंजिल के पुरोधा मैथिलीशरण गुप्त बने ,जब उसने वर्तमान की विवशता के क साथ अतीत का गौरवपूर्ण स्मरण किया और अपनी तीसरी मंजिल में वह दिनकर की उंगली पकड़कर आगे बढ़ी तथा अन्याय , अत्याचार राजनीतिक दास्ता और आर्थिक शोषण के विरुद्ध उसने खुलकर विद्रोह का तूर्यनाद किया ।एक वाक्य में दिनकर नाम युग धर्म के हुंकार और भूचाल बवंडर से भरी हुई तरुणाई का है।
पौरुष और पावक जवानी और रवानी, उर्जा और उमंग के प्रतीक का पर्याय हैं दिनकर। दिनकर ऐसे कवियों की कोटि में नहीं समाविष्ट किए जा सकते हैं जो सामाजिक विवशता के बवंडर के सामने नतमस्तक हो जाएं ।उनकी कविता कामिनी व्योम कुंज की सहचरी नहीं, वरन यथार्थ की मिट्टी की उपज है ।जब कभी हमारा देश विदेशी दु:शासन से प्रताड़ित हुआ, समाज के जिस किसी क्षेत्र में विषमता का विद्रूपकारी तांडव हुआ, जब कभी मानव मूल्यों के सामने चुनौती आई राष्ट्रकवि दिनकर ने एक सजग योद्धा के समान प्रतिकार किया ।सुसुप्त नव युवकों की कुंभकर्णी निद्रा को भंग किया उनके सुषुप्त शिराओं में मकरध्वज की उष्मा का संचार किया, जब कभी भी भारतीय जनजीवन के आकाश पर अंधकार की काली घटा छाई उन्होंने आलोकधन्वा छोड़ कर उसे छिन्न-भिन्न किया। उन्हें स्वर्ण वीणा के तारों पर उंगलियां फेरना अभिप्रेत न हुआ ।उन्होंने रजत शंख फूंक कर भीषण हुंकार करना ही आवश्यक समझा।
भारतेंदु ने समष्टि के प्रांगण में प्रत्येक भारतीय का आवाहन किया था, देश की दुर्दशा पर आठ आठ आंसू बहाने के लिए ।दिनकर की राष्ट्रीय चेतना एक कदम आगे चलकर उनके असंतोष की वाणी और संघर्ष को सजग नेतृत्व सौंपती है। प्राय: उनकी अधिकांश रचनाओं में ओज और पुरुष, ऊर्जा और उमंग से उत्पन्न अग्नि के लपटों के दर्शन होंगे ।राष्ट्र कवि ने भारत की आत्मा को देखा है जो परतंत्रता एवं अनाचार के अंधेरे में बुझने बुझने से हो गई थी। युग की सुषुप्ति को तोड़ने के लिए स्वयं दिनकर अपने व्यक्तित्व में 49 पवन भर लेने लेना चाहते हैंं। युग जिस समय रंग और रण की उलझन में भटक रहा था उस समय दिनकर ने स्पष्ट ललकार दी सही पथ की ओर संकेत किया वह हमें स्वप्न एवं कल्पना की नींव से व्यथा से कांपती धरती की ओर ले चले ।माया के मोहक देश से स्वप्न और कल्पना के शीश महल की ओर और फिर स्वप्नों के शून्यसे यथार्थ की हलचल की ओर दिनकर प्रगतिशील रहें ।रेणुका के हिमालय कविता में दिनकर ने ललकार कर निर्णित स्वर में कहा था, :-
रे रोक युधिष्ठिर कौ न यहां
जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडीव गदा।
लौटा दे अर्जुन भीम वीर।।
पराधीन भारत को स्वाधीन बनाने में राष्ट्र कवि ने वही भूमिका अदा की है' जो भूमिका फ्रांस की राज्यक्रांति को सफल बनाने के लिए वाल्टेयर ने और रूस की क्रांति को सफल बनाने में मेक्सिको गोर्की और लियो टॉलस्टॉय ने अदा की थी ।दिनकर ने अपनी कविताओं के माध्यम से सोए हुए भारतीयों को जगाया है उनमें गरम लहू का संचार कराया है ।उनकी कविताओं में गुप्तजी ,माखनलाल चतुर्वेदी ,सुभद्रा कुमारी चौहान, बालकृष्ण शर्मा नवीन ,भारतेन्दु और भूषण से भी अधिक राष्ट्रीय भावना मुखरित हुई है ।हिमालय शीर्षक कविता उसका सुंदर उदाहरण है। वे शंकर से प्रलय नृत्य का आग्रह करते हैं:-
कह दे शंकर से आज करें
वे प्रलय नृत्य फिर एक बार
सारे भारत में गूंज उठे
हर हर बम का फिर महोच्चार
ले अंगडाई उठ हिले धरा
कर निज विराट स्वर में निनाद
तू शैलराट ! हुंकार भरे
फट जाए कुहा भागे प्रमाद
तू मौन त्याग कर सिंह नाद
रे तपी!आज तप का न काल
नव युग शंख ध्वनि जगा रही
तू जाग जाग मेरे विशाल
निष्कर्ष अतः हम कह सकते हैं कि राष्ट्रकवि दिनकर भारतीय संस्कृति के अग्रदूत राष्ट्र कल्याण के धर्मनिष्ट साधक विकृतियों के अभिशाप में प्रचंड पौरूष के तप तेज वाले कवि हैंं। भारत की विभूति हैं ।समस्याओं की अंधेरी निशा में मसालों से जलते हुए उनकी कविताएं भावना ,स्वप्न यथार्थ वेदना और विद्रोह से रगी हुई हैं। इनकी कविताओं में कुरीतियों के प्रति आक्रोश ,राष्ट्र के प्रति ममता तथा चिंतन के बुद्धि वादी तत्वों के प्रति अगाध प्रेम है ।भावुकता के आकाश में उड़ने वाले विहग की तरह वे यथार्थ के निर्णय की उपेक्षा नहीं करते इसलिए मन्मथ नाथ गुप्त ने ठीक ही लिखा है :नजरुल ,जोश और दिनकर भारत की क्रांतिकारी कविता के वृहद त्रयी के कवि हैं ।जोश ने दिनकर और बच्चन की प्रशंसा करते हुए लिखा है:
हिंद में लाजवाब हैं दोनों,
शायरे इंकलाब हैं दोनों।
देखने में अगर्चे जर्रे हैं।
वाकई आफताब है दोनों।
दिनकर ने अपना परिचय स्वयं इस रूप में दिया है:
सुनू क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा
स्वयं युगधर्म का हुंकार हूं मैं।
(लेखक हिन्दी विभाग, रांची विश्वविद्यालय के अध्यक्ष रह चुके हैं। )
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।