सुभाष चन्द्र कुशवाहा, लखनऊ:
आज पहले दिन ही फ़िल्म "जय भीम" देख लिया। आदिवासियों के प्रति झूठे और फर्जी आपराधिक मामलों को दर्ज करने, प्रमोशन की लालच या केस सुलझाने के लिए बड़ों के दबाव में जांच के नाम पर बेगुनाह आदिवासियों को उठा लेने, पुलिस थानों में मारने, पीटने, अमानवीय व्यवहार करने, आँखों में मिर्ची डालकर झूठे जुर्म को स्वीकार कर लेने को बाध्य करने का जो अनैतिक दबाव इस फ़िल्म के माध्यम से सामने आता है, वह वर्षों से कुछ कम या ज्यादा, सामने है। न्याय, जांच और व्यवस्था का वर्गचरित्र नहीं बदला है। इस हकीकत की बानगी है यह "जय भीम" फ़िल्म। फ़िल्म की शुरुआत सेंगनी और उसके पति रासा कन्नू की फूस की झोपड़ी, प्रणय क्रीड़ा एवं उसी समय, बरसात में ढहती मिट्टी की दीवार के प्रतीकात्मक मगर जमीनी गरीबी की पृष्ठभूमि से होती है। इस फ़िल्म में वामपंथी आंदोलन की जनपक्षधरता, सामाजिक कार्यकर्ता मैत्रा द्वारा आदिवासियों को पढ़ाने, लिखाने, उनके हक हकूक के लिए आवाज उठाने की प्रासंगिकता को भी दिखाया गया है।
जनांदोलनों में आदिवासियों का शामिल होना भी पुलिस को अखरता है, फ़िल्म यह भी बताती है। एक सरपंच के घर सांप पकड़ने के लिए रासा कन्नू बुलाया जाता है। वह अपना काम निस्वार्थ करता है लेकिन सरपंच की पत्नी बाद में गहने चोरी की शिकायत करती है। पुलिस, निशानदेही के आधार पर झूठा आरोप, आदिवासियों पर दर्ज कर कन्नू सहित तीन आदिवासियों को नामजद कर उठा लेती है। आदिवासियों के हकों की हिफाज़त के लिए कोई वकील मिलना मुश्किल है। ठीक तभी, फ़िल्म का नायक युवा, कामरेड वकील चंद्रू, आदिवासी रासा कन्नू की पुलिस अभिरक्षा में मार पीट कर हत्या का पर्दाफाश करने में सफल होता है। यह सफलता कुछ हद तक चमत्कारिक भी है और अप्रत्याशित नहीं। कोर्ट से जांच का आदेश करा लेने में चंद्रू सफल होते हैं। पुलिस IG, पेरुमल सामी निष्पक्ष जांच कर चमत्कारिक ढंग से अपने विभाग के कुकृत्यों को खोलते हैं और अंततः इस मामले में न्याय होता दिखता है। विभिन्न स्तरों पर दबाव, हिंसा, लालच के यथार्थ का भी उपयोग किया गया है।
न्याय में अपराध में शामिल पुलिस वालों को सजा मिलती है। सेंगनी को आवास हेतु जमीन भी। यही फ़िल्म है, यही इसका फिल्मी समापन है। जाति नफरत के भाव, एक की जगह दो-दो केस ठोकने की पुलिसिया नीति इस फ़िल्म में साफ-साफ उभरी है। जहां अधिकांश पुलिसकर्मियों की हैवानियत इस फ़िल्म में उभरती है वहीं दो पुलिसवालों की ईमानदारी भी फ़िल्म का हिस्सा बनती है। गर्भवती सेंगनी का संघर्ष, साथ में उसकी 5-6 वर्ष की बच्ची की पीड़ा, फ़िल्म को आगे बढ़ाती है। जय भीम, कुलमिलाकर देखने योग्य एक जरूरी फ़िल्म है जो भारतीय जातिवादी समाज व्यवस्था की उस तस्वीर को प्रस्तुत करती है, जहां आदिवासियों को स्वतः अपराधी मान लिया जाता है । उनका जन्म लेना अपराध हो जैसे। तमिलनाडु में इस फ़िल्म की शूटिंग और निर्माण, वंचितों के अन्याय का फिल्मांकन, दृश्य और फिल्मांकन बेजोड़ है। अम्बेडकर की प्रासंगिकता की ओर फ़िल्म जरूरी इशारा करती है। इस फ़िल्म के निर्माता/निर्देशक को बहुत बधाई।
फिल्म: जय भीम
निर्देशक: टी. जे. ज्ञानवेल
कास्ट: सूर्या, प्रकाश राज, राव रमेश, रजीशा विजयन, मणिकंदन और लीजोमोल जोस
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(यूपी सरकार की उच्च सेवा से रिटायर्ड अफसर सुभाष चंद्र कुशवाहा लेखक, इतिहासकार और संस्कृतिकर्मी हैं। आशा, कैद में है जिन्दगी, गांव हुए बेगाने अब (काव्य संग्रह), हाकिम सराय का आखिरी आदमी, बूचड़खाना, होशियारी खटक रही है, लाला हरपाल के जूते और अन्य कहानियां (कहानी संग्रह) और चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन (इतिहास) समेत कई पुस्तकें प्रकाशित। कई पत्रिकाओं और पुस्तकों का संपादन। संप्रति लखनऊ में रहकर स्वतंत्र लेखन। )
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