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पाकिस्‍तान यात्रा-4: हिन्दू संस्कारों की वजह से मैं अलग प्लेट या थाली का इंतज़ार करने लगा

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(हिंदी के वरिष्‍ठ लेखक असगर वजाहत 2011 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्म शताब्दी समारोह में शिरकत करने पाकिस्तान गए थे। वहां लगभग 45 दिन घूमते रहे। लाहौर, मुल्तान और कराची में अनेक लोगों से मिले थे। संस्थाओं में गए थे। उन अनुभवों के आधार पर उन्‍होंने एक सफरनामा 'पाकिस्तान का मतलब क्या' लिखा था, जो तब ज्ञानोदय में छपा था और उसके बाद ज्ञानपीठ ने उसे पुस्तक रूप में छापा था । उस पर आधारित कुछ अंश द फॉलोअप के पाठकों के लिए। प्रस्तुत है चौथा भाग:)

असग़र वजाहत, दिल्‍ली:

गुरुद्वारा डेरा साहिब और रणजीत सिंह की समाधि देखने के बाद मैंने शौकत से कहा कि किसी बहुत साधारण से ढाबे में खाना खाया जाए। स्टेशन के सामने बने ‘मदीना होटल’ में हम बैठ गये। होटल के बाहर तन्दूर लगा था। पास में ही बड़े बरतनों में खाना रखा था। तन्दूर के पास ही फ्राईपैन में खाना गरम करने का इंतज़ाम था।
”क्या खाओगे।“ मैंने शौकत से पूछा।
”मटन कढ़ाई मँगा लो?“
”कितना?“
”आधा किलो।“
मटन कढ़ाई आया तो उसी फ्राइपैन में आया जिसमें पकाया गया था और एक टोकरी में चार रोटियाँ आ गयीं जिनका साइज़ हमारे यहाँ की तन्दूरी रोटियों से बड़ा था। मेज़ पर कोई, प्लेट नहीं रखी गयी। अब अपने ‘हिन्दू संस्कारों’ की वजह से मैं अलग प्लेट या थाली (थाली का तो खै़र पाकिस्तान में कोई वजूद ही नहीं है) का इंतज़ार करने लगा। दूसरी मेज़ों पर जो लोग खा रहे थे वे सब एक साथ एक प्लेट या फ्राईपैन में खा रहे थे। यह समझने में देर नहीं लगी कि यह मुस्लिम समाज है, जहाँ ‘जूठा’ का कोई ‘कांसेप्ट’ नहीं है। मैंने रोटी तोड़ी, शौक़त के साथ एक फ्राइपैन से खाना शुरू कर दिया। पर पानी पीने के एक गिलास वाले मामले को सहन नहीं कर पाया तो दो ‘कोक’ मँगा लिये। इसी को शायद जीवन की रंगा-रंगी कहते हैं। दोपहर आॅटो चालक शौकत के साथ सर्वहारा किस्म के होटल में खाना खाने के बाद रात का डिनर पाकिस्तान की मशहूर अभिनेत्री समीना अहमद के सौजन्य से सम्पन्न हुआ। शहर से दूर एक मीडिया प्रोडक्शन हाउस में पाँच-सात बुद्धिजीवियों के साथ शाम बीती। ज़िक्र निकल आया कि भारत किस तरह पाकिस्तान से अपने को श्रेष्ठ समझता है। सब अपने-अपने अनुभव बताते रहे। होते-होते स्वर भारत विरोधी तक हो गया, लेकिन मैंने हस्तक्षेप नहीं किया क्योंकि मैं उनको समझना चाहता था, सुधारने का मंशा नहीं था।

 

पुराने लाहौर की गलियां दिल्‍ल-6 से अधिक तंग
अगले दिन शौक़त का ऑटो गेस्ट हाउस के गेट पर ठीक दस बजे आ गया। मैं कमरे में था कि शौक़त के ऑटो का भयानक हाॅर्न सुनाई पड़ा। लाहौर में गाड़ियों के विचित्र, दहला देने वाले हाॅर्न सुनकर मैं ‘कन्विन्स’ हो गया हूँ कि और किसी क्षेत्र में पाकिस्तान ने भारत से अधिक तरक्की की हो या न की हो, हाॅर्न बनाने के मैदान में बाजी मार ली है। शौक़त के आॅटो में कम से कम तीन तरह के हाॅर्न थे। हर हाॅर्न अपनी मिसाल आप था। एक हाॅर्न था जो किसी सिसकी या आह जैसी आवाज़ में शुरू होता था फिर उसमें अचानक सरसराहट पैदा हो जाती थी। फिर वह बड़े आक्रमक ढंग से इस तरह दहाड़ता था कि अगर सामने पैटन टैंक भी हो तो हट जाए। सड़क पर दूसरे किस्म के हाॅर्न भी सुनने को मिलते थे और लाहौरियों का ही कलेजा है जो इनकी आवाज़ से फट नहीं जाता। माल रोड पर किताबों की दुकानों से कुछ पाकिस्तान के नक्शे खरीदे। कुछ टूरिस्ट गाइड वगै़रह लेना चाहता था, लेकिन नहीं मिली। वैसे लाहौर ही नहीं पूरे पाकिस्तान में टूरिस्ट और वे भी पश्चिमी टूरिस्ट नहीं दिखाई देते। अमरीका ने तो पाकिस्तान को दुनिया के खतरनाक देशों की सूची में डाल रखा है और यूरोप ने भी शायद यही किया है। जब टूरिस्ट आते नहीं तो उस किस्म की जानकारियाँ क्यों हों? पुराने लाहौर में आकर लगा कि यह तो दिल्ली-6 से भी ज्यादा तंग जगह है। ऑटो और गाड़ियों ने धुएँ ने ऐसा कर दिया था कि दुकानदारों ने नाक पर सफेद मास्क लगा रखे थे। आने-जाने वाले आमतौर पर नाक पर रूमाल रख कर गुजर रहे थे। वैसा धुआँ, मतलब गाड़ियों का धुआँ, मैंने जीवन में कहीं नहीं देखा। सोचने लगा यहाँ रहने वालों पर क्या गुजरती होगी। ट्रैफिक की जितनी अव्यवस्था संभव है वह देखी जा सकती थी। मैंने कूचा जौहरियाँ के पास आॅटो रुकवा लिया। शौक़त से कहा वे कहीं और ले जाकर ऑटो खड़ा करें। मैं कूचा जोहरियाँ देखकर आ जाऊँगा। कूचा जौहरियाँ देखने का शौक इसलिए था कि मेरे नाटक ‘जिस लाहौर नई देख्या...’ का घटना स्थल यही है। मैं कूचे में आगे बढ़ता गया। तस्वीरें लेता गया। पुरानी इमारतों और मकानों की तस्वीरें जमा करना चाहता था। सोना, चाँदी, हीरे, जवाहरात की बाज़ार में इतनी अव्यवस्था देखकर परेशान हो गया। बड़ी मुश्किल से वापस आया। शौक़त का ऑटो नहीं मिला। ट्रैफिक ऐसा था आदमी का चलना मुश्किल लग रहा था गाड़ियों का क्या कहना।

 

उर्दू में बड़े से बैनर पर लिखा था, ‘पंजाबी तहरीक’

पुराने लाहौर से निकल आये। एक चौड़ी सड़क के किनारे कुछ लोग, शायद पचास-साठ, बैनर वगै़रह लगाए प्रदर्शन कर रहे थे। उर्दू में बड़े से बैनर पर लिखा था, ‘पंजाबी तहरीक’ यानी पंजाबी आन्दोलन। मैंने शौक़त से ऑटो रोकने के लिए कहा और उत्तर कर प्रदर्शन करने वालों के करीब चला गया। पता चला कि वहाँ पंजाबी भाषा के लिए प्रदर्शन हो रहा है। मतलब पंजाब-वह भी लाहौर में पंजाबी के लिए आन्दोलन देखकर कुछ हैरत हुई। वहाँ बताया गया कि पंजाब में पंजाबी की उपेक्षा हो रही है। स्कूलों में पंजाबी नहीं पढ़ाई जाती। पंजाबी में अख़बार नहीं है। पंजाबी में प्रकाशन की हालत बहुत दयनीय है। वगै़रह...वगैरह..पंजाबी को दबा कौन रहा है, उर्दू। पाकिस्तान में भाषा की बहुत ज्वलन्त और गंभीर समस्याएँ हैं। सबसे पहले भाषा की राजनीति सिन्ध में शुरू हुई थी। विभाजन के बाद उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश से उर्दूभाषी सिन्ध के शहरों में बसाए गये थे। यह संख्या इतनी अधिक थी कि 1950 तक सिन्ध के बड़े शहरों में पचास प्रतिशत उर्दू बोलने वाले हो गये थे। पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्राी लियाकत अली खाँ, जो उर्दूभाषी और मोहाजिर थे, वे सिन्ध के बड़े शहरों को ‘उर्दू भाषी बहुम्य क्षेत्र’ बनाना चाहते थे, ताकि उनके तथा अन्य मोहाज़िर नेताओं के लिए राजनीति करना और चुनाव जीतना सरल हो जाए। एक कारण यह भी था कि पाकिस्तान के सबसे बड़े प्रान्त पंजाब ने, उर्दूभाषी मोहाजिरों को पंजाब में स्वीकार नहीं किया था। पंजाब में वही मोहाजिर बसाए गये थे जो पूर्वी पंजाब से पाकिस्तान गये थे। पंजाब अपनी भाषायी और सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति बहुत सचेत थे। सिन्ध में अपनी संख्या और प्रभाव के चलते उर्दूभाषी मोहाजिरों ने अपना प्रभुत्व जमाने के लिए सिन्धी को पीछे ढकेलना शुरू कर दिया था। कारण दो थे। पहला तो यह सिद्धान्त कि पाकिस्तानी का धर्म इस्लाम है और भाषा उर्दू है। दूसरा यह कि शिक्षा, सरकारी पदों आदि में सिन्धी भाषी लोगों को पीछे ढकेल कर स्वयं आगे रहने की नीति। उर्दू और सिन्धी भाषा बोलने वालों में टकराव छोटी-मोटी बातों से शुरू हुआ लेकिन 1988-90 के बीच यह एक अत्यन्त भयानक खू़नी संघर्ष में बदल गया। बांग्लादेश की स्थापना ने पहली बार द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त को ग़लत साबित किया था और मोहाज़िर-सिन्धी सशस्त्रा संघर्ष ने यह दूसरी बार सिद्ध किया था कि धर्म के आधार पर राष्ट्रीयता नहीं निर्धारित की जा सकती। 

पंजाब के प्राइमरी स्कूलों में पंजाबी की पढ़ाई नहीं होती
30 सितम्बर, 1988 हैदराबाद सिन्ध के इतिहास को ‘ब्लैक फ्राइडे’ के नाम से जाना जाता है। इस दिन मोटरसाइकिलों और जीपों पर एक दर्जन सशस्त्र जवानों ने भरी बाजारों में अन्धाधुंध फायरिंग की थी, जिसके नतीजे में क़रीब 250 लोग मारे गये थे। जिनमें ज़्यादातर उर्दूभाषी मोहाजिर थे। आरोप लगाया जाता है कि फायरिंग करने वाले सिन्धी थे। इस हमले की प्रतिक्रिया कराची में हुई थी, जहाँ ज़बरदस्त दंगों में करीब 60-65 सिंधियों की हत्या कर दी गयी थी और करोड़ों की सम्पत्ति जला दी गयी थी। इन दंगों का सबसे भयापक रूप पक्का किला नरसंहार माना जाता है। 27 मई 1990 को, अपने सिरों पर कु़रान शरीफ रखे लोगों, जिनमें बच्चे और औरतें भी थीं, के प्रदर्शन पर पुलिस ने फायरिंग की थी जिसमें सौ से अधिक लोग मारे गये थे।
यह सच्चाई है कि पंजाबी बोलने वालों की संख्या पाकिस्तान में सबसे ज्यादा है और यह भी सच है कि पंजाबी भाषा की उपेक्षा पाकिस्तान बनने के साथ ही शुरू हो गयी थी। पाकिस्तान बनते ही पंजाब के विश्वविद्यालयों से पंजाबी भाषा को विषय के रूप में पढ़ाया जाना बन्द कर दिया गया था। कारण दो बताये जाते हैं। पहला यह कि उर्दू की केन्द्रीय स्थिति को मजबूत बनाने के लिए पंजाबी पर ‘ब्रेक’ लगाना ज़रूरी था। दूसरा यह कि पंजाबी को दबाने कर लिए उसे हिन्दुओं और सिखों की भाषा प्रचारित किया गया था। पंजाबी तहरीक के कार्यकर्ताओं ने बताया कि पंजाब के प्राइमरी स्कूलों में पंजाबी की पढ़ाई नहीं होती। जबकि सिन्धी और सरायकी क्षेत्रों के प्राइमरी स्कूलों में स्थानीय भाषाएँ पढ़ायी जाती हैं। पंजाबी के अख़बार नहीं निकलते। एक-दो जो शुरू भी हुए थे आर्थिक कठिनाई की वजह से बन्द हो गये। पंजाबी का कोई बड़ा प्रकाशन नहीं है। पंजाबी में साहित्यिक पत्रिकाएँ बहुत कम निकलती हैं।

उर्दू पंजाब की संस्कृति और साहित्य की भाषा रही

पाकिस्तान में पंजाबी भाषा के आन्दोलन का एक और बड़ा महत्त्वपूर्ण पक्ष है कि पंजाब आज़ादी के पहले से ही उर्दू का केन्द्र रहा है। सर मोहम्मद इकबाल, जिनकी मातृभाषा पंजाबी थी, ने उर्दू और फारसी में कविताएँ लिखी हैं। पंजाबीभाषी उर्दू कवियों की एक सशक्त परम्परा है जो फैज़ अहमद ‘फैज़’ से होती हुई युवा उर्दू कवि अली इफ़्तिख़ार जाफरी तक चली आती है। उर्दू पंजाब की संस्कृति और साहित्य की भाषा रही है। पंजाबी बोलचाल की भाषा के रूप में पूरी तरह स्वीकृत है। उूर्द की स्थिति पंजाब (पाकिस्तान) में कुछ वैसी है जैसी भारत से अंग्रेज़ी की है। 
आधुनिक युग में शायद कोई ऐसा पाकिस्तानी पंजाबी कवि नहीं हुआ जिसे भारतीय उपमहाद्वीप में मान्यता मिली हो। लेकिन पंजाब के उर्दू कवियों को यह सम्मान बराबर मिलता रहा है। इसलिए पंजाब के उर्दू कवि-लेखक यह जानते हैं कि उन्हें उप-महाद्वीप या अन्तर्राष्ट्रीय उर्दू कवि होना है तो पंजाबी में लिखने से काम नहीं चलेगा। और अब उर्दू का बड़ा कवि होने का मतलब हिन्दी का बड़ा कवि होना भी है। ‘फै़ज़’ ने यह सिद्ध कर दिया है। ‘फै़ज़’ हिन्दी जगत में भी जाने-माने जाते हैं। पंजाबी में लिखने का मतलब केवल पाँच-सात करोड़ की भाषा का कवि होना है जबकि उर्दू में लिखने का मतलब लगभग सौ करोड़ लोगों का कवि होना है। इस सौ करोड़ में एक तरह से हिन्दी भी शामिल है।

जारी

पहला भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें: हिंदी के एक भारतीय लेखक जब पहुंचे पाकिस्‍तान, तो क्‍या हुआ पढ़िये दमदार संस्‍मरण

दूसरा भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें:  पड़ोसी देश में भारतीय लेखक को जब मिल जाता कोई हिंदुस्‍तानी

तीसरा भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें: आतंकवाद और धर्मान्धता की जड़ है- अज्ञानता और शोषण

 

(असग़र वजाहत महत्त्वपूर्ण कहानीकार और सिद्धहस्त नाटककार हैं। इन्होंने कहानी, नाटक, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, फिल्म तथा चित्रकला आदि विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान किया है। ये दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्‍लामिया में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके हैं। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।

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