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विवेक का स्‍वामी-6: स्‍वामी विवेकानन्द ने अपनी किस्म की सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की बुनियाद डाली

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कनक तिवारी, रायपुर:

धर्मों की विवेकानन्द की समझ से इतिहास लगातार जिरह कर रहा है। हिन्दुस्तान की व्यापक धार्मिक समझ रही है कि उनका हिंदू या सनातन धर्म या वेदांत केवल मजहब शब्द का समानार्थी नहीं है। वह जनता, संस्कृति तथा सभी लोगों को मिलेजुले विश्वास का हलफनामा है। उसमें संसार के सभी धर्मों के लोगों के विश्वासों को आत्मसात करने, स्वीकार करने की स्वाभाविक उत्कंठा और क्षमता है। यही धर्म की भारतीय समझ है। शिकागो धर्म सम्मेलन में विवेकानन्द के ऐसे ही कथन पर तो तालियां बजी थीं। वही तो उस पूरे धर्म सम्मेलन का क्लाइमैक्स या भविष्य की इबारत हो गया। विवेकानन्द ने (हां केवल विवेकानन्द ने) धर्म और सेक्युलरिज़्म, पारलौकिक और इहलौकिक शब्दों के रिश्ते का नये संदर्भ में खुलासा किया है। वह हमारी कानूनी इबारत की समझ से परे है। विवेकानन्द ने अपनी किस्म की सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की बुनियाद डाली। विवेकानन्द अपनी एशियाई भी समझ के तहत केवल पश्चिमी गोलार्द्ध ही नहीं चीन और जापान जैसे महत्वपूर्ण पूर्वी देषों में भी गए। जापान की कर्मठता देखकर वे बेहद प्रभावित हुए थे। 

 

 

10 जुलाई 1893 को योकोहामा से अपने प्रिय शिष्य आलासिंगा को पत्र लिखकर विवेकानन्द ने आलसी, निष्क्रिय, पस्तहिम्मत और अंधकार की दुनिया में जी रहे देशवासियों को लताड़़ भी लगाई। उन्होंने लिखा ‘‘जापानियों के बारे में जो कुछ मेरे मन में है। वह सब मैं इस छोटेे पत्र में लिखने में असमर्थ हूं। मेरी केवल यह इच्छा है कि हर साल मुनासिब संस्था में हमारे नवयुवकों को चीन और जापान जाना चाहिए। जापानी लोगों के लिए आज भारत उच्च और श्रेष्ठ तत्वों का स्वप्न राज्य है। तुम लोग क्या कर रहे हो?.....जीवन भर केवल बेकार बातें किया करते हो। व्यर्थ बकवास करनेवालो! तुम लोग क्या हो? जाओ, इन लोगों को देखो और उसके बाद जाकर शर्म से मुंह छिपा लो। सठियाई बुद्धिवालो! देश से बाहर निकलते ही तुम्हारी तो जाति चली जाएगी! अपनी खोपड़ी में वर्षों के अन्धविश्वास का निरन्तर बढ़ रहा कूड़ा कर्कट भरे बैठे, सैकड़ों वर्षों से केवल खानपान के छुआछूत के विवाद में ही अपनी सारी ताकत बरबाद करनेवालों, युगों के सामाजिक अत्याचार से अपनी पूरी मानवता का गला घोटनेवालों, भला बताओ तो सही, तुम कौन हो? तुम इस समय कर ही क्या रहे हो?.....किताब हाथ में लिए तुम केवल समुद्र के किनारे भटक रहे हो। यूरोपियनों के मस्तिष्क से निकली हुई इधर उधर की बातों को लेकर बिना समझ के दुहरा रहे हो। तीस रुपये की मुंशीगिरी के लिए अथवा बहुत हुआ, तो एक वकील बनने के लिए जी जान से तड़प रहे हो। यही तो भारत के नवयुवकों की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा है। इस पर इनके झुण्ड के झुण्ड बच्चे पैदा हो जाते हैं, जो भूख से तड़पते हुए उन्हें घेरकर ‘रोटी दो, रोटी दो‘ चिल्लाते रहते हैं! क्या समुद्र में इतना पानी भी नहीं है कि तुम उसमें विश्वविद्यालय के डिप्लोमा, गाउन और पुस्तकों समेत डूब मरो?‘‘ 

 

 

विवेकानन्द को समझने के लिए उनकी दृष्टि के विकास के अलग अलग सोपान देखने होते हैं। एक दृष्टि वह जो अमेरिका जाने से पहले की है। दूसरी शिकागो धर्म सम्मेलन के साथ अमेरिका और यूरोप की उनकी दो यात्राएं जिसमें यूरोप के इंग्लैंड फ्रांस इटली वगैरह देश भी शामिल हैं। तीसरी समझ वह जो विदेश प्रवास से लौटकर लगभग दो तीन साल भारत के चप्पे चप्पे की यात्रा उन्होंने की। उसे एक धरतीपुत्र के ऊध्र्व आयाम पर तेज गति से विकसित होने का सफर कहा जाए। उसके बाद ही रामकृष्ण मिशन की स्थापना का ख्याल उनके मन में आया। उसे उन्होंने बहुत कम समय में ही साकार किया।विवेकानन्द उन्नीसवीं सदी के अन्य समकालीन सांस्कृतिक अध्येताओं से जुदा होकर अलग तरह की मौजूदगी इतिहास में तलाशते रहे हैं। हिन्दुइज़्म की प्रचलित रूढ़ मान्यताओं और प्रस्थापनाओं में पैठ गए विकारों को नकारना और हुक्मनामों की समकालीन व्याख्या करते मनुष्य जीवन गति से संगति बिठाना विवेकानन्द के अनोखे उपजाऊ सोच का प्रकाशन है। उनके लिए हिन्दू धर्म केवल दैहिक मुक्ति की कल्पना, धार्मिक श्लोकों का जुबानी जमा खर्च और जीवन की चुनौतियों से पलायन की धर्मशाला नहीं रहा है। उन्होंने धर्म के संदेश को सामाजिक हथियार के रूप में सफलतापूर्वक हासिल किया। उसे अपनी आत्मा की धमनभट्ठी में पकाकर मुफलिसों का रक्षाकवच ही नहीं हमलावर हथियार भी बनाना चाहा। 

 

 

धर्म का इस तरह लचीला लेकिन व्यापक मनुष्य लोक हो भी सकता है-यह विवेकानन्द के समकालीन भारत में तो क्या इक्कीसवीं सदी में भी एक अबूझा विकल्प हिन्दू ज्ञानशास्त्र की पारंपरिक जिल्दों में दर्ज नहीं हो पा रहा। विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म की बौद्धिक व्याख्याओं को अकादेमिक तेवर प्रदान करने के बावजूद धार्मिक कुरीतियों, सामाजिक चोचलों तथा पुरोहित और ब्राह्मण वर्ग की लुभावनी साजिषों का पर्दाफाश किया। वे हिन्दू धर्म की बुनियादी जीवनी षक्ति को लेकर असमंजस में कभी नहीं रहे। बार बार ऐलान करते रहे कि वेदांत और अद्वैत की दूरमारक रचनात्मक शक्तियों का व्यावहारिक जीवन में भी इस्तेमाल करना सामाजिक संवेदनाओं के धरातल पर उतना ही कारगर होगा। उन्होंने समकालीन समाज सुधारकों को लेकर फतवा भी जारी किया कि वे केवल यूरोपीय दृष्टि से अपने समाज की जड़ताओं को देखकर उसके झांसे में आकर सुधारक बनने का नकाब ओढ़े हुए हैं।

 

( जारी )

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(स्‍वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।