सुधीर पाल
जातिगत जनगणना को लेकर देश में राजनीतिक दलों में उफान आया हुआ है। लेकिन क्या जातिगत जनगणना से हाशियाकरण की प्रक्रिया नहीं बढ़ेगी? जातिगत जनगणना पर दो कड़ियों के आलेख की पहली कड़ी पढ़ें।
“जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी” — यह नारा आज भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय के प्रतीक के रूप में उभर चुका है। वर्षों से पिछड़े, दलित और आदिवासी समुदाय अपने अधिकारों की हिस्सेदारी के लिए संघर्षरत रहे हैं। ऐसे में जातिगत जनगणना का विचार, जो आंकड़ों के आधार पर न्याय सुनिश्चित करने की बात करता है, निःसंदेह लोकतांत्रिक प्रक्रिया की दिशा में एक साहसिक कदम प्रतीत होता है। किंतु यह सवाल भी उतना ही प्रासंगिक है कि क्या यह कवायद केवल बहुजन बनाम सवर्ण विमर्श तक सीमित रह जाएगी? क्या इससे छोटी जातियों, दलित उप-समूहों और विशेषकर छोटे व विस्थापित आदिवासी समुदायों का हाशियाकरण और अधिक नहीं बढ़ेगा? क्या जातिगत जनगणना पाँचवी अनुसूची के मूल भावना के खिलाफ और और इसे कमजोर भोथर बना देने का एक उपक्रम साबित नहीं होगा।
जातिगत जनगणना की पृष्ठभूमि और राजनीति
भारत में आखिरी बार पूर्ण जातिगत जनगणना 1931 में हुई थी। इसके बाद केवल अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के आंकड़े संकलित किए जाते रहे। 2011 में सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी) हुई, परंतु इसके जातिगत आंकड़े आज तक सार्वजनिक नहीं हुए। वर्तमान में बिहार सरकार द्वारा प्रकाशित जातिगत सर्वेक्षण और उसके बाद केंद्र सरकार पर बढ़ते दबाव ने इसे फिर से राष्ट्रीय विमर्श में ला दिया है। राजनीतिक दल इसे अपने-अपने एजेंडे में शामिल कर रहे हैं। कुछ इसे सामाजिक न्याय का औजार मानते हैं तो कुछ इसे सामाजिक विघटन का कारण। सच्चाई शायद इन दोनों के बीच है।
बड़ी जातियों का प्रभुत्व बनाम छोटी जातियों का हाशियाकरण
जातिगत जनगणना की मांग करने वाले वर्गों में एक बड़ा वर्ग ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) का है। परंतु ओबीसी भी कोई एकरूप समूह नहीं है। मंडल आयोग के बाद जो वर्ग राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से संगठित हुए, उन्होंने आरक्षण का सबसे अधिक लाभ उठाया। यादव, कुर्मी, कुशवाहा, जाट, पटेल, लिंगायत, नायर जैसे सशक्त समूह ओबीसी की छतरी के नीचे सबसे ऊँचे पायदान पर हैं।
इसके विपरीत, लोहार, बढई, दर्जी, नाई, कहार, मल्लाह, तेली, धोबी, बिंद, पासी, नट, बंजारों, घसीयों, डोमों जैसे छोटे और अधिक वंचित जातियाँ अक्सर इन बड़े समूहों की छाया में ही रह गईं। उनकी राजनीतिक हैसियत नगण्य है और प्रशासनिक भागीदारी लगभग शून्य। क्या नई जातिगत जनगणना उनके पक्ष में नया अध्याय खोलेगी या सिर्फ संख्या में भारी वर्गों को और मजबूत कर देगी?
दलित समाज में असमानता
अनुसूचित जातियों के भीतर भी सामाजिक असमानता तीव्र है। चमार, पासवान, वाल्मीकि, धोबी, खरवार जैसी जातियाँ अनुसूचित वर्ग में आते हुए भी अलग-अलग स्तर की सत्ता और पहचान रखती हैं। पंजाब और उत्तर प्रदेश में पासवान और चमार समुदायों का राजनीतिक नेतृत्व है, जबकि वाल्मीकि या मेहतर समुदाय अब भी शहरी सफाई कर्मचारी की भूमिकाओं में कैद है।
जातिगत जनगणना में यदि उप-जातियों की स्पष्ट गणना और वर्गीकृत विश्लेषण नहीं हुआ, तो यह आशंका बलवती है कि बड़ी संख्या वाली दलित जातियाँ, राजनीतिक और सामाजिक लाभों में एकाधिकार स्थापित कर लेंगी, जबकि सबसे वंचित समुदाय और अधिक पीछे छूट जाएंगे।
आदिवासी समाज: बहुलता में एकता या बिखराव का डर?
आदिवासी समाज की बात करें तो यह बहु-जातीय नहीं बल्कि बहु-जनजातीय संरचना वाला समाज है। झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों में सैकड़ों जनजातियाँ हैं — जिनकी जनसंख्या, भूगोल, सांस्कृतिक पहचान और ऐतिहासिक भूमिका अलग-अलग है।
उदाहरण के लिए झारखंड में संथाल, मुंडा, उरांव, हो, खड़िया, बिरहोर, असुर, माल पहाड़िया, परहिया जैसी जनजातियाँ हैं। इनमें से कुछ बड़ी संख्या में हैं, संगठित हैं, तो कुछ जैसे बिरहोर और असुर विलुप्ति के कगार पर हैं। क्या जातिगत जनगणना इन अल्पसंख्यक आदिम जनजातियों (पीवीटीजी) की पहचान, उनकी दुर्दशा और उनके अधिकारों के सवाल को मुख्यधारा में लाएगी? या फिर संथाल-मुंडा-हो जैसे बड़े समूहों की संख्या के सामने वे और अदृश्य हो जाएंगे?
वोट बैंक और आंकड़ों की राजनीति: असमानता की नई भाषा
राजनीतिक दलों के लिए जातिगत जनगणना अब केवल सामाजिक न्याय का उपकरण नहीं, बल्कि एक वोट बैंक साधने का तरीका बनता जा रहा है। यदि यह प्रवृत्ति जारी रही तो जातिगत आंकड़ों का इस्तेमाल नीतिगत सुधार के बजाय, सीटों की बंटवारे, टिकटों की वितरण और रणनीति तय करने में होगा — जो स्वयं में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के भीतर एक खतरनाक मोड़ होगा। इस संदर्भ में डॉ. आंबेडकर का यह कथन याद आता है — “जाति एक सामाजिक बुराई है, और यदि इसे नष्ट नहीं किया गया तो यह लोकतंत्र को ही निगल जाएगी।”
क्या उपाय हैं?
1. डेटा का न्यायसंगत विश्लेषण:
जातिगत जनगणना के आंकड़ों का विश्लेषण केवल संख्या के आधार पर नहीं, बल्कि वंचना, संपत्ति, शिक्षा, स्वास्थ्य और भूमि स्वामित्व जैसे पैमानों पर किया जाना चाहिए।
2. उप-समूहों की पहचान:
जैसे एससी वर्ग के भीतर महादलित वर्ग को पहचाना गया, वैसे ही ओबीसी और एसटी वर्ग के भीतर भी सबसे वंचित और अल्पसंख्यक समूहों की स्पष्ट पहचान और उनके लिए विशिष्ट नीति की आवश्यकता है।
3. पीवीटीजी और छोटे समुदायों के लिए आरक्षित नीतियाँ:
वर्तमान आरक्षण व्यवस्था में इन समुदायों की हिस्सेदारी नगण्य है। इसलिए उनके लिए पृथक संवैधानिक प्रावधानों की मांग को गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
4. सामाजिक आंदोलन और विमर्श का विस्तार:
केवल ‘संख्या’ को ही न्याय का आधार न बनाते हुए, सामाजिक न्याय को पुनर्परिभाषित करने की ज़रूरत है — जिसमें विविधता, पहचान, और ऐतिहासिक उत्पीड़न का भी समावेश हो।
जातिगत जनगणना एक ऐसा दुधारी हथियार है, जो न्याय की राह भी खोल सकता है और नई विषमता की दीवार भी खड़ी कर सकता है। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि इसे कौन चला रहा है — उद्देश्य क्या है और नीति किसके लिए बन रही है। यदि सामाजिक न्याय का उद्देश्य केवल बहुसंख्यकों को अधिक प्रतिनिधित्व देना रह गया, तो यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ होगा। न्याय तब तक अधूरा है जब तक सबसे हाशिये पर खड़े व्यक्ति की गिनती, उसकी पहचान और उसकी आवश्यकता को समझा और स्वीकारा न जाए।
इसलिए यह जरूरी है कि जातिगत जनगणना को सिर्फ चुनावी उपकरण न बनाया जाए, बल्कि इसे सामाजिक पुनर्गठन के माध्यम के रूप में देखा जाए — जहाँ सत्ता, संसाधन और सम्मान, सभी के बीच न्यायसंगत ढंग से बाँटे जाएँ।