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वसीम रिज़वी के जितेंद्र नारायण त्यागी बनने से भाजपा का क्या होगा भला, समझिये

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दीपक असीम, इंदौर:

उत्तर प्रदेश शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी अब जितेंद्र नारायण त्यागी हो गए हैं। डासना के चर्चित मंदिर में पिछले दिन उन्होंने यति नरसिहांनंद गिरि की उपस्थिति में मंत्रोच्चार के बीच सनातन धर्म स्वीकार किया। हालांकि देश में हिंदुओं की कमी नहीं है। पिचासी प्रतिशत लोग यहां हिंदू ही हैं। इसलिए जब वसीम रिज़वी करोड़ों लोगों की भीड़ एक हिंदू हो जाएंगे तो उनका सारा महत्व खत्म हो जाएगा। फिर चाहे वे एकादशी का व्रत रखें, रोज़ गंगा स्नान करें, सुबह उठकर घंटे घड़ियाल बजाएं, आरती करें कोई नोटिस नहीं करने वाला। करोड़ों हिंदू सुबह शाम यह सब करते हैं और यह उनकी अपनी निजी आस्था का विषय है।

वसीम रिज़वी की बातों को इतना महत्व इसलिए मिलता है कि वे मुस्लिम होकर मुसलमानों और इस्लामिक हस्तियों के खिलाफ बात करते हैं। ऐसे हिंदू तो बहुत हैं, जो मुसलमानों को कोसते हैं। सांप्रदायिक तत्वों के नज़दीक उनकी कोई कीमत नहीं। मज़ा तो तब है कि जब मुस्लिम नामधारी व्यक्ति भाजपा का झंडा उठाए, मुस्लिम नामधारी व्यक्ति मुसलमानों के खिलाफ बात करे। क्या मुख्तार अब्बास नकवी हिंदू नहीं हो सकते थे? क्या उनका ईमान इतना मज़बूत है कि वे कोई और धर्म नहीं अपना सकते? उन्हें पता है कि हिंदू होने की घोषणा सोने का अंडा देने वाली मुर्गी की गर्दन काटने जैसा है। एक दिन की वाहवाही फिर नए नाम के साथ गुमनामी की दुनिया की स्थायी नागरिकता। फिर कौन पूछता है।

 

UP Shia Waqf Board Wasim Rizvi becoming Jitendra Narayan Singh Tyagi see  photos भगवा वस्त्र, माथे पर त्रिपुंड, मंदिर में पूजा, देखिए वसीम रिजवी से जितेंद्र  नारायण सिंह त्यागी ...

जो मुसलमान भाजपा का झंडा उठाते हैं, वे जानते हैं कि उनका महत्व उनके मुस्लिम होने के बावजूद भाजपाई होने में है। भाजपा उन्हें तब आगे करती है, जब उस पर आरोप लगता है कि वो अल्पसंख्यकों को सता रही है। असल में किसी मुस्लिम का हिंदू होना भाजपा के लिए नुकसानदेह है। किसी मुस्लिम का हिंदू होना यानी भाजपा के टारगेट में एक शख्स की कमी होना। अगर सारे मुस्लिम हिंदू हो जाएं तो सबसे ज्यादा नुकसान किसका होगा? अगर सारे मुसलमान इस देश से कहीं चले जाएं तो भाजपा तो मुद्दाविहीन हो जाएगी।

 

इसलिए वसीम रिजवी अपने पैर पे कुल्हाड़ी मार रहे हैं। चालाक मुस्लिम जानते हैं कि भाजपा के नज़दीक उनका क्या इस्तेमाल है। इसलिए वे भाजपा के कार्यक्रमों में मार तमाम टोपी लगाकर, दाढ़ी रखकर, मूंछें साफ करवा कर, सुरमा लगाकर जाते हैं कि अलग ही पहचान में आएं। भाजपा की रैलियों में क्यों कुछ औरतों को बुरका पहनाकर शामिल किया जाता है? ताकि उन आलोचकों का मुंह बंद हो सके, जो भाजपा को अल्पसंख्यकों का दुश्मन निरूपित करते हैं।

हो सकता है कि वसीम रिज़वी खुद हिंदू होने के बाद और मुसलमानों को हिंदू होने के लिए प्रेरित करें। वे ऐसा भी कर सकते हैं और जाहिर है कि हिंदू होने के बाद के कुछ काम उन्होंने भी सोच रखे होंगे। वे जो भी सोचें, जो भी करें, मगर उस सब में उन्हें कोई ज्यादा सफलता नहीं मिलने वाली है। उन्हें अपने नए नाम के साथ पहचान बनाने में ही बड़ा वक्त लगने वाला है क्योंकि वसीम रिज़वी तो धर्मांतरण के बाद समाप्त ही जाएगा। वसीम रिज़वी का नाम मिटते ही सांप्रदायिक तत्वों की दिलचस्पी भी उनमें समाप्त हो जाएगी। हो सकता है कि वे थक हारकर फिर से वसीम रिज़वी होना चाहें।

 

(इंदौर के रहने वाले दीपक असीम स्‍वतंत्र लेखक हैं। )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।