दीपक असीम, इंदौर:
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब तीन कृषि बिल वापसी की बात सोची होगी, तो कल्पना की होगी कि वे जैसे ही टीवी पर आकर बिल वापसी का एलान और किसानों से वापस लौट जाने की अपील करेंगे। किसान उनकी जय-जयकार करते हुए वापस लौटने लगेंगे। आनन-फानन में दिल्ली के चारों तरफ की सड़कें खाली हो जाएंगी। उनका गुणगान होगा वगैरह-वगैरह...। मगर जो कल्पना की थी, वैसा कुछ नहीं हुआ बल्कि उल्टा हुआ जिसके बारे में सोचा तक नहीं था। जब किसानों से पूछा गया कि अब तो खुश हैं, वापस जाएंगे या नहीं, तो किसानों ने प्रधानमंत्री मोदी पर अविश्वास जताते हुए कहा कि उनकी टीवी पर कही बातों पर हम यकीन नहीं करते। बताइये पंद्रह लाख रुपये मिले किसीको? धन्यवाद देना और जयकारे लगाना तो दूर किसानों ने उन्हें ही झूठा और वादाफरामोश साबित कर दिया। तीनों कृषि बिल वापसी के ऐलान के बाद भी किसानों का आंदोलन में डटे रहना मोदी की साख के लिए इतना ज्यादा घातक है कि सोचा भी नहीं जा सकता।
लोग सवाल उठाएंगे कि अब तो कृषि बिल वापसी का एलान हो गया, अब किसान वापस क्यों नहीं जा रहे। जवाब मिलेगा कि इन्हें प्रधानमंत्री की ज़ुबान पर भरोसा नहीं है, जब तक संसद में बिल वापस नहीं हो जाता तब तक हम नहीं हिलेंगे। यानी किसानों को डर है कि ये शख्स बिल वापसी का एलान करके हमें घर भेज सकता है, हमारा आंदोलन खत्म करा सकता है और फिर बिल वापस भी नहीं लेगा। प्रधानमंत्री की विश्वसनीयता पर इससे बड़ा सवाल कोई हो ही नहीं सकता कि वे खुद आए, खुद ऐलान किया, तब भी किसान कह रहे हैं कि नहीं पहले संसद में वापस लो, तुम्हारा क्या भरोसा। और उनके पास दलील यह है कि पहले के वादे कौन से पूरे हुए?
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भाजपा और संघ के लिए यह चिंता का सबसे बड़ा विषय होना चाहिए कि उनके सबसे बड़े पोस्टर बॉय की इमेज पूरी तरह ध्वस्त हो गई है। उसे जनता फरेबी और झूठा समझने लगी है। उसकी किसी बात पर किसी को भी विश्वास नहीं है। तो सबसे पहली बात यह कि बिल वापसी के ऐलान का वैसा स्वागत नहीं हुआ जैसे स्वागत की अपेक्षा थी। देश की जनता यही अनुमान लगा रही है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में हार का खतरा टालने के लिए यह दांव चला गया है। दूसरा सवाल यह कि क्या बिल वापसी के ऐलान के बाद यूपी, पंजाब, उत्तराखंड और हरियाणा में भाजपा नेताओं का विरोध कम हो जाएगा? फिलहाल कई जगहों पर भाजपा नेताओं की हालत अछूत की सी है। उन्हें शादियों तक में नहीं बुलाया जा रहा। कोई भी समारोह हो, विरोध करने किसान पहुंच जाते हैं। लखीमपुर में और क्या हुआ था? कृषि बिल वापसी के बाद क्या भाजपा के नेता जनता के बीच जा पाएंगे? इसका जवाब आने वाले कुछ दिनों में हमें मिलने वाला है।
बिल वापसी का दांव उल्टा इसलिए भी पड़ा क्योंकि किसानों की मांग केवल बिल वापसी ही नहीं थी। अगर घोषणा करने आए थे तो कहना था कि सभी मांगे मान रहे हैं। एमएसपी वाली मांग, बिजली अधिनियम में बदलाव की मांग समेत सभी मांगे मानते हुए उन्हें यह ऐलान भी करना था कि किसानों पर लगाए गए सभी केस वापस लिये जाएंगे। उन्होंने होमवर्क नहीं किया। किसानों के मन को नहीं समझा। कम से कम इतना बड़ा निर्णय लेने से पहले किसानों को भरोसे में लेते, चर्चा करते। मगर वो सब तो जैसे आता ही नहीं है। किसान जानते हैं कि इतना बड़ा और ऐसा एतिहासिक आंदोलन बार बार खड़ा नहीं होता। सरकार एक बार झुकी है तो सारी मांगे मनवानी ही होंगी। इस समय सरकार को जितना दबाया जा सकता है, उतना और कभी नहीं। इस दांव को इसलिए भी हम उल्टा पड़ना कह सकते हैं क्योंकि वो कैडर नाराज है, जो मोदी को भगवान से भी दो उंगल ऊपर समझता है। उस मासूम कैडर को यही समझाया गया था कि ये किसान नहीं गुंडे हैं और उसकी तकलीफ है कि आप गुंडों के समक्ष क्यों झुके? वो निराशा में बागी हो रहा है और उसे संभालना मुश्किल पड़ रहा है। मोदी के पिछले तमाम फैसलों की तरह यह फैसला भी ब्लंडर ही है। फायदा कम और नुकसान ज्यादा। ना किसान खुश, ना कैडर। किसान झूठा कह रहा है और कैडर कायर। छवि धूमिल हुई सो अलग। फर्क यह है कि अब तक उनके गलत निर्णयों से देश को नुकसान होता रहा है। यह पहली बार है जब सीधे भाजपा और खुद उन्हें नुकसान हो रहा है।
( लेखक स्वतंत्र लेखन करते हैं।)
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