द फॉलोअप डेस्क
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने गुरुवार रात दिल्ली के AIIMS हॉस्पिटल में अंतिम सांस ली। उन्हें शाम को बेहोश होने के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया था। वे लंबे समय से स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रहे थे। वैसे तो मनमोहन सिंह से जुड़े कई किस्से ऐसे हैं, जिनकी चर्चाएं होती रहती हैं। लेकिन एक बात ऐसी है, जिसकी चर्चा सबसे ज्यादा होती है, वो है यूएस के साथ न्यूक्लियर डील पर अड़ जाना।
बता दें कि डॉ मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनने से पहले पूर्व पीएम पी.वी नरसिम्हा राव के मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री के तौर पर भी कार्य कर चुके हैं। वित्त मंत्री के रूप में उनके कार्यकाल की चर्चा हमेशा होती है। साथ ही किस तरह उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में भारत की विदेश नीति को आकार दिया। डॉ मनमोहन सिंह से जुड़ा एक वाकया जो सभी को याद रहता है, वो है राजनीतिक दलों के कड़े विरोध के बावजूद अमेरिका के साथ असैन्य परमाणु समझौते के लिए बातचीत को आगे बढ़ाना। बता दें कि जब साल 1991 में मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री का पद संभाला, तब भारत गंभीर भुगतान संतुलन संकट (Balance of Payments Crisis) से जूझ रहा था। उस दौरान विदेशी मुद्रा भंडार कम था, जो मुश्किल से 2 सप्ताह के आयात के लिए था। ऐसे में देश को जरूरत थी, साहसिक सुधारों की। ये काम नरसिम्हा राव और डॉ मनमोहन सिंह के जिम्मे था। इस पर दोनों ने सुधार की दिशा में कदम आगे बढ़ाए और डॉ मनमोहन सिंह ने लाइसेंस राज को खत्म करते हुए अर्थव्यवस्था को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के लिए खोल दिया।भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते को आगे बढ़ाने के लिए अड़े
इसके बाद साल 2004 में डॉ मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बने। फिर 10 सालों 2004 से 2014 तक उन्होंने पीएम के रूप में दो कार्यकाल पूरे किए। जानकारी हो कि बाहर से शांत नजर आने वाले डॉ मनमोहन अंदर से दृढ़ निश्चयी थे, उन्होंने दलीय राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्र को प्राथमिकता दी। डॉ सिंह यूपीए गठबंधन में सरकार चला रहे थे। ऐसे में राजनीतिक दलों से मिले कड़े विरोध का सामना करते हुए भी वो भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते पर अडिग रहे और इसे आगे बढ़ाने का फैसला किया।
न्यूक्लियर डील के कारण मुश्किल में पड़ गई थी सरकार
बताया जाता है कि उस वक्त डॉ मनमोहन सिंह तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम की मदद से कुछ दलों को मनाने में सफल रहे थे, जिन्होंने अमेरिका के साथ हो रहे परमाणु समझौते का विरोध करना छोड़ दिया। हालांकि, तब भी वामपंथी दलों की ओर से इस डील का पुरजोर विरोध किया गया था। लेकिन डॉ मनमोहन सिंह भी अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील पर अड़े रहे। इस कारण वामपंथी दलों ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। इस दौरान समाजवादी पार्टी पहले वाम मोर्चे का समर्थन कर रही थी, लेकिन बाद में उसने भी अपना रुख बदलते हुए डॉ सिंह का समर्थन किया था। इस कारण सिंह की सरकार को विश्वास की परीक्षा से गुजरना पड़ा था।क्या हुआ डील से फायदा
अपने दृढ़ निश्चय के ही कारण पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने 18 जुलाई, 2005 को समझौते की रूपरेखा पर एक संयुक्त घोषणा की। यह औपचारिक रूप से अक्टूबर 2008 में लागू हुआ, जो भारत के लिए एक बड़ी जीत थी। साथ ही परमाणु समझौते पर डॉ सिंह द्वारा अपनाए गये सख्त रुख ने भारत और अमेरिका को एक-दूसरे के करीब लाने में भी मदद की। इसके बाद डॉ मनमोहन सिंह ने साल 2008 की आर्थिक मंदी के दौरान जिस तरह देश को आगे बढ़ाया और संभाला, उसका फायदा उन्हें 2009 के लोकसभा चुनाव में मिला। इस वजह से देश में एक बार फिर UPA की सरकार बनी।
अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील को बताया गया 'सिंह का सर्वोच्च गौरव'
साल 2004 में पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार के रूप में नियुक्त हुए संजय बारू ने उनपर एक किताब लिखी है। संजय ने अपनी 2015 की किताब, 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर: द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह' में लिखा है कि परमाणु समझौते पर उनके द्वारा अपनाए गए रुख ने सोनिया गांधी के प्रति उनकी अधीनता की याद को लोगों की सोच से मिटा दिया। इसके साथ ही संजय बारू ने अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील को 'सिंह का सर्वोच्च गौरव' भी बताया है। बता दें कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने 2009 लोकसभा चुनाव में 206 सीटें जीतीं थीं।