प्रेम कुमार, बेगूसराय:
नब्बे के दशक में कोलंबिया के सबसे बड़े ड्रग्स के स्मगलर पाब्लो एस्कोबार के धंधे का सूत्रवाक्य था Plata o Plomo(चांदी या सीसा) मतलब पैसा या गोली शायद उसे यह पता भी नहीं रहा होगा कि उससे बीस साल पहले 1970 के दशक में ही बिहार के बेगूसराय में कामदेव सिंह नामक एक भूप ने इसी सूत्र पर उत्तर भारत का सबसे बड़ा स्मगलिंग का साम्राज्य खड़ा किया था। जिसके संपर्क सीधे प्रधानमंत्री से मुख्यमंत्री तक थे और वो अपने समय में बिहार का राजनीतिक रुप से सबसे प्रभावशाली बाहुबली माना जाता था। इंडिया टुडे के पत्रकार फरजंद अहमद ने कामदेव सिंह के बारे में लिखा था कि "उसकी हनक इतनी थी कि वह जिसे चाहते उसके उपर हाथ रखकर माननीय विधायक बनवा सकते थे वह अगर चाहते तो एक चूहे को भी विधानसभा में कानून बनाने के लिए विधायक बनवा कर भिजवा सकते थे।" बेगूसराय को उसकी अनोखी पहचान देने का जनक कामदेव सिंह को ही निर्विवाद रुप से माना जा सकता है।
बैलगाड़ी से बेगूसराय के इस लड़केेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेे ने की शुरुआत
कामदेव सिंह 1930 में मटिहानी के गंगा दियारा में स्थित नयागांव स्थानीय बोली में लावागाँव में पैदा हुए थे। एक बहुत ही साधारण परिवार में जन्मे कामदेव सिंह ने पिता के साथ बैलगाड़ी चलाने से शुरुआत की। कहते हैं तत्कालीन मुंगेर जिले में स्थित वर्तमान बेगूसराय के चट्टी बाजार में पल्लेदारी का भी उन्होंने काम किया देर सबेर डकैतों के संपर्क में आए और वहाँ से होते हुए गाँजे की स्मगलिंग के बेताज बादशाह बन बैठे। उनका नाम गाँजा, इलेक्ट्रॉनिक सामान, स्टील से लेकर यूरेनियम तक की तस्करी में आया था। एक बार पूर्णिया के जोगबनी से यूरेनियम बरामद किया गया जिसकी गहराई से जाँच के बाद यह सामने आया कि वो 'कम्पनी' का था। कम्पनी मतलब कामदेव सिंह का गिरोह तब दाऊद शायद कच्छे में ही घूम रहा होगा जिसके नाम पर सिनेमा वालों ने कम्पनी शब्द को उपलब्धि के तौर पर बेचा। कहते हैं उनके साथ एक से डेढ हजार तक लोगों का closely knit समूह था। जिसके सदस्य आपस में एक दूसरे को कम्पनी कह के संबोधित करते थे। अप्रत्यक्ष रुप में उनके लिए काम करने वालों की गिनती नहीं थी।
हमने भी अपने लड़कपन में बेगूसराय में लोगों को एक दूसरे को "कि हो कंपनी की हालचाल छौ" कह कर गौरवान्वित होते देखा है।
फिर कारों, ट्रकों, मैटाडोर का काफिला भी हुआ
कम्पनी के पास कारों, ट्रकों, मैटाडोर जैसी गाड़ियों का काफिला था। साथ ही कम्पनी के पास दुनाली,बंदूक, राइफल, स्टेनगन जैसे हथियारों और रंगदारों की फौज थी। सुनने में आता था कि बिहार और नेपाल के बॉर्डर पर कई गांव उनके लोगों से भरे पड़े थे जो सिर पर ही गाँजा ढोकर बॉर्डर पार करा कर गोदाम तक लाते गोदाम में बाकी प्रतिबंधित सामानों को भी जमा किया जाता रहता था. फिर वहाँ से ट्रक द्वारा ये सामान सीधे कलकत्ता तक ले जाया जाता था और वहाँ से आगे। ट्रक के सामने उपर बने बक्से में उनके लोग बंदूक और नोट लेकर बैठे होते थे। संयोगवश रोके जाने पर रुपये या गोली दोनों में एक के दम पर मामला सलट लिया जाता था। हलांकि ऐसा होता कम था क्योंकि कामदेव सिंह की पैठ प्रशासन और पुलिस में सरकार से ज्यादा थी। एक अनुमान के अनुसार तब सैकड़ों सरकारी अधिकारी कर्मचारी उनके लिए pay roll पर काम करते थे। सरकारी तनख्वाह से ज्यादा और पहले हरेक के पास कम्पनी का लिफाफा महीने की पहली तारीख को पँहुच जाता था।
मुंबई अंडरवर्ल्ड तक में बना ली थी गहरी पैठ
बिहार विधानसभा की एक समिति ने अपनी 1974 की रिपोर्ट में कहा था, "सरकार के विभाग एक दूसरे के खिलाफ काम करते थे पुलिस कामदेव गिरोह को अगर खत्म करना चाहती तो दूसरे कई लोग और विभाग उसे मजबूत करने में लगे थे।" बिहार,नेपाल, उत्तर प्रदेश, बंगाल, राजस्थान से लेकर महाराष्ट्र तक उनका आपराधिक साम्राज्य फैला हुआ था। उनके outpost विराटनगर, काठमांडू, कलकत्ता, जयपुर और मुंबई में बने हुए थे। मुंबई अंडरवर्ल्ड में उनकी गहरी पैठ थी। कहा जाता है उन्होंने अपने जीवन में एक सीनियर ब्यूरोक्रेट सहित सौ लोगों की हत्या कराई थी। उनके आपराधिक साम्राज्य के खिलाफ खड़े हुए कस्टम कलेक्टर एस एन दासगुप्ता की जयपुर में हत्या कर दी गई थी।
सरकारी अधिकारी से नेता जो उनके साथ आया उसकी किस्मत चमकी खिलाफ गया तो खत्म हुआ।
वामपंथियों के रहे दुश्मन, 40 कम्युनिस्टों को मार डाला
कम्युनिस्टों के खिलाफ उनकी नफरत का सानी नहीं था। कहा जाता है कि सिर्फ बेगूसराय में कामदेव सिंह ने 40 के करीब कम्युनिस्ट लोगों की हत्या कराई थी। सत्तर के दशक के पहले से उनके समय से ही बेगूसराय में वर्चस्व के लिए काँग्रेस और कम्युनिस्टों के बीच खूनी खेल शुरु हुआ था। जिसमें एक पीढी के सैकड़ों नौजवान बेगूसराय जिले में मारे गए। 1970 के दशक में बिहार में कांग्रेस की सरकार थी और सरकार में कामदेव सिंह के लिए काम करने वाले और उनसे जुड़े लोगों की गिनती निश्चित नहीं की जा सकती थी। दूसरी तरफ कामदेव सिंह अपने इलाके के गरीब लोगों के लिए भगवान का रुतबा रखते थे। कहा जाता है कि हर साल सौ गरीब लड़कियों की शादी अपने खर्चे पर कराते थे। हारी बीमारी, दुर्घटना, आपदा झेल रहे अपने इलाके और उनसे जुड़े लोगों के लिए वो पैसा पानी की तरह बहाते थे। इसी वजह से अपने इलाके के लोगों के लिए वो रॉबिनहुडीय आभामंडल रखते थे। लोगों का हुजूम और गांव के गांव उनके लिए स्लीपर सेल के रुप में काम करते थे। यही कारण है कि वो अपने मरने तक येति की तरह एक अदृश्य शक्ति बने रहे। जीते जी एक ही बार गिरफ्तार हुए वो भी नेपाल में और वहीं नेपाल सरकार से डील कर निकल भी गए।
क्रमशः
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(कोई किसी किस्म का उपदेश दे या जज करे उससे पहले ही मैं साफ कर दूँ कि उस दौर में बड़े हो रहे हम जैसे मनबढ़ किस्म के लोगों को ऐसे लोग ही जबरदस्त रूप से आकर्षित करते थे और हम भी वैसा ही बनना चाहते थे। लेकिन बदकिस्मती से पढ़ने-लिखने के चक्कर में जगह छूटी और ऐसा हो न हो सका। घर में रविवार, दिनमान, माया जैसी पत्रिकाएं बड़े भाई लगातार लाते थे! बाकी सारे संबंध और जीवन बेगूसराय से ही जुड़े हैं सो इनके बारे में हक से लिखना सामान्य बात है!)
(प्रेम कुमार बिहार के बेगूसराय में रहते हैं। स्वतंत्र लेखन करते हैं।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।