द फॉलोअप डेस्क
1 जुलाई से देशभर में 3 नए क्रिमिनल कानून लागू होते ही उसपर सवाल उठने लगे हैं। कानून के 8 प्रावधानों पर घोर आपत्ति जताई जा रही है। इसमें पुलिस के 3 महीने के हिरासत,जबरन अप्राकृतिक संबंधों के लिए कोई प्रावधान नहीं किया जाने, गैरहाजिरी में मुकदमा सहित 8 नए कानून हैं। वे कौन से कानून हैं जिनपर सवाल खड़े हो रहे हैं इस खबर में हम उसपर विस्तार से बात करने जा रहे हैं। खबर अंत तक पढ़ें।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता यानी BNSS में पुलिस हिरासत की समय-सीमा को 15 दिन से बढ़ाकर 90 दिन कर दिया गया है। अब 90 दिन की रिमांड को एक साथ या टुकड़ों-टुकड़ों में लिया जा सकता है। इसका मतलब है कि आरोपी को तीन महीने तक पुलिस के कब्जे में रखा जा सकता है। अगर 15 दिन पूरे होने से पहले बेल मिल गई, तो पुलिस एक दिन पहले रिमांड के लिए आवेदन दे सकती है और बेल रद्द हो जाएगी। बता दें कि इससे पहले पुलिस अधिकतम 15 दिन तक रिमांड पर रख सकती थी। इसके बाद उसे जेल भेजना अनिर्वाय था। जिसे अब बढ़ाकर 90 दिन कर दिया गया है। इस प्रावधान पर जमकर सवाल खड़े हो रहे हैं। दौनिक भास्कर में छपी खबर के अनुसार एक्सपर्ट का कहना है कि यह जमानत के अधिकार पर अतिक्रमण जैसा होगा। पुलिस लोगों को ज्यादा प्रताड़ित कर सकेगी। अगर कोई 90 दिनों तक रिमांड पर रहेगा तो वकील का खर्च भी बढ़ेगा।
- भारतीय न्याय संहिता-2023 (BNS) का सेक्शन 84 कहता है कि किसी शादीशुदा महिला को धमकाकर, फुसलाकर उससे अवैध संबंध बनाने के इरादे से ले जाना अब भी अपराध माना गया है। ये IPC में एडल्ट्री का ही हिस्सा था। दिक्कत ये होगी कि यदि कोई शादीशुदा महिला अपनी मर्जी से भी किसी के साथ संबंध बनाती है, तो भी पुरुष को ही आरोपी बनाया जाएगा। ये IPC में भी था, जिसे नए कानून में भी पीछे के रास्ते से जारी रखा गया है। इस कानून के जरिए अभी भी महिलाओं की डिग्निटी के अधिकार का उल्लंघन हो रहा है।
- BNS में 'अप्राकृतिक सेक्स' शीर्षक वाली IPC की धारा 377 को पूरी तरह से हटा दिया है। अब एक पुरुष का दूसरे पुरुष से रेप या ट्रांसजेंडर से रेप के पीड़ितों के लिए कोई कानून नहीं है। यानि की अब अगर ऐसा कुछ होता है तो पीड़ितों के पास विकल्प नहीं होगा। बता दें कि, साल 2018 में सहमति से समलैंगिक संबंधों को बाहर करने के लिए इसके सुधार के बावजूद, धारा 377 का इस्तेमाल अभी भी गैर-सहमति वाले अधिनियमों के लिए केस चलाने के लिए किया जाता है। हालांकि, भारतीय न्याय संहिता में इस कानून को हटाया जाना, पुरुष और ट्रांसजेंडर पीड़ितों को यौन उत्पीड़न के मामलों में सहारा लेने के लिए सीमित कानूनी रास्ते छोड़ देता है। वहीं, आज से भारत में बलात्कार कानून लैंगिक रूप से तटस्थ नहीं हैं और 1 जुलाई के बाद पुरुषों और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के साथ रेप गैर-अपराध बन जाएगा। जो चिंता का विषय है।
- BNSS की धारा 37 में प्रावधान है कि हर पुलिस स्टेशन और जिले में एक नॉमिनेटेड पुलिस अफसर होगा। यह अफसर गिरफ्तार किए आरोपी का नाम और पता, उसके खिलाफ लगाए गए अपराध की जानकारी रखने के लिए जिम्मेदार होगा वह ये भी सुनिश्चित करेगा कि यह जानकारी हर पुलिस स्टेशन और जिला मुख्यालय में डिजिटल मोड सहित किसी भी तरीके से प्रमुखता से डिस्प्ले की जाए। इसमें कहा जा रहा है कि डिजिटल मोड में अगर ये सारी जानकारी रहती तो जब तक डीजिटल मोड में यह जानकारी रहेगी तबतक आरोपी के दोषी होने या अपराध में शामिल होने जैसा मान सकते हैं। इसमें आरोपी की जान को खतरा हो सकता है।
- भारतीय न्याय संहिता की धारा 226 के मुताबिक किसी पब्लिक सर्वेंट को ऑफिशियल ड्यूटी से रोकने के लिए सुसाइड का प्रयास करना अब अपराध होगा। अगर सरकारी अफसर या कर्मचारी कोई लीगल कार्रवाई करना चाहता है और उसे कार्रवाई करने से रोकने के लिए कोई भूख हड़ताल, आत्महत्या की धमकी या प्रयास करता है तो उसे अपराध माना जाएगा। इसमें एक साल की सजा और जुर्माना या दोनों हो सकता है। इस कानून के तहत उनके विरोध करने का अधिकार छीन सकता है।
- BNS और BNSS में एक नई सजा ‘कम्युनिटी सर्विस’ का जिक्र किया गया है। BNS की धारा 4 (F) में कहा गया है कि मृत्युदंड, उम्रकैद, कठोर और साधारण कैद जैसी सजाओं के बीच 'कम्युनिटी सर्विस' लगाई जा सकती है।इन दोनों ही कानूनों में कहीं भी यह नहीं बताया गया है कि 'कम्युनिटी सर्विस' क्या होगी। संसद की स्थायी समिति ने विशेष रूप से सिफारिश की थी कि 'कम्युनिटी सर्विस' शब्द को विशेष रूप से परिभाषित किया जाना चाहिए, ताकि भविष्य में कानून को लागू करने को लेकर पैदा होने वाले भ्रमों से बचा जा सके।
- अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 173(3) में ऐसे संज्ञेय अपराध जिनमें 3 से 7 साल की सजा है, उनकी FIR के पहले प्राथमिक जांच करने की बात कही गई है।इससे आम आदमी को भी परेशानी होगी। ऐसे मामलों में प्राथमिक जांच का बहाना देकर पुलिस कर्मचारी FIR दर्ज करने में देरी कर सकते हैं। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट तौर पर ये कहा था कि संज्ञेय अपराधों में सजा की परवाह किए बिना पुलिस अधिकारी को FIR दर्ज करना जरूरी है।
- BNSS की धारा 355(1) में किसी भी अपराध के आरोपी पर उसकी गैरहाजिरी में मुकदमा चलाया जा सकता है और दोषी ठहराया जा सकता है। यदि ऐसा होता है तो ये कैसे कहा जा सकता है कि उसके मामले में निष्पक्ष सुनवाई हुई है।