रवीश कुमार, दिल्ली:
कश्मीरी पंडित और स्थानीय नागरिकों की हत्या को लेकर सवाल मुझसे करें, उनसे नहीं। कश्मीर में नागरिकों की हत्या को आप किस तरह से देखते हैं यह इस पर निर्भर करता है कि आप किस तरह से देखना चाहते हैं। अगर आपने तय कर लिया है कि ऐसे ही देखना है तब फिर देखने की भी क्या ज़रूरत है। आतंकवादी हत्या करने में किसी का मज़हब नहीं देख रहे हैं, लेकिन हत्या की राजनीति का बंटवारा मज़हब के हिसाब से किया जाने लगा है। जब भी कश्मीर में कुछ होता है यूपी बिहार की राजनीति के लिए मसाला तैयार किया जाने लगता है। कहां तो सबको पूछना था कि आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए लाई गई नोटबंदी का क्या हुआ? आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए धारा 370 की समाप्ति का क्या असर हुआ? क्यों कश्मीर में आतंकवादी आम नागरिकों की हत्या कर रहे हैं? अगर सरकार आतंक को समाप्त करने का श्रेय लेती है तो नए आतंकी संगठन के उभर आने और आतंकी हमलों के बढ़ने की ज़िम्मेदारी लेने सामने क्यों नहीं आती है?
पिछले एक साल में कश्मीर में आतंकवादियों ने 28 नागरिकों की हत्या की है। इनमें आम नागरिक हैं, शिक्षक हैं, पंचायत के सदस्य हैं। इनमें से 21 मुसलमान हैं। इन 28 लोगों में से 21 मुसलमान हैं। 7 ग़ैर मुसलमान हैं। पिछले हफ्ते सात लोगों की हत्या हुई है। जिनमें से तीन मुसलमान हैं। एक कश्मीरी पंडित और एक सिख हैं। दो कश्मीर से बाहर के हैं। दोनों ही दलित हैं। आतंकवादियों ने इनकी हत्या इसलिए की क्योंकि उनके अनुसार ये लोग सरकार की मुखबिरी कर रहे थे। आतंक से लड़ रहे थे। इसमें शिक्षक हैं। पुलिस बल में काम करने वाले लोग हैं और पंचायत के सदस्य हैं। आतंक के ख़िलाफ़ इनकी शहादत का व्यापक महत्व है। उन्होंने कश्मीरी मुसलमानों के लिए भी जान दी और कश्मीरी पंडितों के लिए भी। आतंकियों द्वारा मुसलमानों और कश्मीरी पंडितों की हत्या को आग अलग अलग खांचे में नहीं बांट सकते।आतंकवादियों ने 2019 में 36 और 2020 में 33 नागरिकों की हत्या की है। इनमें से ज़्यादा मुसलमान हैं। किसी ने सुध नहीं ली कि कश्मीर में क्या हो रहा है। क्यों आतंकी आम नागरिकों की हत्या कर रहे हैं?
पिछले हफ्ते श्रीनगर में आतंकवादियों के उसी नए गुट टी आर एफ ने मजीद अहमद गोजरी और मोहम्मद शफी लोन की हत्या कर दी। घाटी का कोई नेता दोनों के घर नहीं गया। क्या आई टी सेल ने इन्हें देश के लिए मरने वालों के रुप में याद किया? क्या उसकी नज़र में आतंक से लड़ने वाले नागरिकों का कोई महत्व नहीं है? दूसरी तरफ यह अच्छी बात है कि कश्मीरी पंडित और सिख शिक्षिका की हत्या होने पर सभी आगे गए। सुपिंदर कौर और उनके सहयोगी दीपक चांद की हत्या कर दी। हिन्दू अख़बार ने लिखा है कि स्कूल में काम करने वाले मुस्लिम सहयोगियों ने अल्पसंख्यक सहयोगियों को घर तक छोड़ा। माखन लाल बिन्द्रू के घर स्थानीय लोग बड़ी संख्या में पहुंचे और श्रद्धांजलि दी। उनके ग्राहक भी उनके लिए आए। बिन्द्रू के घर फारुक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती भी। फारुक अब्दुल्ला ने कहा कि शैतानों ने हत्या की है। बिन्द्रू की बेटी ने कहा कि वे घाटी छोड़ कर जाने वाली नहीं हैं। आतंकवादी उनके पिता की हत्या कर सकते हैं, उनकी सोच को नहीं। कई कश्मीरी पंडितों ने कहा कि बिन्द्रू की हत्या उन पर निजी हमले की तरह है। तीन तीन पीढ़ियों से उनके यहां से दवाई लेते आए हैं। कोई इस हत्या को लेकर आतंकवादियों के साथ नहीं है। जम्मू कश्मीर के पुलिस अधीक्षक दिलबाग सिंह का बयान छपा है कि घाटी के सभी तबके ने इस हत्या की निंदा की है।
कई लोगों ने पूछा कि क्या वहां के आम मुसलमानों ने कश्मीरी पंडितों की हत्या के खिलाफ जुलूस निकाला। प्रदर्शन किया? इसका जवाब हां या ना में मांगने से पहले देखिए कि वहां 5 अगस्त 2019 के बाद से प्रदर्शन करने का राजनीतिक और सामाजिक ढांचा किस तरह से ख़त्म कर दिया गया। जब यह सब ख़त्म किया जा रहा था तब आप ही इसका समर्थन कर रहे थे। आतंकवादियों ने सरकार का साथ देने के शक के आधार पर 21 मुसलमानों की हत्या कर दी। उनके लिए भी कोई जुलूस नहीं निकला। क्यों नहीं निकला, इस प्रश्न पर आप ज़रा विचार करें। अगर उनके लिए निकला होता और फिर कश्मीरी पंडितों के लिए नहीं निकलता तो आप कह सकते थे कि स्थानीय लोग कश्मीरी पंडितों के साथ नहीं है। आपने देखा कि कश्मीर के नेता मजीद और शफी के घर नहीं जाते हैं, बिन्द्रू और कौर के घर जाते हैं। अल्पसंख्यक को भरोसा देने के लिए विशेष रुप से पहल करनी ही चाहिए जो कश्मीर के नेताओं ने किया। हत्या करने वाले आतंकी संगठन टी आर एस ने चेतावनी दी है कि कोई भी सरकार की मदद करेगा, चाहे वह किसी धर्म का हो, नहीं छोड़ा जाएगा। चाहे वह बाहरी हो या भीतरी। जम्मू कश्मीर के पुलिस अधीक्षक दिलबाग सिंह ने कहा है ( हिन्दू अख़बार) कश्मीर के स्थानीय मुसलमानों को बदनाम करने के लिए हत्याएं हो रही हैं। बेकसूर नागरिकों को मार कर कश्मीर के भाईचारे पर हमला किया जा रहा है।
कश्मीरी पंडितों की हत्या का अपना एक ऐतिहासिक और राजनीतिक महत्व है। बेशक आतंकवादियों ने 21 मुसलमानों की हत्या कर दी क्योंकि वे आतंक के खिलाफ सरकार के साथ थे लेकिन कश्मीरी पंडित की हत्या को संख्या से अलग हट कर देखना चाहिए। एक कश्मीरी पंडित की हत्या भी हज़ारों कश्मीरी पंडित की हत्या के समान है क्योंकि इस हत्या से 1990 के दौर के ख़ौफनाक मंज़र सामने आ गए हैं। आशंकाएं बढ़ गई हैं कि कहीं फिर से ऐसा तो शुरू नहीं होगा। घाटी में रहने वाले कश्मीरी पंडितों और सिखों के बीच असुरक्षा की भावना फैल गई है। एक सप्ताह से सिख और पंडित मुलाज़िम काम पर नहीं गए हैं। वे घरों से नहीं निकल पा रहे हैं। इसलिए माखन लाल बिंद्रू और सिख शिक्षिका सुपिंदर कौर की हत्या को हम संख्या के आधार पर नहीं देख सकते। वे सुरक्षित महसूस करें इसकी ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार और वहां की सरकार की है। कश्मीर में क्या हो रहा है, इसकी जानकारी बाहर कम आ रही है। मुख्यधारा का मीडिया वहां अब नहीं है। वहां को लेकर सरकार का प्रोपेगैंडा चलता है लेकिन उससे हालात नहीं बदलते। क्या आपको पता है कि बीजेपी के नेता और पंचायत सदस्य राकेश पंडिता की हत्या हुई तो उनके परिवार को 45 लाख मुआवज़ा मिला, लेकिन बीजेपी के ही मुस्लिम पंचायत सदस्य की हत्या हुई तो पांच लाख मुआवज़ा मिला? क्या ऐसा किया जाना सही है? मुआवज़े की इस तरह की राजनीति से सरकार समाज को किस तरह से बांट रही है?
आतंकवादियों ने दो दलित मज़दूरों की भी हत्या कर दी, जो कश्मीर के बाहर से थे। भागलपुर के वीरेंद्र पासवान की हत्या हुई तो उनका पार्थिव शरीर परिवार को नहीं सौपा गया। परिवार ने अंतिम दर्शन तक नहीं किया और कश्मीर में ही अंतिम संस्कार कर दिया गया। वीरेंद्र पासवान के साथ आतंकवादियों ने ही नहीं बल्कि सरकार ने भी वैसी ही क्रूरता की। किसी ने उनके साथ हुई नाइंसाफी को लेकर रवीश कुमार से नहीं पूछा कि वो क्यों चुप है? क्या सरकार ने वीरेंद्र पासवान के साथ ठीक किया? क्या सरकार उनके पार्थिव शरीर को भागलपुर नहीं पहुंचा सकती थी? क्या मेरी चुप्पी को पूछने वाले सरकार से यह सवाल कर रहे हैं? हमें देखना चाहिए कि स्थानीय प्रशासन किस तरह लोगों में विश्वास बना रहा है या अविश्वास की नई रेखाएं खींच रहा है। मीडिया में छपी कई रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि उन लोगों से वेबसाइट पर शिकायत दर्ज कराने के लिए कहा गया है जिन्हें लगता है कि उन्हें अपनी ज़मीन बेचने के लिए मजबूर किया गया। 1997 में फारुक अब्दुल्ला ने डिस्ट्रेस सेल एक्ट बनाया था लेकिन वह कानून कभी अमल में नहीं आया। नए प्रशासन ने वेबसाइट बनाकर लोगों से शिकायत दर्ज कराने की बात कहीं। हमारे सहयोगी नज़ीर ने बताया कि कई ज़िलों में बड़ी संख्या में शिकायतें फर्ज़ी पाई गई हैं। कई शिकायतों में यह भी बात निकल कर आई है कि ज़्यादातर ज़मीन की बिक्री के मामले में पावर ऑफ एटार्नी जम्मू में बनी है। घाटी में रहने वाले स्थानीय पंडितों की शिकायतें नहीं हैं। जिसने ज़मीन ख़रीदी थी वह भी कई लोगों को ज़मीन बेच चुका है तो ख़रीदार से नई कीमत वसूलने का यह काम उलझ गया है। स्थानीय स्तर पर इस कारण बन रहे असंतोष को आतंकवादी हवा दे रहे हैं। इस बारे में बहुत जानकारी इस बारे में नहीं है लेकिन पत्रकारों ने कहा कि नए हमलों के बीचे इन कारणों को भी देखा जा रहा है।
दावा किया गया था कि धारा 370 ख़त्म होने पर विकास की नई हवा बहेगी जो आतंक की हवा को ख़त्म कर देगी। नौकरी देने से लेकर तमाम वादों की समीक्षा बाकी है। पचास हज़ार नौकरियां देने का वादा हवा में ही लटका है। हाल की हत्याओं के बाद कई सौ लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है। यह बताता है कि सरकार किस तरह काम कर रही है। यह बता रहा है कि सरकार भी ख़ौफ के साये में है। वहां कानून व्यवस्था की प्रक्रिया नहीं बन पाई है। एक तरफ यूपी में एक मंत्री के बेटे को गिरफ्तार करने में पुलिस को इतने दिन लग जाते हैं, मंत्री जी ब्राह्मण समाज की राजनीति करने लगते हैं, दूसरी तरफ कश्मीर में हत्या के आरोप में कई सौ लोग गिरफ्तार कर लिए जाते हैं। कश्मीर की घटनाएं बता रही हैं कि वहां पर अवाम और जवान दोनों सुरक्षित नहीं हैं। आज ही पुंछ में आतंकी हमले में कई जवान शहीद हो गए। ट्रांजिट कैंप में कश्मीरी पंडित कैदियों का जीवन जी रहे हैं। आतंकी आम लोगों पर शक कर रहे हैं कि सरकार से मिला है, सरकार आम लोगों पर शक कर रही है कि आतंकी से मिला है।भरोसा बनाने की बात हो रही है लेकिन वह भरोसा दिख नहीं रहा है। पाकिस्तान से आतंक की हवा तो कब नहीं चली लेकिन उसे सबक सीखा देने, काबू में कर लेने के दावों का क्या हुआ। इतना सब हो ही गया था तो फिर नया आतंकी संगठन कहां से आ गया।
हिन्दी अख़बारों, चैनलों और व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी के फैलाए जा रहे भ्रामक और ज़हरीले प्रोपेगैंडा से सावधान रहिए। कश्मीर पर कोई चुप नहीं है। कश्मीरी पंडितों की हत्या और असुरक्षा की भावना पर सबने बोला है और निंदा की है। पंडितों में सुरक्षा की भावना पैदा करने की ज़िम्मेदारी मोदी सरकार की है।यूपी बिहार में कश्मीर को लेकर कुछ प्रोपेगैंडा चला देना, कश्मीर की नीतियों को सफलता नहीं है। इन मामलों में बोलने का काम प्रधानमंत्री मोदी का है। क्या उन्होंने कश्मीरी पंडितों को भरोसा दिलाने के लिए कुछ बोला है? चार किसानों को कुचल कर मार दिया गया, बीजेपी के दो कार्यकर्ता मार दिए गए, एक पत्रकार और ड्राईवर की हत्या हुई लेकिन प्रधानमंत्री नहीं बोले। कश्मीरी पंडितों पर ही ललकार देते। क्या आई टी सेल ये सवाल पूछ रहा है या आपको समझा रहा है कि रवीश कुमार क्यों चुप है? क्या आई टी सेल ने या आपने जानने की कोशिश कि पिछले सात सालों में कश्मीरी पंडितों के साथ क्या अलग हुआ? क्या नरेंद्र मोदी की चुप्पी की भरपाई रवीश कुमार को करनी होगी? सीधी सी बात है कि कश्मीर में मोदी सरकार का प्रोपेगैंडा दांव पर है। नीतियाँ होती हैं तो काम कर रही होतीं।
नोट- इसके लिए हिन्दू अखबार में छपी विजेता सिंह और पीरज़ादा आशिक़ की सारी रिपोर्ट पढ़ डाली। हमारे चैनल के लिए नज़ीर मसूदी की सारी रिपोर्ट देखी। नज़ीर मसूदी ने कई रिपोर्ट की है। तब जाकर इतनी जानकारियों तक पहुंचा, यकीनन और भी बातें होंगी लेकिन आप जो हर बात में हिन्दू मुस्लिम करने में प्रशिक्षित हो गए, क्या इतनी बातें जान पाए थे।
( रेमन मैगसेसे पुरस्कार के अलावा गणेश शंकर विद्यार्थी, रामनाथ गोयंका, इंडियन टेलिविजन और कुलदीप नैयर पुरस्कार से सम्मानित रवीश मशहूर टीवी पत्रकार हैं। प्रकाशित पुस्तक इश्क में शहर होना, देखते रहिये, रवीशपन्ती, द फ्री वॉइस: ऑन डेमोक्रेसी, कल्चर एंड द नेशन, बोलना ही है : लोकतंत्र, संस्कृति और राष्ट्र के बारे में। संप्रति NDTV में संपादक।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। सहमति के विवेक के साथ असहमति के साहस का भी हम सम्मान करते हैं।
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