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गांव की ऐसी अनूठी प्रेम कहानी, जो न अब तक सुनी होगी, न पढ़ी होगी

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कर्ण सिंह चौहान
हुआ यों कि गाँव की पाठशाला में एक लड़का और एक लड़की चौथी कक्षा में पढ़ते थे। महीने में एक बार सबके लिए जरूरी था कि वे अलस्सुबह उठकर निश्चित दिन पाठशाला में झाड़ू दें जिससे कि स्कूल खुलने पर सब बच्चे साफ जमीन पर बैठ सकें।
पाठशाला गाँव के बीचों-बीच थी और लड़के का घर गाँव के एक छोर पर। संयोग ही था कि लड़की का घर पाठशाला की बगल में था।
जब एक दिन लड़की ने लड़के को झाड़ू लगाते देखा तो वह भागकर आई और उसके हाथ से झाड़ू छीन ली -
"अगली बार से तुम मत आना, मैं तुम्हारी बारी पर झाड़ू लगा दिया करूँगी।"
" क्यों ?"
" क्योंकि तुम्हारा घर इतना दूर है और मेरा घर इतना पास ।"
" सच ?"
" सच"
और इसके बाद से उसकी पारी पर लड़की पाठशाला में नियम से झाड़ू लगा देती।
सोचने के लिए तो यहाँ कई सवाल हो सकते हैं। मसलन यह कि लड़की ने उसे ही झाड़ू लगाते क्यों देखा ? झाड़ू तो रोज ही कोई-न-कोई लगाता था। उसने केवल उसी के लिए झाड़ू लगाने में क्यों दिलचस्पी दिखाई जबकि छोर से तो कई लड़के आते थे ? उसने उसकी बारी में झाड़ू लगाने के कर्म को इतनी गंभीरता से क्यों लिया, बच्चे तो इतना गंभीर नहीं हो सकते ?
लेकिन ये सवाल तो तर्क बुद्धि के हैं जो बड़ों का व्यसन है। इनके आधार पर इसमें जरूर किसी विशेष आकर्षण को ढूँढा जा सकता है और प्रेम के अंकुर का उन्नयन माना जा सकता है। लेकिन बच्चे इतना सोच-विचार नहीं करते । इसे बाल सुलभ क्रीड़ा माना जाय तो भी चलेगा।
दोनों के बीच इस विषय पर फिर कभी कोई बातचीत नहीं हुई, न सीधी कभी मुलाकात ही हुई। दोनों अलग-अलग कक्षाओं में थे। हाँ, कभी-कभार आते-जाते सामने पड़ जाते तो थोड़ी-सी मुस्कान ओठों पर आ जाती और बस।
ऐसे ही दो साल बीत गए और इसमें विशेष जोड़ने के लिए कुछ नहीं है। अपनी तरफ से जोड़ने के लिए भी तो कुछ आधार चाहिए। लेकिन यहाँ तो हालत यह है कि उन दोनों में से किसी ने इस बारे में अकेले में भी कभी कुछ सोचा हो, इसका भी भरोसा नहीं।
जमींदार परिवार का होने के कारण लड़का भला गाँव के स्कूल में ज्यादा क्यों रहता, सो पाँचवीं करते ही उसे बड़े शहर पढ़ाई के लिए भेज दिया गया और वहीं छात्रावास में रखा गया । गाँव की लड़की की पढ़ाई तो बस रस्म अदायगी है कि चार अक्षर सीख जायगी तो ससुराल वाले मानेंगे कि बहू अंग्रेजी पढ़ी है। सो पाँचवी के बाद ही घर बिठा लिया।
उसके बाद शादी तक वही किया जो अक्सर लड़कियाँ घर में रहकर करती हैं । इस तरह झाड़ू ने जो थोड़ा बहुत सूत्र जोड़ा था, आगे जाकर वह भी टूट गया । अलग-अलग छोरों पर चलती जिंदगियों को तो यह तक अहसास नहीं कि कोई सूत्र नाम की चीज थी भी । फिर कभी दोनों की भेंट नहीं हुई । छुट्टियों में लड़का जब घर आता भी तो मुलाकात का सवाल ही नहीं उठता।
फिर लड़का ऊँची पढ़ाई और शहर के जीवन में रमता गया और इस बीच लड़की की शादी किसी दूर-दराज के गाँव में हो गई । मैं सच में यह सोच रहा हूं कि झाड़ू के बहाने जो बाल-सुलभ आकर्षण बना है आगे की ये दुनियावी घटनाएं उसे बेहद रूखे तथ्यों में बदल देने वाली हैं । और मैं अपने शब्दों की कला से चाहे जितनी कोशिश कर लूं, पर उसे रोमांस की रंगत में रंगने का काम तो होना असंभव ही है।
कहानी शुरू करते समय तक मेरा अंदाजा था कि मैं इसे कुछ नया मोड़ दे लूंगा लेकिन जीवन के रूखे गद्य ने स्वयं मेरे उत्साह पर भी पानी फेर दिया है । जब शादी हो गई तो अब बचा क्या ! इसलिए कायदे से इस बेबात उठाए किस्से को यहीं छोड़ देना चाहिए था।
लेकिन संयोग ही कहिए कि पहले जैसे सूत्र की तरह एक और सूत्र मिल गया।
लड़का कालेज की छुट्टियों में घर आया हुआ था । काम-धाम कुछ विशेष यहाँ था नहीं । इसी बीच में गाँव से बारात किसी दूसरे गाँव जाने लगी । लड़के ने सोचा कि चलो थोड़ा शगल रहेगा और गाँव के लोगों के साथ कुछ घुलना-मिलना भी हो जायगा।
दरअसल उसे परेशानी होने लगी थी कि बचपन के सहपाठी-तो-सहपाठी, गाँव के बुजुर्ग भी उसे बेहद काबिल, अंग्रेज, बुद्धिमान और विशिष्ट मानने लगे थे । इससे उसे बहुत अकेला और अजनबीपन महसूस होता था। उसके साथ तमाम खेलों में शरीक रहे उसके बचपन के सहपाठी उससे ऐसे बात करते जैसे वह कहीं विलायत से आया है। उसने सोचा बारात में शामिल होकर और तमाम रस्में पूरी करके वह उन्हें विश्वास दिला देगा कि वह उन्हीं में से एक है।
बारात का आखिरी दिन विदाई का होता है। विदाई के बाद वापस चलने से पहले एक रस्म होती है कि बाराती उस गाँव में ब्याही अपने गाँव की सभी लड़कियों के घर जाते हैं और उन्हें कुछ पैसे और कपड़े नेग स्वरूप देते हैं। यह कितनी सुंदर रस्म है। लड़की चाहे किसी भी जाति की हो, पर है तो गांव की ही। उसके घर जाकर उसे यह अहसास कराया जाता है कि तुम्हारे गांव के लोग आए हैं मिलकर व्यवहार करने। लड़कियां या कहें उस गांव में बहुएं, बारात के आखिरी दिन अपने मायके से आए लोगों की प्रतीक्षा करती हैं और उनके लिए कुछ पकवान और चाय पानी का प्रबंध करके रखती हैं । गांव में भले ही किसी से कुछ भी संबंध हो लेकिन वहां तो सब भाई ही हैं, इसलिए आरती भी उतारती हैं और टीका भी लगाती हैं ।
विशिष्ट समझकर बारात ने लड़के को ही गांव की लड़कियों से मिलनी का यह जिम्मा सोंपा। पाँच-सात लोगों के साथ वह गाँव की लड़कियों के घर जाता, आरती उतरवा टीका लगवात, उन्हें प्रणाम करता और हालचाल पूछकर भेंट देता। फिर खान-पान होता। वह किसी लड़की को नहीं पहचानता था लेकिन लड़कियाँ उसे देखते ही जान जातीं कि ठाकुर का बेटा विदाई देने आया है, धनभाग्य कि वह नेग निभा रहा है।
इसी में लड़के का सामना अचानक झाड़ू वाली लड़की से हुआ। दोनों ने एक दूसरे को देखा तो वही हँसी ओठों पर आ गई। वह तो देखकर दंग ही रह गया।
"अरे इत्ती बड़ी हो गई तू । पूरी गृहस्थिन लग रही है।"
" तुम भी तो देखो कितने बड़े लग रहे हो। हाय मैय्या..." कहते वह भीतर भागी और उसने तवे की कालिख लाकर उसके माथे के कोने पर लगा दी। किसी को विचित्र नहीं लगा क्योंकि विदाई देने वाला कोई भी मायके वाला भाई ही तो हुआ न।
" ये क्या करती हो ?"
" मुद्दत बाद देखा है, कहीं मेरी ही नजर न लग जाय।"
आज उस बड़ी और विवाहित हो गई बचपन की उस लड़की को उसने लड़के के रूप में ठीक से देखा। सोने से रंग की वह लड़की भरी-पूरी और सुंदर निकल आई थी। आज पहली बार इसकी ओर ध्यान गया और वह कुछ देर देखता ही रह गया।
"अच्छा ये बता मेरे पीछे से भी पाठशाला में झाड़ू दी या नहीं ?"
" तुम क्या जानो । वह झाड़ू तो मैं शादी के वक्त भी टांड पर छिपाकर रख आई हूँ।"
यह झाड़ू वाली बात अचानक ही दोनों को याद आई जिससे यह नया सूत्र पूराने सूत्र से कहीं उलझ गया।
बैठकर नाश्ते के समय इधर-उधर की बातों के बाद लड़के ने भेंट दी और विदा माँगी । लेकिन इतनी सी देर में उसकी आँखों ने सब देख-समझ लिया । कैसी जवान हो गई है वो छोटी सी चंचल लड़की। आँखों में पुरानी शरारत के साथ एक उदासी सी मिली है । पहली बार लगा कि एक आत्मीय को छोड़कर जाना हो रहा है ।
यह नया सूत्र भी बस यहीं तक था। उसके बाद फिर दोनों इसे भूल गए। लड़का शहर में अपनी पढ़ाई में लगा और लड़की घर-गृहस्थी में। वह छुट्टियों में बीच-बीच में गाँव आता लेकिन यह फिर कभी ध्यान में न आया। लड़की भी ससुराल में घर-गृहस्थी के झंझट में इस तरह फँसी कि कुछ सोचने की फुरसत कहाँ।
एक बार लड़का छु़ट्टियों में गांव आया हुआ था। ऐसे ही किसी बात में माँ ने जिक्र किया कि देखो फलाँ की लड़की बेचारी । अच्छी-भली गृहस्थी थी कि चार महीना पहले बेचारी का पति मर गया। गोद भी नहीं भरी। अब यहीं घर आ गई है ।
लड़के को बडा़ दुख हुआ यह सुनकर। अजीव खेल है जिंदगी भी। इस लड़की की जिंदगी पूरी परिक्रमा लगाकर चुक गई और उसने तो अभी शुरू भी नहीं की। बस इतना ही और कुछ नहीं।
लड़के के परिवार ने उसके रहने का प्रबंध घर से लगी बैठक में कर दिया था। एक दिन घर में खाना खाते वक्त देखा कि लड़की आई है। वह उठ खड़ा हुआ लेकिन नहीं जानता सांत्वना में क्या कहे। लड़की ने देखा तो अबकी मुस्करा नहीं पाई।
"किसी काम से घर जा रही थी, पता लगा बाबूजी आए हुए हैं सो देखने चली आई।"
कुछ देर तक दोनों एक दूसरे को ताकते खड़े रहे। माँ ने पुचकार कर लड़की को पीढ़े कर बिठाया और तसल्ली देने लगी। काफी देर तक यही सब होता रहा। इस बीच में वह उन्हें वहीं छोड़ बैठक में चला आया और कोई किताब खोल पढ़ने लगा। कुछ देर बाद माँ लड़की के साथ बैठक में आ गई। लड़की ने इधर-उधर देखा और कहा,
"अम्मां देख तो, भला शहर के लोग ऐसे धूल-धक्कड़ में रहते हैं ?"
वह सीधे घर में गई और झाड़ू लेकर कमरा बुहारने लगी। लड़के ने मना किया तो बोली,
"अम्मां पता है जब ये गाँव के स्कूल में थे तो मैं इनकी पारी का झाड़ू लगाती थी पाठशाला में । लगा देने दो न, कुछ तो मन हल्का हो । जिंदगी में जब भी झाड़ू उठाया तो यही खयाल आया इनके लिए ही लगा रही हूँ..."
इसे इस प्रेमकथा की चरम सीमा मानना चाहिए क्योंकि इसके बाद लड़का वापस चला गया और आज तक नहीं लौटा।


लेखकीय वक्‍तव्‍य: दो दशक पहले छपे मेरे पहले कहानी-संग्रह ‘यमुना कछार का मन’ की यह सबसे छोटी कहानी है। ग्रामीण जीवन और चरित्रों पर लिखी बड़ी कहानियों में मुझे यह आज भी आत्मीय लगती है।
(डॉ॰ कर्ण सिंह चौहान वरिष्ठ लेखक और आलोचक हैं। इनकी एक दर्जन से अधिक आलोचना-पुस्तकें, कविता-संकलन, कहानी-संग्रह, यात्रा-वृत्तांत, डायरी और अनुवाद प्रकाशित हैं। मूल रूप से दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया लेकिन कई वर्षों तक सोफिया विश्वविद्यालय बल्गारिया, सिओल, कोरिया में अतिथि प्रोफेसर के रूप में अध्यापन किया। संप्रति दिल्‍ली में रहकर स्‍वतंत्र लेखन)