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विवेक का स्‍वामी-11: भविष्य के लिए युवकों के बीच धीरज के साथ मजबूती से चुपचाप काम करें

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कनक तिवारी, रायपुर:

विवेकानन्द ऐलानिया तौर पर जातिव्यवस्था का खात्मा करने के पक्ष में रहे हैं। वे हर तरह की सामाजिक बुराई से लड़ते उसे नष्ट ही तो करना चाहते थे। उसकी सोहबत में रहना उन्हें कबूल नहीं था। इसके साथ साथ उन्होंने जातिप्रथा के उद्भव को लेकर अन्वेषण उपनिषदों के उद्धरणों में से ढूंढकर किया था। उसे मौजूदा समाजविज्ञान के लिटमस टेस्ट के जरिए ही समझना मुश्किल होगा। (वि.सा. 5/128 और 5/144)। नरेन्द्रनाथ की तरुण समझ में खानपान से धर्म या मजहब का कोई रिश्ता नहीं था। श्रीरामकृष्णदेव से बाकी शिष्यों से अलहदा नरेन्द्र का उनसे बेतकल्लुफ रिश्ता था। एक बार उन्होंने कहा ‘गुरुदेव मैंने आज वह सब खा लिया है। जिसकी धार्मिक लोगों के लिए मनाही है।‘ अद्भुत रहस्यमय, आध्यात्मिक गुरु ने ताड़ लिया कि शिष्य मासूम भाव से दुनियावी मकड़जाल के ऊपर उठकर पारदर्शी बात कह रहा है। उन्होंने जवाब दिया कि कोई बात नहीं, इससे तुमको कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यदि कोई व्यक्ति ईश्वर में ध्यान केंद्रित रखकर गोमांस या सुअर का मांस भी खाता है, तो उसके लिए वह भोजन हविश अन्न की तरह पवित्र है। कोई अगर सांसारिकता की बुराइयों में लिप्त रहे। उसके लिए तो वही भोजन गोमांस या सुअर के मांस के बराबर है। यदि तुमको छोड़कर किसी अन्य शिष्य ने ऐसा किया होता, तो मैं बर्दाश्त नहीं करता कि वे मुझे छू भी लें। (दि लाइफ आफ स्वामी विवेकानंद बाइ हिज़ ईस्टर्न एंड वेस्टर्न डिसाइपल्स खंड 1, पृष्ठ 93)। 

 


             

नरेन्द्र के पिता कलकत्ता के प्रमुख वकीलों में थे। उनसे मिलने रोज नामचीन मुअक्किल भी आते थे। वकील की व्यस्तता के कारण मुअक्किल अपनी बारी का इंतजार करते, (सुविधा के लिए अलग अलग रखे गए अपने अपने धर्म/जाति के अनुसार) हुक्का पीने लगते थे। नरेन्द्र में उत्सुकता होती ये लोग अलग अलग हुक्का क्यों पीते हैं? एक ही हुक्का पी लेते तो क्या दिक्कत होती? क्या छत उन पर गिर पड़ती? क्या वे यकबयक मर जाते? पिता की गैरहाजिरी में नरेन्द्र ने एक के बाद एक हुक्के से कश लगाना शुरू किया। अचानक वहां आ गए पिता ने देखकर सवाल किया ‘यह क्या हो रहा है?‘ पुत्र ने जवाब दिया मैं ये सब हुक्के पीकर देख रहा था कि क्या मैं अपनी जाति तो नहीं तोड़ रहा हूं? वह तो नहीं टूटी।‘‘ विश्वनाथ दत्त ठहाका लगाकर मानो काल्पनिक हुक्का पीने लगे। (दि लाइफ आफ स्वामी विवेकानन्द पृष्ठ 231)।

 

 

श्रीमती सरला घोषाल को लिखे पत्र में विवेकानन्द ने अभिव्यक्त किया है। ’’भारतवर्ष के अमीरों से हमें कुछ भी उम्मीद नहीं है। इसलिए बेहतर यही है कि हम भविष्य की आशा लिए अपने युवकों के बीच धीरज के साथ, मजबूती से चुपचाप काम करें। भारत के सत्यानाश का मुख्य कारण यही है कि देश की सम्पूर्ण विद्या-बुद्धि राज शासन और दम्भ के बल से मुट्ठी भर लोगों के एकाधिकार में रखी गई है। हमें फिर से उन्नति करनी है तो हमको उसी राह पर चलना होगा, अर्थात् जनता में शिक्षा का प्रसार करना होगा। आधी सदी से समाज सुधार की धूम मच रही है। मैंने दस वर्षों तक भारत की अलग जगहों में घूमकर देखा कि देश में समाजसुधारक संस्थाओं की बाढ़ सी आई है। लेकिन जिनका खून चूसकर हमारे ‘भद्र लोग’ अपना यह खिताब हासिल कर रहे हैं। उन बेचारों के लिए एक भी संस्था नज़र नहीं आई!  मुसलमान कितने सिपाही लाए थे? यहां अंग्रेज़ कितने हैं? चांदी के कुछ सिक्कों के लिए अपने बाप और भाई के गले पर चाकू फेरने वाले लाखों आदमी सिवा भारत के और कहां मिल सकते हैं? सात सौ वर्षों के मुसलमान शासन में छः करोड़ मुसलमान, और सौ वर्षों के ईसाई राज्य में बीस लाख ईसाई क्यों बने? मौलिकता ने देश को क्यों बिल्कुल त्याग दिया है? क्यों हमारे काबिल शिल्पी यूरोप वालों के साथ बराबरी करने में असमर्थ होकर दिनों दिन गायब होते जा रहे हैं?(वि. सा. 6/310)


 
विवेकानन्द ने कहा थाः ‘यदि एकाध असाधारण मनुष्य शूद्रकुल में कभी उत्पन्न भी होता है। तो उच्च वर्ण तुरन्त उसे उपाधियां देकर अपनी मण्डली में खींच लेते। फिर उसकी विद्या का प्रभाव और धन का हिस्सा दूसरी जातियों के काम आता। उनके सजातीय उसकी विद्या, बुद्धि और धन से कुछ भी लाभ नहीं उठा पाते। इतना ही नहीं, बल्कि कुलीनों के निकम्मे लोग कूड़ा कर्कट की तरह निकाल कर शूद्र कुल में मिला दिए जाते थे।..... वेश्यापुत्र वशिष्ठ और नारद, दासीपुत्र सत्यकाम जाबाल, धीवर व्यास, अज्ञातपिता कृप, द्रोण और कर्ण आदि सबने अपनी विद्या या वीरता के प्रभाव से ब्राह्मणत्व या क्षत्रियत्व पाया था। लेकिन इससे वेश्या, दासी, धीवर या सारथिकुल का क्या लाभ हुआ? यही सोचने का विषय है। (वि.सा. 9/220)। भारत के मिथकीय इतिहास में विश्वामित्र और परशुराम ने भी इन्हीं कारणों से महारत हासिल की है। यह अलग बात है कि प्रोेलेतेरियत वर्ग के लोग सत्ता हासिल करने के बाद वर्गीय विषमताओं के बावजूद बूर्जुआ वर्ग के हिस्सेदार भी बन जाते हैं। फिर अपने ही वर्ग की निचले पायदान पर खड़े लोगों के शोषक हो जाते हैं। यह सब विवेकानन्द के वक्त पूरी तौर पर घटित नहीं हुआ होगा। बाद में तो हुआ ही हुआ।

 

विवेक का स्‍वामी-1:  विवेकानंद की दुनिया और हिन्दुत्व

विवेक का स्‍वामी-2: शिकागो धर्म संसद में जिरह के दो तयशुदा दुनियावी नतीजे निकले

विवेक का स्‍वामी-3: वेदांत और सूफी दर्शन को समाहित नए सांस्कृतिक आचरण की पैरवी

विवेक का स्‍वामी-4: धार्मिक निजी पहचान क़ायम रखते हुए भी परस्‍पर धर्मों में आपसी सहकार संभव

विवेक का स्‍वामी-5: विवेकानन्द हिन्दू ही नहीं, भारत के सभी मज़हबों के प्रेरक प्रज्ञापुरुष

विवेक का स्‍वामी-6: स्‍वामी विवेकानन्द ने अपनी किस्म की सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की बुनियाद डाली

विवेक का स्‍वामी-7: आत्‍मविश्‍वास की कमी के कारण अपनाए जाते हैं पाखंड और जादू-टोना के हथकंडे

विवेक का स्‍वामी-8: धर्माचरण में जनपक्षधरता के सबसे  अधिक समर्थक रहे स्‍वामी विवेकानंद

विवेक का स्‍वामी-9: सच्चे अर्थों में शिक्षित होने से ढकोसलों और रूढ़ियों से मिलेगी मुक्‍ति

विवेक का स्‍वामी-10: विवेकानंद ने कहा था, दलित ही इस देश की रीढ़ की हड्डी

(स्‍वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।