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पड़ोसी देश में भारतीय लेखक को जब मिल जाता कोई हिंदुस्‍तानी

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(हिंदी के वरिष्‍ठ लेखक असगर वजाहत 2011 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्म शताब्दी समारोह में शिरकत करने पाकिस्तान गए थे। वहां लगभग 45 दिन घूमते रहे। लाहौर, मुल्तान और कराची में अनेक लोगों से मिले थे। संस्थाओं में गए थे। उन अनुभवों के आधार पर उन्‍होंने एक सफरनामा 'पाकिस्तान का मतलब क्या' लिखा था, जो तब ज्ञानोदय में छपा था और उसके बाद ज्ञानपीठ ने उसे पुस्तक रूप में छापा था । उस पर आधारित कुछ अंश द फॉलोअप के पाठकों के लिए। प्रस्तुत है दूसरा भाग:)

असग़र वजाहत, दिल्‍ली:

फैज़ अहमद ‘फैज़’ के जन्म शताब्दी समारोह में हिस्सा लेने वरिष्ठ पटकथा लेखिका शमा जै़दी के नेतृत्व में, जो डेलीगेशन बाघा बार्डर क्रास करके पाकिस्तान पहुँचा था, उनमें ज़्यादातर मुम्बई के कलाकार, लेखक और अभिनेता थे। विख्यात अभिनेता और पुराने मित्र राजेंद्र गुप्ता थे, मित्र लेखक, अभिनेता अतुल तिवारी थे। बाद में जावेद अख्तर और शबाना आजमी भी इस ग्रुप में जुड़ गए थे। दूसरे लोग भी थे। मैं और उबैद सिद्दीक़ी दिल्ली से थे। बाघा बॉर्डर पर ‘फैज़’ साहब की दोनों बेटियाँ, सलीमा और मुनीज़ा डेलीगेशन के स्वागत के लिए तैयार थीं। यही वजह थी कि हमारा सामान वगै़रह सरसरी तौर पर देखा गया। देखा जाता तो कई लोगों के सूटकेसों में से भारतीय कस्टम की दुकान से ख़रीदी गयी ‘स्काॅच विस्की’ की बोतलें निकलतीं। हमें भारतीय कस्टम में यह बताया गया था कि कोई गै़र-मुस्लिम अपने साथ विस्की की दो बोतलें ले जा सकता है। राजेन्द्र गुप्ता स्काॅच की एक बोतल ख़रीद रहे थे। मैंने अच्छा मौक़ा जानकर उसे दो करा दिया था। मैं चूँकि अपने असली नाम के साथ इस्लामी देश पहली बार जा रहा था, इसलिए डरा हुआ था।
बाघा सीमा से बाहर निकले तो इधर-उधर का सीन बहुत प्रभावित करने वाला नहीं था। अजीब उजडे़-उखड़े मकान दिखाई पड़े जिनमें भैंसों की बहुतायत थी। शायद घोसियों की आबादी रही होगी।

अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान के बँगलों को मात देती कोठियां

कुछ और आगे बढ़े और लाहौर शहर में दाखिल हुए थे तो आँखें चैंधिया गयीं। यह शहर का सबसे खू़बसूरत इलाका था। सड़कें, पार्क, हरियाली और दोनों तरफ़ बनी शानदार इमारतें और कोठियाँ चीख-चीख़ कर लोगों के धनवान होने का ऐलान कर रही थीं। मुंबई से आये युवक बोले, ”यार यहाँ के बँगले तो अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान के बँगलों को मात देते हैं।“ इसी बातचीत के दौरान किसी अनुभवी ने कहा, ”जनाब कहा जाता है, पाकिस्तान में लोगों के पास बहुत पैसा है, सरकार ग़रीब है, इसके बरखि़लाफ़ हिन्दुस्तान में लोगों के पास पैसा नहीं है, सरकार के पास बहुत पैसा है।“ ”ऐसा क्यों है?“ किसी ने पूछा। जो लोग जानते थे, मुस्कुराने लगे। जो नहीं जातने थे वे एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।

एक हज़ार रुपये का टिकट लेकर साहित्यिक आयोजन में शिरकत
तीन-चार दिन ‘फैज़’ जन्मशती के प्रोग्राम चलते रहे। भव्यता, धनाढ्यता और सुन्दरता ने प्रभावित तो किया, लेकिन जितना प्रभाव लाहौर के उच्चवर्ग की सांस्कृतिक, साहित्यिक जागरुकता का पड़ा वह बताने लायक है। प्रोग्रामों में हिस्स लेने के लिए एक हज़ार रुपये का टिकट लेकर आने वालों को किसी भी तरह ग़रीब या मध्यम वर्ग का नहीं कहा जा सकता। देखने सुनने में भी लगता था कि लाहौर का उच्च वर्ग बहुत सुसंस्कृत, साहित्य और कला प्रेमी है। मेरे ख़याल से ऐसे साहित्यिक कार्यक्रमों में दिल्ली का उच्च वर्ग शायद मुफ़्त आना भी न पसन्द करेगा। इन्हीं कार्यक्रमों के दौरान एक अद्भुत और विलक्षण प्रतिभाशाली मुश्ताक़ अहमद यूसुफी से मिलने का मौक़ा मिला और दुःख हुआ कि उनसे और उनकी रचनाओं से अब तक क्यों बे ख़बर रहा। ‘फै़ज़’ पर आयोजित सेमीनार में अपना लेख पढ़ने यूसुफी साहब आये तो हाल तालियों से गूँज उठा। फैज़ के बारे में उन्होंने पूरी गंभीरता और सौम्यता से बोलना शुरू किया। उनके हर वाक्य पर पूरे हाल में ठहाके गूँजने लगे। मज़ेदार बात यह थी कि वे न तो किसी व्यक्ति का मखौल उड़ा रहे थे और न घटिया किस्म का हास्य या व्यंग्य पैदा कर रहे थे। उनका पूरा लेख बहुत मर्यादित ओर साहित्यिक था।

 

मुश्ताक अहमद यूसुफी से मिलकर हिंदुस्‍तानी खुश्‍बू
मुश्ताक अहमद यूसुफी मूल रूप से टोंक (राजस्थान) के हैं। उनकी शिक्षा राजस्थान, आगरा विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हुई थी। पेशे से बैंकर, यूसुफी साहब को पाकिस्तान के बड़े-से-बड़े साहित्यिक एवाॅर्ड मिल चुके हैं। उनके हास्य व्यंग्य संग्रह ‘खाकम व दहन’ (मुँह में मिट्टी) के चैदह संस्करण हो चुके हैं। एक दूसरे संकलन ‘ज़रगुश्त’ के ग्यारह एडीशन छपे हैं। उनके बारे में यह तय है कि वे उर्दू के सर्वोंत्तम हास्य-व्यंग्यकार हैं।
‘फैज़’ पर उनका भाषण सुनने के बाद चाय पीने के लिए सब बाहर निकले तो मौका निकाल कर मैंने यूसुफी साहब से कहा कि हिन्दोस्तान से पहली बार पाकिस्तान आया हूँ। अगर पाकिस्तान में मैंने सिर्फ़ आपको सुना होता और कुछ न किया होता तब भी मेरा पाकिस्तान आना सार्थक होता।’ पचहत्तर साल से ऊपर के यूसुफी साहब ने मेरी बात सुनी, लेकिन कुछ नहीं बोले। उन्हें उनके तमाम प्रशंसक घेरे हुए थे और मैंने यह ठीक न समझा कि उनके और उनके प्रशंसकों के बीच दीवार बनूँ। ‘फैज़’ जन्मशती समारोह का अंतिम सत्रा लाहौर के जिन्ना बाग़ के खुले आॅडिटोरियम में था। यहाँ संगीत, गायन के प्रोग्राम पेश किये गये। पहली बार लगा कि ‘फैष्ज़’ प्रगतिशील कवि हैं और जनान्दोलनों से भी उनका कोई लेना देना रहा है। कलाकारों और लोगों में एक अद्भुत उत्साह था। यह प्रोग्राम दिनभर चलता रहा था। ‘फैज़’ जन्मशती समारोह के आयोजकों ने हमारे ग्रुप को आते-जाने के लिए वैन दे रखी थी जिसमें सब लोग बैठकर सुबह कार्यक्रमों में शामिल होने निकल जाते थे। शाम को यही वैन हमें लाहौर के सम्भ्रान्त इलाके में किसी विशिष्ट व्यक्ति की कोठी पर लाती थी जहाँ रात के खाने की व्यवस्था होती थी। इन पार्टियों में हम लोगों ने किसी तरह की कमी नहीं महसूस की और हिन्दुस्तान में बिगड़ी हमारी आदतों का पूरा ख़याल रखा गया। यह भी पता चला कि हम लोगों जैसे वहाँ कम नहीं हैं पर सामने नहीं आते। 

उस्मान पीरज़ादा पंजाबी के लोकप्रिय अभिनेता
हमारी बैन के साथ एक मोटरसाइकिल सवार हमेशा लगे रहते थे। बताया गया था कि वे हमारी सुरक्षा के लिए है। इसलिए हम लोगों ने उनका नाम ‘मोहाफिज़’ रख दिया था। इतनी मोटी बात हम सबको मालूम थी कि ‘मौहाफिज़’ साहब अपनी डियूटी बजा रहे हैं। दो ही एक दिन में मोहाफिज़ साहब से हम लोगों का अच्छा तालमेल हो गया। उन्होंने ‘पर्दा’ खोल दिया और हमने ससम्मान उन्हें अपना लिया। ‘फैज़’ संबंधी कार्यक्रमों से कुछ समय बचा कर एक रात हम लोग उस्मान पीरज़ादा के मेहमान बने। उस्मान पीरज़ादा पंजाबी के लोकप्रिय अभिनेता हैं। वे पाकिस्तान के पंजाब में ही नहीं बल्कि भारतीय पंजाब में भी ‘हाउस होल्ड नेम’ हैं। उस्मान का परिवार पिछली तीन पीढ़ियों से लाहौर में अभिनय, नाटक, सिनेमा के क्षेत्रा में सक्रिय है।
रात में क़रीब दस बजे हम अनजान इलाके़ में, शहर से काफ़ी दूर उस्मान पीरज़ादा के घर की तरफ चल पड़े। कोई एक घंटे बाद हमारी ‘वैन’ एक अत्याधुनिक हाउसिंग काॅम्प्लेक्स में घुसी। बीच में लाॅन था और तीन तरफ बहुत आधुनिक किस्म की कोठियाँ बनी थीं, जिनकी सीढ़ियाँ, दरवाजे़, खिड़कियाँ रोशनी में डूबे हुए थे। ड्राइव-वे पर हमें उस्मान मिले और उन्होंने बताया कि यह उनके परिवार के लोगों के ही बँगले हैं। हम उस्मान के बँगले के अंदर आये। यहाँ करीब पन्द्रह-बीस लोग पहले से मौजूद थे और पार्टी अपने पूरे शबाब पर थी। उस्मान का घर अंदर से भी सुरुचिपूर्ण, सम्पन्नता, धनाढ्यता और कलात्मकता का संगम नज़र आया। कुछ ही देर में सब लोग मेहमानों के साथ बातचीत में मशगूल हो गये। प्रोग्राम यह बना था कि उस्मान के यहाँ ‘शरबते रूह अफज़ा’ लेने के बाद हम लोग उस्मान के परिवार द्वारा स्थापित रफी पीर कल्चरल सेंटर जाएँगे जहाँ के रेस्ताँ में खाना खाएँगे। लेकिन रेस्त्राँ में ‘शरबते रूह अफज़ा’ नहीं मिलता इसलिए उस्मान मेहमानों से कह रहे थे कि आप लोग अपने-अपने ‘कोटे’ का ध्यान रखिए।

पाकिस्तानी सिविल सर्विस के एक अधिकारी से मिलता याद है

पार्टी में उस्मान पीरज़ादा के दोस्त अभिनेता, गायक, संगीतकार, बिजनेसमैन, सरकारी अधिकारी वगै़रह थे। बहुत लोगों से मुलाकात और बातचीत हुई लेकिन पाकिस्तानी सिविल सर्विस के एक अधिकारी से मिलता याद है क्योंकि वह पाकिस्तानी समाज, समस्याओं और चुनौतियों के बारे में बहुत तर्कसंगत बातें कर रहे थे। मेरी इच्छा हुई कि उनसे कभी आगे भी मुलाकात हो तो अच्छा है। लेकिन बाद में ऐसा नहीं हो पाया। रफी पीरज़ादा कल्चरल सेंटर एक अद्भुत जगह लगी। हमें सबसे पहले ‘कठपुतली संग्रहालय’ दिखाया गया जिसमें पूरे संसार की लगभग पाँच हज़ार कठपुतलियाँ रखी गयी हैं। 1992 में स्थापित यह संग्रहालय संभवतः संसार में कठपुतली के चुनिन्दा संग्रहालयों में गिना जाएगा। इसका रख-रखाव और यहाँ कठपुतली कला संबंधी जानकारियाँ उपलब्ध होने के कारण इसका महत्त्व और बढ़ जाता है। इसी सेंटर में आर्ट और क्राफ्ट विलेज हैं; पीरू कैफे हैं जहाँ लाहौर के मजे़दार खाने का ज़ायका लेने बड़ी तादाद में लोग आते हैं। यह सेंटर, नाटक के अन्तरराष्ट्रीय समारोह आयोजित करता है और इसका प्रशिक्षण कार्यक्रम भी है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह सब एक परिवार का करिश्मा है। इसमें कोई सरकारी या अर्धसरकारी पैसा नहीं लगा। लाहौर में ऐसे कुछ ग्रुप और भी हैं, पर इतने व्यापक स्तर पर सिर्फ पीरज़ादा सेंटर’ ही सक्रिय है।

डेलीगेशन लौट गया भारत और मैं लाहौर में रह गया अकेला

चार दिन बाद डेलीगेशन वापस भारत चला गया और मैं लाहौर में अकेला रह गया। मैं खु़श था कि लाहौर को देखने, समझने, बूझने का काम अब शुरू होगा। यह सोच रहा था कि काम कैसे शुरू किया जाए। अपने पसन्द का काम है सड़कें नापना। सुबह के छह बजे थे। मैं शहर से नावाकिफ था, लेकिन गेस्ट हाउस से निकल कर एक मुख्य सड़क पर आ गया और पैदल मार्च शुरू कर दी। इधर-उधर देखता रहा। लेकिन सुबह-सुबह सिवाय इमारतों के कुछ देखने को न था, इसलिए वही देखता चैराहे पर बनी एक बाज़ार तक आ गया। दुकानें अभी नहीं खुली थीं। लेकिन सड़क के किनारे चाय के खोखे खुले थे। एक चाय पीने के बाद सोचा चलो पुराने लाहौर चलते हैं, स्टेशन के पास उतर कर आसपास का इलाका देखते हैं। और हो सका तो लाहौर का नक्शा खरीदते हैं। बहरहाल एक आॅटोवाले से कहा कि रेलवे स्टेशन जाना है क्या लोगे? पता नहीं कैसा आॅटोवाला था कि उसे यह पता ही नहीं था कि वहाँ से स्टेशन तक का किराया कितना बनता है। एक दो और लोगों से पूछ कर उसने डेढ़ सौ रुपया बताया। मैं तैयार हो गया। पर मैंने पूछा, ”भाई तुम्हें ये मालूम है न कि लाहौर का रेलवे स्टेशन कहाँ है?“ वह कुछ शर्मिंन्दा हुआ ओर बोला, ”हाँ मालूम है।“

पूछता-पाछता पहुंच गया लाहौर के दिल्ली गेट

स्टेशन के आसपास घूमने, तस्वीरें लेने के बाद मैं पूछता-पाछता दिल्ली गेट की तरफ बढ़ने लगा। नया लाहौर जितना पाॅश है, पुराना लाहौर उतना ही गंदा है। वही दिल्ली वाला हाल है। खै़र अचानक महसूस किया कि ग्यारह बज गया है और दुकानें अब तक बंद हैं। पूछने पर चला गया कि आज ‘ईद मिलादुन्नबी’ की छुट्टी है और पूरा शहर बंद है। इसका सीधा मतलब था कि कुछ न मिलेगा। मैंने गेस्ट हाउस वापस आने की तैयारी की और एक मिनी बस में बैठ गया जिसने आधे रास्ते या माल रोड पर उतार दिया। यहाँ से गेस्ट हाउस पाँच-छह किलोमीटर था। माॅल रोड भी बंद थी। अब दिन का एक बज रहा था और पेट कुछ माँग रहा था। पर माल रोड के शानदार रेस्त्राँ बंद थे। ये हो नहीं सकता था कि कुछ न खाऊँ। जहाँ ठहरा था वहाँ डेलीगेशन जाने के बाद खाने वगै़रह का कोई इन्तज़ाम न था। यह लगने लगा अपने मजे़दार खानों के लिए मशहूर लाहौर में मुझे भूखे पेट सोना पड़ेगा। अचानक सड़क की दूसरी तरफ कोने में एक छोटी-सी दुकान खुली दिखाई पड़ी। यह फ्रूट जूस, स्नैक्स, केक-पेस्ट्री वगै़रह की दुकान थी। चील की तरह मैंने झपट्टा मारा और पलक झपकते में वहाँ पहुँच गया। एक अधेड़ उम्र दुकानदार ने मुझे देखा। बड़ी अजीब बात है कि चेहरे-मोहरे और भाषा सब पता चल जाता है। वह समझ गया कि मैं ‘इधर’ का नहीं हूँ तो मैंने भी यह ज़रूरी नहीं समझा कि कुछ छुपाऊँ। कोल्ड ड्रिंक और सैंडविच खाने शुरू किये। एक आदमी कोई और आ गया। 

जब चली जुबान की ठंडी हवा.....


”तो जी आप दिल्ली से आये हो?“ वह पंजाबियों की तरह हिन्दी/उर्दू बोला जो मेरे लिए दिल्ली में रहने की वजह से नयी चीज़ नहीं है।

”हाँ जी,“ मैंने भी पंजाबी तरीके से जवाब दिया। ”क्या हाल है उधर?“ वह बोला।
”ठीक है...हमारी तरफ़ तो व्यापारी और विजनेस करने वाले बड़े फल-फूल रहे हैं।“ मैंने कहा।
”इधर भी काम अच्छा है...पर आपके यहाँ जैसी बात कहाँ होगी। हमारी मार्केट छोटी है।“ वह बोला।
”चीनी का क्या भाव है?“ उस नये आदमी ने पूछा जो आकर खड़ा हो गया था।
मैं परेशान हो गया क्योंकि मुझे नहीं मालूम था कि दिल्ली में चीनी क्या भाव है। बहरहाल कुछ तो बताना था। मैंने आइडिये से जो बताया वह इतना ग़लत था कि वे दोनों कहने लगे ऐसा तो हो ही नहीं सकता। मैंने फौरन अपनी हार मान ली क्योंकि मुझे कुछ नहीं मालूम था।
”बस जी हम लोग तो अमन चाहते हैं।“ दुकानदार बोला।
”हम भी अमन चाहते हैं...हिन्दुस्तान में अब किसी को पाकिस्तान से कोई दुश्मनी नहीं है।“ मैंने कहा।
”अच्छा जी...ऐसा है...यह तो कहते हैं...हिन्दुस्तान पाकिस्तान को मिटा देना चाहता है।“
”अजी हिन्दुस्तान में खु़द ही इतने मसले हैं कि वह किसी और को मिटाने के बारे में क्या सोचेगा।“ मैंने कहा।
”हाँ ये तो ठीक है।“ दुकानदार ने कहा।
”देखो जी अब जो जैसा है, वैसा मान लेना चाहिए।“ तीसरा आदमी बोला।
कुछ क्षण बाद हमारी बातचीत शान्तिवार्ता में बदल गयी। मैंने खा-पीकर पैसे देने चाहे तो दुकानदार बोला, ”नहीं जी आप मेहमान हो...आपसे क्या लेने।“
मैं सोचने लगा क्या यह दिल्ली में संभव है? दिल्ली के दुकानदार और व्यापारी तो अपने बाप को न छोडे़ं...पड़ोसी देश के मेहमान की क्या औकात है। 
”देखो जी कुछ तो ले लो। ये सब आपके घर तो बनता नहीं।“ मैंने कहा।
”नई जी नहीं...ऐसा है तुम्हें इंडिया में कोई पाकिस्तानी मिले तो उसे ‘ठंडा’ पिला देना।“ वह हंस कर बोला।
”हाँ-हाँ क्यों नहीं।“ मैंने कहा।
”तुसी ठहरे कहाँ हो?“
”गुलबर्ग में?“
”कैसे जाओगे...आज जो छुट्टी है। ऑटो भी नहीं मिलेगा।“
”देखेंगे।“ मैंने कहा।
”नई...मेरा...पुत्तर छोड़ देगा।“

मेरे बहुत मना करने के बाद भी उसका बेटा आया। गाड़ी निकाली और मुझे गेस्ट हाउस तक छोड़ा...यह भी कहा कि यह फोन नम्बर है, जब कभी कहीं जाना हो...बेतकल्लुफ़ फोन कर देना।

 

डेलीगेशन चले जाने के बाद मैं अकेला रह गया था, लेकिन मेरी चिन्ता ‘मोहाफिज’ साहब को लगातार लगी रहती थी। अगले दिन वे सुबह आये और पूछा कि अब मेरा क्या प्रोग्राम है। मैंने बताया कि लाहौर घूमना है, कुछ लोगों से मिलना और उसके बाद मुल्तान जाना है। उन्होंने मेरा पासपोर्ट देखने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की और मैंने अपना पासपोर्ट दिखाया जिस पर लाहौर के साथ-साथ मुल्तान और कराची के नाम भी दर्ज थे। पाकिस्तान में मैं 45 दिन ठहर सकता था। पासपोर्ट की फोटोकाॅपी लेने के बाद मोहाफिज़ साहब ने विस्तार से जानना चाहा कि मैं लौहार में क्या करूँगा। मैं उनकी परेशानी समझ गया। उन्हें मेरे बारे में अफसरों को रिपोर्ट देनी थी। मैंने उनके काम को आसान बनाने के लिए कहा कि आप मुझे एक ऑटो रिक्शा पूरे दिन के लिए दिला दें। जो पैसा होगा मैं दे दिया करूँगा। बात मोहफिज़ साहब की समझ में आ गयी। ज़ाहिर है ऑटो रिक्शा वाला उनका ‘बंदा’ होना था और हर शाम उनको पक्की रिपोर्ट मिल जानी थी कि मैंने पूरे दिन क्या-क्या किया।

जारी...

पहला भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें: हिंदी के एक भारतीय लेखक जब पहुंचे पाकिस्‍तान, तो क्‍या हुआ पढ़िये दमदार संस्‍मरण
 

(असग़र वजाहत महत्त्वपूर्ण कहानीकार और सिद्धहस्त नाटककार हैं। इन्होंने कहानी, नाटक, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, फिल्म तथा चित्रकला आदि विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान किया है। ये दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्‍लामिया में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके हैं। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।