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स्मृति शेष: कभी-कभी से बाजार तक, सागर सरहदी अब सरहद से परे

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मुहम्मद जाकिर हुसैन
सागर सरहदी (11 मई1933-21 मार्च 2021 ने सदाबहार मूवी 'कभी-कभी' सहित भारतीय सिनेमा को कई क्लासिक सुपरहिट फिल्में दी थीं। खैबर पख्तून प्रांत के बफा गांव (अब पाकिस्तान का हिस्सा) में जन्मे गंगा सागर तलवार ता-जिंदगी खुद को सरहदी (सीमांत) मानते रहे। बीती रात मुंबई में उन्होंने आखिरी सांस ली। मई 2007 में जनसंस्कृति मंच की ओर से भिलाई में 'प्रतिरोध का सिनेमा' का सफल आयोजन हुआ। जिसका उद्घाटन सागर सरहदी की मौजूदगी में उनकी फिल्म ‘बाजार’ से होना था। आयोजक प्रो. सियाराम शर्मा से बात हुई और तय हुआ कि रायपुर एयरपोर्ट से भिलाई आते वक्त कार में बातचीत हो जाएगी। इससे सुनहरा मौका एक पत्रकार के लिए क्या हो सकता था, लिहाजा सुबह सियाराम जी के साथ मैनें भी रायपुर एयरपोर्ट की राह पकड़ी। सागर साहब कुरता-पायजामा पहनावे में एक झोला पकड़े सामने आते दिखे।



तब कार में ही होती रही दुनिया-जहां की बात
परिचय हुआ, बात निकली फिर तो रास्ते में हम लोगों ने साथ में नाश्ता किया और भिलाई आते तक मेरे जितने सवाल थे। सब के सब के जवाब उनसे ले लिए। बदकिस्मती से उस वक्त मेरे पास रिकार्डर नहीं था, लिहाजा डायरी में नोट कर लिया था। तब सागर साहब ने एबटाबाद की हसीन वादियों से लेकर बाम्बे तक के अपने सफर को बड़ी शिद्दत से बताया था। उन्होंने तब ‘बाजार‘ पर भी खूब बात की थी। उन्होंने ‘देख लो आज हमको जी भर के‘ गीत की एक लाइन ‘याद इतनी तुम्हे दिलाते जाएं-पान कल के लिए लगाते जाएं‘ पर बेहद भावुक होकर पूरा कथानक बयान किया था। तब उनकी आंखें भी डबडबा गई थी। हालांकि पूरी बातचीत में एक बात मैनें और सियाराम शर्मा जी ने गौर की थी कि उनके मुंह से गालियां खूब निकलती थी। खैर, यह उनका अपना तरीका था। तब उन्होंने यह भी बताया था कि बाजार के चले आओ सैंय्या गीत में छोटी सी तब्बू को भी बिठा दिया था क्योंकि सारी शूटिंग तब्बू-फरहा के घर पर हुई थी। 




सागर यानी बीते दिनों में गोते लगाना
भिलाई आने पर उनकी मौजूदगी में नेहरू हाउस में बाजार की स्क्रीनिंग और उनसे दर्शकों की बातचीत का सुख भोगने का भी मौका मिला। सागर साहब तब दो दिन भिलाई में रुके थे। अगले दिन कॉफी हाउस सेक्टर-10 में आयोजकों के साथ लंच पर बैठे थे तो उन्होंने याद किया और मैं भी पहुंच गया दस्तरख्वान पर। इस यादगार मुलाकात के बाद सागर साहब से दूसरी मुलाकात जुलाई 2014 में रायपुर में हुई। ‘कभी-कभी‘, ‘नूरी‘, ‘बाजार‘, ‘सिलसिला‘,‘फासले‘,‘चांदनी‘ से लेकर ‘कहो न प्यार है…‘ जैसी सफल फिल्मों की लंबी फेहरिस्त अपने खाते में रखने वाले सागर सरहदी तब तक आउटडेटेट हो चुके थे। 



2005 में बनाई चौसर, नहीं देख सकी सिनेमाघर का मुंह
वैचारिकी के स्तर पर भले ही उन्हें गंभीरता से सुनने वाले लोग मौजूद थे। लेकिन फिल्मी दुनिया की पटरी से उनकी गाड़ी उतर चुकी थी।उन्होंने 2005 में नए-नवेले कलाकार नवाजुद्दीन सिद्दीकी को लेकर अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म ‘चौसर‘ बनाई थी। जो कई साल डिब्बाबंद रही। बाद में नवाजुद्दीन का नाम हो गया तो सागर सरहदी ने भी कोशिश की कि नवाजुद्दीन के नाम के सहारे उनकी ‘चौसर‘ को डिस्ट्रीब्यूटर खरीद ले और यह फिल्म सिनेमाहाल का मुंह देख ले। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अपनी इसी मुहिम के तहत सागर सरहदी 2014 में रायपुर आए थे। यह अलग बात है कि किसी तरह 2018 में उनकी ‘चौसर‘ ऑन लाइन प्लेटफार्म पर रिलीज हो पाई। 

बाजार की सिक्‍वल बनाने की हसरत रह गई अधूरी
2014 में तब उनसे मेरी आखिरी और कुछ देर की मुलाकात हुई थी। तब मेरे हाथ में उनकी पहचान बन चुकी ‘बाजार‘ की ओरिजनल डीवीडी थी। मैनें उस डीवीडी में उनका आटोग्राफ लिया, फिल्मों को लेकर कुछ बातें हुई। इस दौरान उन्होंने आंखों में चमक लिए खुशी-खुशी बताया था कि वो 'बाजार-2' हर हाल में बनाएंगे, इसकी तैयारी हो चुकी है। उनसे कुछ राजनीतिक मसले पर भी बात हुई और फिर सागर सरहदी अपनी शाम में डूबने रवाना हो गए। सागर सरहदी के ढेर सारे इंटरव्यू यू-ट्यूब पर मौजूद है। जितनी शानदार उनकी फिल्में थी, उतनी ही शानदार शख्सियत थी उनकी। 2007 में लंबे इंटरव्यू के दौरान उनसे मैनें पूछा था कि आपकी लिखी ज्यादातर फिल्मों में खुबसूरत वादियां और नदी खासतौर पर होती हैं। उन्होंने बताया था कि उन्हें खैबर पख्तून प्रांत के बफा गांव का बचपन हमेशा अपनी तरफ खींचता है, इसलिए कहानी लिखने के दौरान मैं वैसा ही परिवेश दिखाना चाहता हूं। उन्हें अपने बफा गांव से प्यार था, जहां बंटवारे के बाद कभी जा नहीं पाए। इसलिए हमेशा अपने आप को सरहदी ही मानते रहे। आज सागर साहब सरहदों से परे चले गए….



(लेखक-पत्रकार मुहम्मद जाकिर हुसैन भिलाई में रहते हैं। इस्पात नगरी भिलाई के इतिहास पर उनकी बहुचर्चित किताब 'वोल्गा से शिवनाथ तक' हाल ही में प्रकाशित है।)