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बिहार में बाहुबली-2: कैसे बच निकले सूरजभान सिंह और कब चुकाया सम्राट ने पहला बदला

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प्रेम कुमार,  बेगूसराय:
नब्बे का आधा दशक अशोक सम्राट के जलवे का चरम था। सम्राट शुरु से ही बेगूसराय को अपने लिए अभेद्य दुर्ग के तौर पर बरतते रहे थे और इसी से उन्होंने बेगूसराय के प्राइड को भी जोड़ लिया था। कहते हैं एक बार अपनी बैठकी में उन्होंने कहा था बेगूसराय मतलब गंगा के उपर बने राजेंद्र पुल से समस्तीपुर जिले के पहले स्थित बेगूसराय के आखिरी गांव रसीदपुर तक,यानी इस बीच के पूरे इलाके पर किसी भी बाहरी के पैर जमाने की तो बात दूर रही हस्तक्षेप भी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा मतलब बेगूसराय बेगूसराय वालों के लिए। इसी लाइन पर चलते हुए सम्राट का आमना सामना मोकामा के सूरजभान सिंह से हुआ। अस्सी के दशक में मोकामा में छोटे-मोटे अपराध से उभरे सूरजभान सिंह ने सबसे पहले अनंत सिंह के बड़े भाई कांग्रेस नेता दिलीप सिंह की सरपरस्ती हासिल की फिर अपनी महत्वाकांक्षा के वशीभूत श्याम सुंदर सिंह धीरज के पाले में चले गए। सूरजभान सिंह से सम्राट के टकराने के कई पुष्ट अपुष्ट कारण बताए जाते हैं। जैसे मोकामा में हुई सूरजभान सिंह के भाई मोती सिंह की हत्या में सम्राट की सहमति का होना, तत्कालीन बेगूसराय के कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े शूटर और जेलकांड के नामजद अभियुक्त मनोज सिंह से सूरजभान सिंह के नजदीकी रिश्ते। जबकि टकराव की जड़ में सूरजभान सिंह की अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने की स्वाभाविक इच्छा और दुर्भाग्य से सामने सम्राट जैसे दुर्दम्य व्यक्ति का होना ही था।

जब रामी सिंह की हत्या में सूरजभान सिंह का उछला नाम 
तत्कालीन उत्तर बिहार में रिफाइनरी से लेकर रेलवे तक काम करने वाली दो बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनियां बेगूसराय की ही थी। पहली रीता कंस्ट्रक्शन जो भाजपा नेता बीहट के राम लखन सिंह की थी और दूसरी कमला कंस्ट्रक्शन जो तिलरथ के रतनसिंह की थी। सारे भीमकाय ठेकों में इन्हीं दोनों कंपनियों का टकराव होता था। रतनसिंह के साथ अशोक सम्राट थे सो जाहिर है कमला कंस्ट्रक्शन का डंका बज रहा था ऐसे में रीता कंस्ट्रक्शन वाले रामलखनसिंह ने सूरजभान सिंह को साथ खींचा वहीं सूरजभान भी अपनी उड़ान के लिए मोकामा से ज्यादा बड़ा आकाश ताक रहे थे सो वो भी साथ आए। बस यहीं से तलवारें खिंचीं जो सम्राट के जीते जी सूरजभान सिंह पर भारी ही पड़ती रही। सम्राट ने साफ कर दिया कि बेगूसराय में बाहर से रंगदार आ कर कुछ कर ले जाएँ ये उनके रहते संभव नहीं। इसी बीच कुछ गुणा गणित बिठाने के चक्कर में बेगूसराय के मधुरापुर गांव में रामी सिंह की हत्या हुई नाम उछला सूरजभान सिंह और सहयोगियों का।

और सम्राट ने निर्णायक चोट करने की बना ली योजना 
इसके पहले तक सम्राट ने सूरजभान सिंह को छोटे मोटे झटके दे कर ही गंगा के उस पार तक बाँध रखा था अब उन्होंने निर्णायक चोट करने की योजना बनाई। सम्राट मेरे जानने में विरले ऐसे रंगदार थे, जिन्होंने सबसे ज्यादा अपने हाथों पर ही भरोसा किया था और अधिकाँशतः किसी शूटर का सहारा नहीं लिया क्योंकि वो खुद बेहतरीन शूटर थे। कहते हैं मोकामा के अपने गांव में भी सूरजभान सिंह सम्राट की वजह से काफी चौकन्ने रहते थे और इस बार तो बात खुली ही थी सो वो भी खूब एहतियात बरत रहे थे।
जबरदस्त रेकी के बाद स्थिर किया गया कि एक नियत समय के आसपास रोज सूरजभान सिंह अपने गांव के सड़क किनारे स्थित एक चाय दुकान पर अमले खसले के साथ जरुर आते हैं, स्थान वही तय हुआ। कहते हैं सम्राट खुद वेश बदल कर जगह देखने गए और चाय दुकान से ढ़ाई तीन सौ मीटर दूर एक उजाड़ सी झोपड़ी को अपने लिए तय किया चूंकि ए के 47 की इफेक्टिव रेंज तीन से चार सौ मीटर की दूरी तक होती है।



गाय के बीच में आ जाने की वजह से बच गए सूरजभान सिंह 
नियत दिन से एक रात पहले सम्राट उस झोपड़ी में छिपकर पोजीशन ले पड़ गए। ऐसा स्नाइपर मूवीज में देखने को मिलता है और वो अपने समय से ज्यादा स्मार्ट तो थे ही वजह वही खुद पढ़ा लिखा होना और हॉस्टल की सोहबत। उनके साथ एक व्यक्ति शायद और था या उसे कुछ और दूर लगाया गया था। नियत दिन जिस समय सूरजभान सिंह अपने अमलों खसलों के साथ चाय दुकान पर आए। कहते हैं कि शुरुआती पहला फायर सम्राट ने ए के 47 को सेमी ऑटोमेटिक मोड पर रख कर सिर्फ और सिर्फ सूरजभान सिंह पर किया। लेकिन गोली उनसे छूती हुई गच्चा देकर निकल गई और हड़कंप मच गया उधर से भी फायरिंग शुरु हो गई। तब सम्राट ने ए के 47 को बर्स्ट मोड पर डालकर गोलियों की बारिश कर दी। जब गोलियों का गुबार थमा तो सूरजभान सिंह के पैर में गोली लगी पाई गई। उनके चचेरे भाई अजय और बेगूसराय के मनोज सिंह गोलियों से छलनी पड़े थे और एक गाय भी गोलियों से छलनी पड़ी थी कहते हैं इसी गाय के बीच में आ जाने की वजह से सूरजभान सिंह बच गए। हमेशा की तरह सम्राट सही सलामत गंगा पार बेगूसराय पँहुच गए लेकिन उनकी दहशत जरुर पीछे छूट गई। 

वही सूरजभान बेगूसराय के बलिया से जीत गए चुनाव
जबतक सम्राट जिंदा रहे सूरजभान सिंह को मोकामा से बेगूसराय की तरफ बढ़ने नहीं दिया। विधि का विधान देखिए सम्राट के मरने के बाद वही सूरजभान सिंह भूमिहार होने के नाम पर बेगूसराय के बलिया से इलेक्शन लड़े और जीते क्योंकि तब तक बेगूसराय प्राइड हवा हो चुका था और जातीय प्राइड में सब मुक्ति तलाश रहे थे। सम्राट शुद्ध रंगदार थे और उनमें बस रंगदारी के लिए ही एक जबरदस्त पैशन था वो किसी अन्याय और दमन से मजबूर हो कर इस लाईन में नहीं आए थे। सो इस मामले में वो बिल्कुल ईमानदार थे इसी वजह से उन्होंने छुटभैय्यों वाले अपराध की जगह हमेशा उस समय की प्रचलित लीक से हट कर बड़ा सोचा। इसलिए वो कभी बदला, इंतकाम जैसी बकवाद भी नहीं करते थे। उन्होंने अपनी बैठकी में भी इस बारे में कई बार खुल कर कहा था कि शुद्ध बदले की भावना से तो मैंने बस एक ही खून किया चंद्रेश्वर सिंह का। लेकिन उनके बदले की भावना कितनी इंटेंस थी। ये बस इसी से समझा जा सकता है कि साल भर से अपने पास मौजूद ए के 47 का पहली बार प्रयोग उन्होंने खुलकर इसी में किया और ये बिहार पुलिस के फाइलों में इतिहास बन कर दर्ज हो गया। क्योंकि ये तत्कालीन लगभग पूरे उत्तर भारत में पहली बार किसी क्रिमिनल एक्टिविटी में 47 का प्रयोग था नहीं तो इसके पहले तक आतंकवादी घटनाओं में ही इस हथियार के प्रयोग किए जाने के समाचार थे। मुजफ्फरपुर में अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध मे बेगूसराय के रंगदारों का स्वर्ण काल था।

 'भैय्यारी' वाले मिनी नरेश की जब मुजफ्फरपुर में हो गई हत्‍या
मिनी नरेश एल एस कॉलेज के पी जी ब्वॉयज हॉस्टल पाँच(न्यू हॉस्टल) से अपने रंगदारी का साम्राज्य चलाते थे। चूंकि उनके पहले मोंछू नरेश का जलवा था। इसलिए उनके बाद आए नरेश को मिनी नरेश कहा जाने लगा था। मिनी नरेश बेगूसराय के रहाटपुर गांव के थे और जबरदस्त रोबीले व्यक्तित्व के धनी आदमी थे। हँसी आती है। कई जगह स्वनामधन्य पत्रकारों द्वारा सम्राट को मिनी नरेश का आका कहते या लिखते देखा है जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं था। सम्राट उस समय बेगूसराय से उभरे बिहार के सबसे बड़े डॉन जरुर थे लेकिन मिनी नरेश से उनका रिश्ता 'भैय्यारी' वाला था। ये शब्द हमारे बेगूसराय में तकरीबन एक उम्र के भाईयों के बीच याराने जैसे रिश्ते के लिए प्रयोग किया जाता है। सम्राट ने जब मुखिया से दुश्मनी के बाद कुछ समय के लिए बेगूसराय छोड़ा था, तो उस दौर में मिनी नरेश के साथ मुजफ्फरपुर के एल एस कॉलेज न्यू हॉस्टल में ही ज्यादातर रहते थे और फिर तो वह हमेशा उनका पसंदीदा अड्डा रहा जो मिनी नरेश की हत्या के बाद ही उखड़ा।



आहत सम्राट बोले, साल पुरयत पुरयत मायर तै देबय..... 
बेगूसराय वालों की रंगदारी के साम्राज्य के विरोध में समानांतर मुजफ्फरपुर के स्थानीय रंगदारों को मोतिहारी से मुजफ्फरपुर के छाता चौक पर आ कर बसे चँद्रेश्वर सिंह ने अपने झंडे के नीचे जमा किया था जिसमें छोटन शुक्ला भी थे। छोटन, भुटकुन और मुन्ना शुक्ला तीन भाई थे, जिनमें अब मुन्ना ही बचे हैं। न्यू हॉस्टल में तब मिनी नरेश की सरपरस्ती में जबरदस्त सरस्वती पूजा होती थी। उसी की गहमागहमी का फायदा उठा कर चंद्रेश्वर सिंह ने पूरे दलबल और तैयारी के साथ बमों से जबरदस्त हमला किया और ऐन सरस्वती पूजा के दिन 1989 में मिनी नरेश की हत्या कर दी। मिनी नरेश का शव बेगूसराय के उनके गांव लाया गया था और सिमरिया में उनका दाह संस्कार हुआ। जिसमें सम्राट भी मौजूद थे। सम्राट का उसके बाद भी उनके जिंदा रहने तक मिनी नरेश के परिवार से प्रगाढ़ संबंध बना रहा। कहते हैं मिनी नरेश की हत्या के एक डेढ़ महीने बाद सम्राट न्यू हॉस्टल गए थे और उनके ही कमरे में चार पांच दिन रुके भी। बताते हैं कि उस समय लड़कों के बीच बैठकियों में वो बार-बार दुहराते थे, 'साल पुरयत पुरयत मायर तै देबय (साल पूरा होते होते मार तो दूँगा ही)।'

अगले ही पल 47 की तड़तड़ाहट से पूरा इलाका थर्रा उठा
ठीक 364 दिन बाद शाम को सम्राट मुजफ्फरपुर के छाता चौक स्थित काजीमोहम्मदपुर थाने के बिल्कुल उल्टी  तरफ सौ डेढ़ सौ मीटर दूर मारुति वैन में कारबाईन लेकर बैठे थे और उनके सामने ही थाने के बगल स्थित अपने घर से निकल चंद्रेश्वर सिंह सड़क पर आए भी लेकिन सम्राट बिना गोली चलाए वापस न्यू हॉस्टल चले आए और पूछे जाने पर पहले तो कहा कारबाइन जाम हो गया था सो गोली नहीं चली। लेकिन रात की बैठकी में कहा कल सरस्वती पूजा है। कल एक साल पूरा होगा सो कल ज्यादे 'धूमधाम' सै मारबय। अगले रोज 1990 की सरस्वती पूजा के दिन छाता चौक पर फिर उसी जगह सम्राट मारुति वैन में बैठे पर  इस बार ए के 47 लेकर। बताते हैं उस दिन झुटपुटा सा अँधेरा घिरने तक चंद्रेश्वर सिंह नहीं निकले और सम्राट इंतजार में। अचानक किसी ने वैन के शीशे पर दस्तक दी 'निकललौ' बोलता हुआ आगे बढ़ गया। चंद्रेश्वर सिंह ने शायद सिगरेट जलाई थी। जिसकी रोशनी में उनका चेहरा चमका और अगले ही पल 47 की तड़तड़ाहट से पूरा इलाका थर्रा गया। डर से हड़कंप में काजी मोहम्मदपुर थाने के स्टाफ ने अपने आपको अंदर बंद कर लिया जो सब शांत होने के आधे घंटे बाद बाहर आए।

बिहार में ए के 47 से पहली हत्या भी दर्ज हो गई
चंद्रेश्वर सिंह गोलियों से छलनी पड़े थे। पोस्टमार्टम में बताया गया लगभग तीस के करीब गोलियां उन्हें मारी गई थीं। ए के 47 के स्टैंडर्ड मैगजीन में तीस गोलियां ही आतीं हैं। मतलब एक बर्स्ट में एक मैगजीन खाली की गई थी। सरस्वती पूजा की धूम और ए के 47 की धाम में सम्राट का बदला पूरा हुआ। इसके साथ ही बिहार पुलिस की फाइलों में बिहार में ए के 47 से पहली हत्या भी दर्ज हो गई थी।

क्रमशः

(कोई किसी किस्म का उपदेश दे या जज करे उससे पहले ही मैं साफ कर दूँ कि उस दौर में बड़े हो रहे हम जैसे मनबढ़ किस्म के लोगों को ऐसे लोग ही जबरदस्त रूप से आकर्षित करते थे और हम भी वैसा ही बनना चाहते थे। लेकिन बदकिस्मती से पढ़ने-लिखने के चक्कर में जगह छूटी और ऐसा हो न हो सका। मेरे बचपन का जिगरी दोस्त जिसकी 2011 में मौत हो चुकी है, मुजफ्फरपुर में ही पढ़ता था और हॉस्टल में रहने के साथ ही मेरे जैसी प्रवृत्ति का ही होने की वजह से सम्राट से गहरे जुड़ा था। सो उसका अहसान है, मुझपर की उसके द्वारा ढ़ेरों फर्स्टहैंड जानकारियां मुझे आपसी बातचीत में ही मिलीं थीं। इसके अलावा सम्राट के लंबे समय तक नजदीकी रहे बेगूसराय के दुलारपुर गांव के एक धानुक जाति के व्यक्ति से जो जाना,सुना और जिया। सम्राट कथा की यह पहली किस्‍त मेंआप पढ़ चुके हैं, बिहार में बाहुबली-1: सबसे पहले कैसे पहुंची ए के 47 राइफल, जानिये अशोक शर्मा के सम्राट बनने की कहानी। यह दूसरी किस्‍त है। तीसरी किस्‍त में आप जानेंगे कुछ और किस्‍से।)



(प्रेम कुमार बिहार के बेगुसराय में रहते हैं। स्‍वतंत्र लेखन करते हैं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।