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विवेक का स्‍वामी-9: सच्चे अर्थों में शिक्षित होने से ढकोसलों और रूढ़ियों से मिलेगी मुक्‍ति

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कनक तिवारी, रायपुर:

ब्राह्मणत्व कहलाने के झूठे अहंकार के सहारे सत्ता पर कब्जा की कोशिश में दक्षिणपंथी तत्व विवेकानन्द के जनविस्फोटक विचारों से जानबूझकर कन्नी काट जाते हैं। विवेकानन्द की उनकी बनाई पाखंडी व्याख्या विवेकानन्द को ठीक ठीक नहीं उकेरती। उनके विचारों का उल्था करने में समकालीन ताजातरीन भाषा की अभिव्यक्ति जरूरी है। विवेकानन्द में तत्कालीन शब्दार्थों से कहीं ज़्यादा भविष्य के निहितार्थ छिपे रहे हैं। कालजयी आह्वान ऐसे ही होते हैं।शूद्रत्व अर्थात निम्न वर्ग से उत्पन्न समझे जाते अपमान झेलते वे निजी तौर पर भुक्तभोगी भी थे। उनका सामाजिक विद्रोह उनकी करुणा का ही कारगर ऐलान था। वे बार बार कहते हैं, ‘मतछुओवाद‘ मानसिक बीमारी है। जागरूक मस्तिष्क से उपजी घृणा के कारण वे कुलीन वर्ग को ही मानसिक रोगी घोषित करते हैं। इतिहास के ऐसे मोड़ पर विवेकानन्द में कम्युनिज्म के सिद्धान्तों का स्फुरण भी होता लगता है। मार्क्सवादी द्वन्द्वात्मक अवधारणाओं को बूझे बिना समाज सुधार के किसी भी आन्दोलन की सफलता पर विवेकानन्द को भी संदेह था। उन्होंने तज़वीज़ की कि समाज में आर्थिक आधारों पर बराबरी को मूर्त रूप दिया जाए। तब तक छिटपुट प्रयोगों के जरिए सामाजिक संरचना को बदलने का बचकाना प्रयोग नहीं करना चाहिए। शोषितों में शिक्षा और सांस्कृतिक रुचियों का परिष्कार तथा आर्थिक संरचना का सरंजाम किए बिना सामाजिक समरसता के नाम पर वंचितों को भारत-आत्मीय नहीं बनाया जा सकता। यह ऊहापोह और विरोधाभास विवेकानन्द को बंगाल में ज़्यादा स्पष्ट दिखता रहा है। 

 

उनकी समझ में तत्कालीन बांग्ला समाज कुलीन ब्राह्मणों की हिदायतों के आक्टोपस या अमरबेल में जकड़ा उन्हें लगता रहा। ये सामाजिक दुर्गुण इतिहास के मध्यकाल के पूर्व तक समाज में वाचाल नहीं थे। मनु, नारद, पाराशर और कात्यायन जैसे ऋषियों ने सदियों पहले सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ सुविचारित आह्वान किए ही हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र ने भी सामाजिक कुरीतियों के मुकाबले उठ खड़े होने की तरकीब और समझाइश सुझाई है।   इन सब हिदायतों के होते हुए भी उन्नीसवीं सदी में देश कुरीतियों, कुप्रथाओं और कुत्सित विचारों का कूड़ाघर बनता गया था। विवेकानन्द ने कुछ पुरानी संहिताओं और स्मृतियों के कथन तक का भी नकार किया क्योंकि प्रावधानित व्यवस्थाएं और हिदायतें कुलीन वर्गों तथा शूद्रों के लिए अलग अलग स्थापित होती हुई पाई गईं। विवेकानन्द ने यही पाया कि अंग्रेज़ों की गुलामी का काल इतिहास के अंधकार युग के रूप में कुख्यात होगा। उन दिनों भी अज्ञानी पुरोहितशाही और सामन्ती नस्ल के कारण हिन्दू धर्म की नीतिविरोधी व्यवस्थाओं और रूढ़ियों को प्रतिनिधिक व्यवहार संहिता बनाकर हलक में ठूंसा जाता रहा है। 

जाति प्रथा और विधवा विवाह संबंधी विवेकानन्द का कथित समर्थक कहा जाता नज़रिया आलोचना का शिकार होता रहा है। सवाल है अन्यथा आधुनिक विचारप्रवर्तक होने के बावजूद जाति प्रथा के खिलाफ और विधवाविवाह के समर्थन में विवेकानन्द सकारात्मक क्यों नहीं समझे गए? जातिप्रथा पर विवेकानन्द ने संगत तथा विरोधाभासी भी लगते कई उल्लेख किए हैं। हिंदुस्तान के जीवन की अभिशाप हो गई जातिप्रथा उन्नीसवीं सदी में हर समाजसुधारक के सामने सबसे बड़ी चुनौती बनकर इतरा रही थी। अमूमन यह बुराई हिन्दू धर्म में स्थायी हो गई है। विवेकानन्द ने हालांकि परन्तु जोड़ा कि यूरोपीय समाजों में भी जाति प्रथा का ज़हर घुला हुआ है। वहां जातिप्रथा की समझ, विस्तार और दुष्प्रभाव समानांतर है, लेकिन दोनों में प्रकृतिभेद है। 

 

राजा पियारी मोहन को 18 नवंबर,1894 को विवकानन्द ने लिखा ’’मेरी समझ में भारतवर्ष के पतन और अवनति का एक मुख्य सबब जाति के चारों ओर रीति रिवाजों की एक दीवार खड़ी कर देना था। उसकी बुनियाद दूसरों की घृणा पर स्थापित थी, और उनका यथार्थ उद्देष्य प्राचीन काल में हिन्दू जाति को आसपास वाली बौद्ध जातियों के संसर्ग से अलग रखता था।(वि.सा. 3/331) विवेकानन्द ने माना कि शुरुआत में वे जाति प्रथा के कट्टर विरोधी होना चाहते थे। धीरे-धीरे तटस्थ मूल्यांकन करने से उन्हें आश्वस्त होना पड़ा कि इन प्रथाओं की बुनियाद में कोई समाजवैज्ञानिक सोच भी रहा होगा। उसकी विश्वसनीयता और विसंगति से असहमति तो हो सकती है लेकिन उसकी अनदेखी करने से जातिप्रथा की बुराइयों की जड़ में चाणक्य की तरह तत्काल मठा नहीं डाला जा सकता। 

 

 

जाति प्रथा के समर्थन में विवेकानन्द ने अनुकूल या निशर्त पैरवी भी नहीं की। समाजवैज्ञानिक की हैसियत से वे जानते थे कि जब तक भारत का हर नागरिक सच्चे अर्थों में शिक्षित नहीं हो जाता, तब तक ढकोसलों, परंपराओं, रूढ़ियों, पूर्वग्रहों और समूचे अज्ञान को लेकर उनके दिमाग को आधुनिकता में रोशन करना मुमकिन नहीं होगा। जाति प्रथा के दुष्प्रभाव से मेहनतकश इन्सानों का ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैष्य कहलाते समाज शोषकों ने निम्नतर और हीनतर सामाजिक स्थितियों में ला ढकेला। यह आचरण पूरी तौर पर हिन्दू धर्म के आधारभूत सिद्धातों का मखौल था। बेलाग शैली में उनका कहना है, ‘तुम हिन्दुओं का कोई धर्म नहीं है। तुम्हारा ईश्वर रसोईघर में है। तुम्हारी बाइबिल खाना पकाने के बर्तन हैं। लोगों ने वेद तो छोड़ दिए हैं और तुम्हारा सारा दर्शन रसोईघर में आ गया है। भारत का धर्म हो गया है ‘मत छुओवाद‘, मौजूदा हिन्दू धर्म के पतन की पराकाष्ठा।‘

 

( जारी )

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(स्‍वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।