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वो बैठकी, वो आंगन, वो कमरा, जहां आज भी जीवित हैं संस्कृति और क्रांति के पुरोधा लेखक फणीश्वर नाथ रेणु

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द फॉलोअप डेस्क 

भारत के साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक इतिहास में कुछ ही ऐसे रत्न हुए हैं जिन्होंने केवल कलम से नहीं, बल्कि अपने जीवन के संघर्षों और विचारों से समाज को दिशा दी। फणीश्वर नाथ 'रेणु' ऐसे ही एक विलक्षण व्यक्तित्व थे। वे न केवल हिंदी साहित्य के अमर कथाकार रहे, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम के वीर सेनानी और लोकतंत्र के सजग प्रहरी भी थे।
एक फेसबूक पोस्ट मे जदयू के राष्ट्रीय महासचिव और पूर्व आईएएस अधिकारी मनीष कुमार वर्मा ने लिखा कि हाल ही में अररिया जिले की यात्रा के दौरान रेणु जी की जन्मस्थली औराही हिंगना, जिसे आज ‘रेणुग्राम’ के नाम से जाना जाता है, जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वर्षों से यह इच्छा मन में थी कि उस पवित्र भूमि पर जाऊँ, जहाँ लोकजीवन की आत्मा को शब्द देने वाला साहित्यकार जन्मा था।
रेणुग्राम पहुँचते ही यह अनुभव हुआ मानो किसी साहित्यिक तीर्थ पर आ गया हूँ। वह आंगन, वह दालान, जहां रेणु जी बैठकर गांवों की कहानियां रचते थे, वहां बैठते ही एक अद्भुत ऊर्जा ने मन को भावविभोर कर दिया। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे वे आज भी इसी गांव के किसी कोने से कोई नई कहानी लेकर लौट रहे हों।
घर के सामने स्थित पुराना डाकघर देखकर स्मृतियां जाग उठीं—यही तो वह स्थान होगा जहां से उनकी रचनाएं देश-दुनिया तक पहुंची होंगी। शायद जब उन्होंने ‘संवदिया’ जैसी रचना की होगी, तो उनके जेहन में यह डाकघर जीवंत रहा होगा।
रेणु जी का जीवन, उनका लेखन और उनकी चेतना सब कुछ सीमांचल की मिट्टी, लोकभाषा और संस्कृति में रचा-बसा है। उन्होंने जिस ग्रामीण भारत की छवि अपने उपन्यासों और कहानियों में प्रस्तुत की, वह केवल साहित्य नहीं, बल्कि भारत के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास का जीवंत दस्तावेज है।
उनकी स्मृतियों से भरे उस घर में कुछ क्षण बिताकर महसूस हुआ कि यह सिर्फ एक लेखक का निवास नहीं, बल्कि भारतीय लोकसंस्कृति और लोकतांत्रिक मूल्यों की एक जीवित विरासत है। रेणु जी के पुत्र पूर्व विधायक श्री पद्मपराग वेणु जी, श्री अपराजित राय 'अप्पू' जी, श्री दक्षिणेश्वर प्रसाद राय जी एवं परिवार के अन्य सदस्यों से मिलकर आत्मीयता और अपनापन का गहरा भाव जागा।
रेणु जी का जीवन केवल साहित्य तक सीमित नहीं रहा। वे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुए और नेपाल के लोकतांत्रिक संघर्ष में भी भाग लिया। 1975 में जब देश में आपातकाल घोषित हुआ और लोकतंत्र को कुचला गया, तब रेणु जी उन विरले साहित्यकारों में थे जिन्होंने खुलकर इसका विरोध किया। उन्होंने न केवल अपनी आवाज उठाई, बल्कि भारत सरकार द्वारा प्रदत्त 'पद्मश्री' सम्मान भी लौटा दिया।
जब अधिकांश बुद्धिजीवी सत्ता के दबाव में चुप थे, तब रेणु जी ने अपने विचारों से लोकतंत्र की अलख जलाए रखी। उनका यह साहस आज भी साहित्य और समाज के लिए प्रेरणा है।
रेणु ग्राम की यात्रा न केवल साहित्यिक रूप से समृद्ध करने वाली थी, बल्कि आत्मा को छू लेने वाली भी रही। यह अनुभव बता गया कि रेणु जी आज भी सीमांचल की मिट्टी, बोली और चेतना में जीवंत हैं।
जिस धरती पर फणीश्वर नाथ रेणु जैसे महान साहित्यकार और जननायक ने जन्म लिया, वह वास्तव में धन्य है। यह यात्रा एक भावनात्मक मिलन थी साहित्य, इतिहास, और आत्मा के साथ।

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