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कृषि कानून: क्या राज्यों के चुनाव को देखते गद्दी के डर के मारे लिया गया फैसला

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डॉ. वेदप्रताप वैदिक, दिल्ली:

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि-कानूनों को वापस लेने की स्पष्ट घोषणा आखिर कर ही दी। इस घोषणा का हार्दिक स्वागत किया जाना चाहिए, क्योंकि यह घोषणा अभी नहीं होती तो उत्तर भारत की ठंड में पता नहीं कितने किसानों का और बलिदान होता। मेरी स्मृति में शायद भारत में आजादी के बाद कोई ऐसा आंदोलन नहीं हुआ, जिसमें 800 लोगों से भी ज्यादा की जानें गई हों। लाखों लोगों को तरह-तरह की अन्य असुविधाएं भी भोगनी पड़ीं। लाल किले के तिरंगे का भी अपमान हुआ। लोग पूछ रहे हैं कि इतना बड़ा फैसला सरकार ने क्या किसी के प्रति प्रेमभाव से लिया है? इसका सीधा उत्तर तो यही होगा कि सरकार ने यह फैसला न तो किसानों के प्रति प्रेमभाव से लिया है और न ही उनकी दृढ़ता से घबराकर लिया है। यह फैसला हुआ है, अपनी गद्दी के डर के मारे। अगले कुछ ही महिनों में लगभग आधा दर्जन राज्यों के चुनाव होनेवाले हैं। इनमें देश के बड़े और महत्वपूर्ण राज्य हैं। उनमें उल्टी हवा बहने लगी है। यदि उसका असर बढ़ गया और उत्तरप्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, हरयाणा तथा कुछ अन्य राज्य हाथ से निकल गए तो दिल्ली की गद्दी को नीचे से खिसकते देर नहीं लगेगी। याने अद्वैतवाद की भाषा का प्रयोग करुं तो सत्ता ही ब्रह्म है, बाकी जगत मिथ्या है।

कृषि-कानून सत्ता-संकट के डर से ही वापस हो रहे हैं लेकिन इनकी वापसी यह बताती है कि सरकार की अहंकारग्रस्तता थोड़ी घट रही है। किसानों का वोट-बैंक पटे या न पटे लेकिन इसका फायदा देश और मोदी को जरुर होगा। मोदी के भाषण में अपूर्व विनम्रता, मार्मिकता और विलक्षण शिष्टता थी। उनके भाषण में ज्यादा समय उन्होंने यह बताने में लगाया कि उनकी सरकार ने किसानों के फायदे के लिए अब तक क्या-क्या कदम उठाए। इसमें शक नहीं है कि पिछले 7 वर्षों में किसानों के फायदों के लिए जितने कदम इस सरकार ने उठाए हैं, पिछले किसी सरकार ने भी नहीं उठाए हैं लेकिन इस सरकार की जो कमियां अन्य कई बड़े फैसलों में दिखाई पड़ी है, वह ही इन कृषि कानूनों के बारे में भी दिखाई पड़ी है। जिस तरह के आनन-फानन फैसले भूमि-अधिग्रहण, नोटबंदी, फर्जीकल स्ट्राइक, गलवान घाटी और कृषि कानूनों के बारे में लिए गए, वे क्या बताते हैं? वे यही बताते हैं कि हमारे देश में नौकरशाहों के इशारे पर नेता नाच दिखाने लगते हैं। वे न तो विशेषज्ञों से राय लेते हैं, न विपक्षियों को घांस डालते हैं और न ही अपने मंत्रिमंडल और पार्टी-मंचों पर किसी मुद्दे पर खुलकर किसी बहस से लाभ उठाते हैं। यदि कृषि-कानूनों के बारे में यह सावधानी बरती जाती तो सरकार को आज यह शीर्षासन नहीं करना पड़ता लेकिन यह शीर्षासन इस सरकार के भविष्य के लिए बहुत शुभ और सार्थक सिद्ध हो सकता है। 

 


 

(लेखक दैनिक नवभारत टाइम्‍स के साथ न्‍यूज एजेंसी भाषा के संपादक रहे हैं। संप्रति भारतीय विदेश नीति और भारतीय भाषा सम्‍मेलन के अध्‍यक्ष के साथ स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।