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स्त्री के विकास में घातक तत्व वासना से बचना होगा और आगे बढ़ना होगा

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आभा बोधिसत्व
स्त्री जब विषय हो जाती है तब मेरा दिमाग तुरन्त सरपट दौड़ने लगता है,फिर मैं मन को समझाती हूं कि रुक कुछ इधर-उधर के तथ्य लिख सच मत कह और लिख। लेकिन आज लिखूंगी। इसलिए कि नाम बदल कर रिपोर्टिंग जैसा लिखूंगी, जिससे न मेरी दोस्त नाराज़ होंगी और न मैं ही। मन मसोस कर सच लिखने से रह जाऊंगी। समाज में स्त्री की सच्चाई वास्तव में स्त्री ही जानती है।
वैसे भी स्त्री दुनिया भर में वस्तु के रूप में इस्तेमाल होती रही है। मुट्ठी भर विरांगनाओं का इतिहास दर्ज भले ही हो जाता हो। इस तरह आजाद भारत की आज़ादी में अपनी वीरता-विरासत को हमेशा के लिए इतिहास में दर्ज करा देने वाली स्त्री शक्ति का नाम भी मैं यहां दर्ज करूंगी, लेकिन सबसे पहले वह सत्य घटना जो मुझे जब-तब सोने नहीं देती, यह सोचते हुए कि पुरुष इतना निकृष्ट भी हो सकता है भला? पुरुष के बहाने स्त्री सत्य ऐसे ही संभव है,जिसे पुरुष कभी नहीं बखानेगा, बल्कि वह तो समाज में खुद को दया की मूर्ति ही साबित करेगा!

तो मैं अपनी मित्र का नाम बदल देती हूं-राधा शेषाद्री। तो राधा शेषाद्री एक दिन अपने पति के साथ बहुत खुशी खुशी गहने खरीदने गई थी। वास्तव में वह बहुत खुश थी। उसने जिस कंगन पर शोकेस के बाहर से हाथ रख कर दिखाया कि उसे वह अमुक कंगन पसंद है। गहने की दुकान की महिला वर्कर ने वह कंगन निकाल कर राधा को दिया। ज्यों ही राधा वह कंगन पहनने को हुई,वह हाथेली के बीच में ही अटक गया! वह जबरदस्ती उसे पहनने की कोशिश करने लगी! क्योंंकि उस दिन उसके हाथ में सूजन थी। आम तौर पर महिलाओं को यह बीमारी होती ही है, कभी कभी हाथ पैर में सूजन हो जाना! उसके पति अमित शेषाद्री ने उसे यह कहते हुए कंगन निकालने के लिए कहा कि उतार दो, क्योंकि तुम्हारे हाथ का खून लग जाते पर तुम्हारा तो कुछ न बिगड़ेगा, बल्कि इनके कंगन खराब हो जाएंगे और ये किसी को बिना पालिश कराए बेच भी नहीं पाएंगी। राधा झेंंप गई थी! उसने कनखियों से देखा, दुकान की महिलाएं भी झेंंप गई थींं। शायद वह सोच रही होंगी कि कैसा पति है, जो गहने भी दिला रहा है और इतना विद्रूप ताना भी मार रहा है। राधा उठने को हुई। लेकिन उसके पति ने फिर जबरदस्ती की कि नखरे मत दिखाओ, मर जाऊंगा तो बच्चों की शादी कैसे करोगी, हैं? खरीद लो सस्ते में मिल जाएंगे, वर्ना फिर भाव चढ़ जाएंगे, खरीद न पाओगी समझीं। अंत में उसने पति के पसंद का सादा सा कंगन खरीदा और घर लौट आई। इतना ही नहीं, जिस अपने दोस्त को उस दिन राधा के पति ने अपने घर पर बुलाया था, उसे भी यह दिखाना था कि वह अपनी पत्नी को कितना संतुष्ट रखता है। दरअसल गहने ही तो हैं आम स्त्री की खुशी के पर्याय हैं,रह खूब जानता था अमित शेषाद्री।

राधा उनमें से नहीं थी। उसके पति को यह भी नहीं पता था कि स्वाभिमानी राधा को दरअसल चाहिए क्या? तिस पर अमित शेषाद्री को यह‌ शक है था कि उसका दोस्त, पुजित कुमार उसकी पत्नी,राधा शेषाद्री को चाहता है।इस तरह वह हमेशा एक तीर से दो शिकार करने का अभ्यासी -अमित शेषाद्री जब अपनी पत्नी के साथ लौटा तो पुजित कुमार उसके घर के बाहर टहल रहा था।
खैर मैं तो उससे यह पूूछने ही गई थी कि वह मेरे साथ कल मार्केटिंग के लिए चलेंगी और देखा तो उसका उदास सूजा हुआ चेहरा देख, मैंने ज्यों ही नर्म लहजे में पूछा क्या हुआ, क्यों उदास हो? तुम्हारी आंखें इतनी लाल क्यों हैं? इस पर बरबस उसके आंसू बह निकले थे। दरअसल मैं भी उस दिन कुछ ठीक नहीं महसूस कर रही थी। मुझे तो और मजबूर राधा दिखी। मैं उसके पास बैठ ही गई! मैंने उसे कसम दिलाया ,बताओ मैं किसी से नहीं कहूंगी।और देखिए नाम बदल कर कह भी रही हूं? क्योंकि यह बात पुरूष समाज का एक जीता - जागता नज़ीर पेश करता है। औरत सामान है! औरत खिलौना है। औरतें निर्जीव वस्तु हैं, भावना रहित? तभी तो उसके मान अपमान का ध्यान पति भी नहीं रखता? 
कितनी अजीब बात है। उस रात राधा के मन को अपनी जगह रख कर देखा तो मैं भी रात भर सोई नहीं! और यह तय किया कि यह मैं कैसे बताऊं किसी को,उसे तो कसम दिलाया था। लेकिन राधा शेषाद्री को कसम नहीं दिलाया था मैंने! सो। खैर कहने को तो यह भी है कि कितने ही पुरुष परकाया प्रवेश कर स्त्री दुःख को समझते हैं। कहते हैं। यह तो सोच-समझ की बात है बिल्कुल उसी तरह जिस तरह, औरतें ही औरतों की दुश्मन होती हैं।


ऐसे स्थिति में पुरुष के लिए सबसे आसान होता है स्त्री को सताना! शायद राधा का मामला भी ऐसा ही हो, वर्ना कोई अपनी पत्नी को ऐसे कैसे कह सकता है भला? उफ्फ़ राधा तुम कितनी मजबूत हो और कितने दिन रह पाओगी नहीं जानती कि ऐसे वाक्य अब तो तुम्हारे जीवन का हिस्सा बन चुके होंगे। वह तो बस एक नजीर था,उस दिन का। 
क्या गजब का खेल खेला है सृष्टि ने, देखिए की स्त्री एक तरफ़ सृष्टि की निर्मात्री है, तो दूसरी तरफ़ उसके साथ दोयम दर्जे की वस्तु सरीखा व्यवहार है! 

रानी झांसी कोई बनने दें तब ना! यहां तो राधाओं की फौज ही जमा है। यह घर की लाज बचाने और नजरें चुराने में ही अपने जीवन का धर्म समझती हैं। जानती हैं कि कोई साथ नहीं देगा। बस जो यह जान जाती कि अपनी लड़ाई खुद लड़नी होती हैं। वे ही ऐसी तमाम परिस्थितियों से लड़ कर निकल हैं। राधा भी जिस दिन यह बात समझ लेगी,उस दिन से उसकी मुश्किलें निश्चय ही कम होंगी।ये नहीं जानती कि मज़बूत हृदय और दृढ़ निश्चय ही जीवन- युद्ध का हथियार है। ज्यादा तर तो अपनी संतान के भविष्य खातिर सब कुछ चुपचाप सह जाती हैं। यह सोच कर कि अपना बिगड़ा तो बिगड़ा, अपने बच्चों का भविष्य क्योंकर बिगाड़ने लगें।बस इनका अंत अर्थी चढ़ कर हीसमाप्त होता है। दो चार अपनों के बीच "बेचारी"शब्द से ही जीवन संतुष्ट !

लीजिए राधा शेषाद्री के वाक्य मेरे भीतर स्त्री का भूत बन कर सवार हैं। जबकि मैं चाहती हूंं अन्य स्त्रियों-औरतों की बात भी करूं।पर राधा पर मुझे बहुत तरस इसलिए आती है कि उसके घर वाले उसे विरांगना समझते हैं,और वह अपनी छोटी सी चारदीवारी के भीतर इतनी मजबूर! देखिए कि औरत और इज्ज़त को कैसे एक साथ बांध दिया गया है कि इस इज्जत लाज की बात, हमारे समाज में सिर्फ और सिर्फ स्त्री के कंधों पर है।
तभी तो उसका पति जब अपनी प्रेमिका से मिलने जाता तो कहता-ठीक से दरवाजा बंद कर लो वर्ना कोई घुस आएगा तो कैसे निपटोगी? डर न भी हो तो डर ऐसे घुसाया जाता है,चोरी पर सीनाजोरी करते हुए। राधा ने देखा था कि वह अपनी प्रेमिका से बातें करता है! सवाल करने पर घर में हाय तौबा मचा देता। उसके बच्चे दुःखी है जाते! उसने इस तरह सवाल करना भी बंद कर दिया।

अमित शेषाद्री की कमजोरी स्त्री थी। जब तब वह स्त्रियों के सामने उसे अपमानित करता था। एक दिन उसका मुझसे पाला पड़ा! मैंने खूब खबर ली ! बुरा न लगे तुम्हें तो कहूं -तुम एक सच्चे नामर्द हो। उसे लगा मैंने उसे सच्चा मर्द कहा! वह मुस्कुराने लगा। उसे लगा उसका काम बन गया मैंने भी राधा के सामने ही फिर दोहराया, आपने सुना नहीं? मैंने क्या कहा-आप सच्चे ना-मर्द= नामर्द हो।वह भौंचक हो राधा को देखने लगा। मैंने राधा से कहा चलती हूं राधा, अपना ख्याल रखना। मैं जानती थी,कि अब राधा को मुझसे मिलने नहीं दिया जाएगा! राधा के घर अगले दिन मैं गई और उसने मेरे मुंह पर अपना दरवाज़ा बंद कर लिया। बेचारी!! यही शब्द मजबूरन मैंने भी दोहराया। क्या मेरे सिवाय राधा का इस दुनिया में कोई नहीं? जिससे बिना झिझक वह अपनी बात कह सके?उसने तो मुझे भी को दिया,अब जब मैं उसके पास जा नहीं सकती तो दुःख कैसे सुन सकूंगी? उसको साहस का पाठ कैसे पढ़ा सकूंगी?

राधा जैसी स्त्रियों की तादाद हर शहर, हर देश में लाखों करोड़ों में है। बस इसी कारण पुरषों का राज चल रहा है! जिस दिन स्त्रियां एक हुई उस दिन पुरषों को डरना होगा। दो दो हाथ करना होगा। तलाक के मामले आंकड़ों के आसमान पर ठहरेंगे।और सबसे पहले बेटियों की मांओं को लड़ना- डटना होगा,अपनी बेटियो के लिए, लड़ो लौट आओ बेचारगी से समझौता मत करो,यह समझाना होगा। तब शायद एक बड़ा युद्ध हो।यानि एक और स्वतंत्रता की लाड़ाई। स्त्री स्वतंत्रता की लड़ाई। स्त्री और पुरुष के बीच लड़ाई ।देखना -सुनना होगा जीत किसकी होगी। भले ही 1947 की भारत की आज़ादी में महिलाओं ने अपना बहुमूल्य योगदान दिया हो। लेकिन इस युद्ध में स्त्री, स्त्री के साथ होगी।दोगली नहीं।जबकि यह एक दिवा स्वप्न है, जरूर। क्या पता सच भी हो,यह सोचने में क्या जाता है। मुखबिर हर जगह होते हैं। यहां भी हो! जैसे मजदूरों के मुखबिर मालिक से मिल कर दोगलापन दिखाते हैं। इस तरह मजदूर फिर मालिक की चंगुल में।

आजादी की लड़ाई जिस तरह जीती गईं।उसी तरह स्त्री की आजादी की लड़ाई भी एक दिन लड़ी जाएगी। धीरे धीरे ही सही, नहीं सुधरा हमारा पुरुष प्रधान समाज तब।जानती हूं,इस लड़ाई के जीत के बाद, बलात्कारी घटनाएं कम होगी। स्त्री रोजगार बढ़ेंगे। बराबरी के हक की लड़ाई का एक मात्र रास्ता है-स्त्रियों एक हो जाओ। पुरुष अपना खेल खेलेगा जरूर,बस स्त्री को दृढ़ रहना होगा। स्त्री होगी भी,पता नहीं? 
खैर स्त्रियों का विकास तभी होगा जब वे जाग जाएं। जागने का मतलब यह कि कुछ भी भावनात्मक न सोच कर तर्क पूर्ण सोचें और उसे परिणति दें। स्त्री के विकास में वासना एक घातक तत्व है, वासना से बचना होगा और विकास की ओर बढ़ना होगा। स्त्री खुद दृढ़ -चरित्र हों तभी संभव है कि पुरुष उसे दोयम दर्जे का ना समझे, संभल कर रहे वह। सहभागिता पूर्ण बर्ताव यानि आपस दारी के लिए रोना नहीं बल्कि कंधे से कन्धा मिला कर चलना होगा।
 
स्वीटजरलैंड और इंग्लैंड में भी स्त्रियों को वोट देने का अधिकार नहीं था। इस अधिकार के लिए उन्हें डटना-लड़ना पड़ा।जबकि यह दोनों देश प्रगतिशील देश कहें जाते हैं। यानि जो कानून आपके विकास में बाधक हों उनका विरोध भी खुद करना होगा। 
पुरुष प्रधान समाज हर कमाई ‌वाला धंधा पुरुष के हाथों सौंपता है, जैसे दर्जी को पैसे मिलेंगे तो वह दर्जी पुरुष ही होगा! सेफ जो की होटलों में या शादी ब्याह के मौके पर खाना पकाते हैं,तो यह पुरुष करेगा। यानि जहां अर्थ है वहां से पुरुष है। ऐसे धंधों में भी स्त्रियों को आगे आना होगा।वे सिर्फ घर की खानसामा और दरजिन बन कर ना जीएं बल्कि आगे आएं। मां एक बेहतर गुरु-शिक्षिका हो सकती है,तो समाज के विकास में घातक कैसे।यह हमारे समाज की सोची-समझी नीति है। इसे तोड़ने का अधिकार भी स्त्री के पास है।



(लेखिका प्रकृति से कवयित्री हैं। "सीता नहीं मैं" उनका चर्चित कविता संकलन है। पिछले 30 सालों से पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक सरोकारों से लैस लेखन। टी.वी.धारावाहिकों के लिए गीत और कहानियां भी लिखीं। रेडियो रुपक धारावाहिक के अलावा फिल्म पोस्टग्रेजूएट का संवाद लेखन। कुछ दिनों मुंबई के सेंट जेवियर्स विद्यालय में पढ़ाया भी। संप्रति मुंबई में रहकर स्‍वतंत्र लेखन)