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साबरमती का संत-8: जब देश आज़ाद हो रहा था तब गांधी सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए अनशन पर थे

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है,  आठवीं किस्त -संपादक। )

द फॉलोअप टीम,  एडिट डेस्‍क:
लंबे संघर्ष के बाद देश को अंग्रेजी दासता से मुक्ति मिली थी। हालांकि विभाजन का एक दर्द भी था। स्वतंत्रता की लड़ाई में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। जैसे-जैसे वो एतिहासिक दिन क़रीब आ रहा था, फिजा में अजब माहौल था। आखिर यह सुनिश्चित हो गया कि देश 15 अगस्त को आज़ाद होगा। ऐसे अवसर पर महात्मा  गांधी न हों, ऐसा कैसे संभव था। पंडित जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने महात्मा गांधी को पत्र भेजा। जिसमें लिखा था, "15 अगस्त हमारा पहला स्वाधीनता दिवस होगा। आप राष्ट्रपिता हैं। इसमें शामिल हो अपना आशीर्वाद दें।"

 

दिल्ली से हज़ारों किलोमीटर दूर नोआखली में थे गांधी

लेकिन आपको जानकर हैरत होगी कि जिस स्वाधीनता आंदोलन का महात्मा गांधी ने नेतृत्व किया था, उसी की आजादी के जश्न में 15 अगस्त, 1947 को वो शामिल नहीं हुए। इसका कारण था, बंटवारे के बाद देश में फैल गए हिंदू-मुस्लिम दंगे। गांधी इससे बहुत आहत थे। उस 15 अगस्त को महात्मा गांधी दिल्ली से हज़ारों किलोमीटर दूर बंगाल के नोआखली में थे। वहां भयानक हिंसा हो रही थी। गांधी इसे हर हाल में रोकना चाहते थे। आखिर सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए वो अनशन पर बैठ गए। वहीं पंडित नेहरु और सरदार पटेल को पत्र के जवाब में लिख भेजा, "जब कलकत्ते में हिंदु-मुस्लिम एक दूसरे की जान ले रहे हैं, ऐसे में मैं जश्न मनाने के लिए कैसे आ सकता हूं। मैं दंगा रोकने के लिए अपनी जान दे दूंगा।"

 

 

एक दिन पहले गांधी ने नेहरू का भाषण भी नहीं सुना
गांधी का अंत तक प्रयास रहा कि देश का विभाजन न हो। हालांकि पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस 14 अगस्त को माना जाता है। लेकिन 15 अगस्त तक भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा रेखा तक तय नहीं हो सकी थी।  इसकी घोषणा 17 अगस्त को की गई थी। गांधी तो शुरू से ही मर्माहत थे। जब 14 अगस्त की मध्यरात्रि को वायसराय लॉज (अभी राष्ट्रपति भवन) में जवाहर लाल नेहरू ने ऐतिहासिक भाषण दिया था, गांधी वहां भी मौजूद न थे। इस भाषण को दुनिया में 'ट्रिस्ट विद डेस्टनी' के नाम से जाना जाता है। इसका प्रसरण रेडियो से विश्वाभर में हुआ था।

 

नेहरू ने 16 अगस्ता को लाल क़िले से फहराया था झंडा
पंद्रह अगसत आने से पहले ही लाल किले की साज-सज्जा आरंभ हो जाती है। देश के प्रधानमंत्री वहां ध्वजारोहण करते हैं। इसके बाद उनका भाषण होता है। यह परंपरा चली आ रही है। लेकिन जब देश 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ तो पहले प्रधानमंत्री बने पंडित नेहरू ने ध्वजारोहण नहीं किया था। लोकसभा सचिवालय के एक शोध पत्र की मानें तो नेहरू ने 16 अगस्त, 1947 को लाल किले से झंडा फहराया था।

 

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