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साहब! सरकार तक हमारा दर्द जरूर पहुंचा देना कि मरहम मिल जाए !!

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मूलभूत नागरिक सुविधाओं से वंचित असुर के गांव गढ़ाटोली और कोरवा गांव उमाटोली पहली बार पहुंचा मीडिया




सैयद शहरोज कमर, रांची:
चैनपुर, गुमला से लौटकर 

छत्तीसगढ़ से लगे गुमला जिले के चैनपुर प्रखंड से आप जंगली पथरीले रास्ते से जब उथले कटोरे से पठार डोका पाट पहुंचते हैं, तो थकन तस्दीक करती है कि महज 22 से 24 किलोमीटर का मार्ग कितना दुर्गम था। रास्ते में जली एक वैन ने बताया कि समूचे इलाके में नक्सलियों की पैठ बरक़रार है। पाट की ऊंचाई समुद्री सतह से लगभग 3000 फीट होगी। समतल पाट के चारों ओर सागवान, आम, आंवला और शाल आदि के वृक्षों की लंबी कतारों के बीच शृंखलाबद्ध छेड़िया टोंगरी पहाड़ों के गहरे नीचे और ऊपर ऐसे गांव बसे हैं, जिसमें विलुप्त हो रही आदिम जनजाति असुर रहती है। वो असुर जिन्हें लोहा का आविष्कारक बताया जाता रहा है। आज उनके हौसले लोहे से चट्‌टानी जरूर हैं, लेकिन वो भट्‌ठी गांवों से गायब है, जिससे पत्थरों को गलाकर लोहे निकाला करते थे। डोका पाट में त्रिभुजाकार 3 किमी सड़कें दो साल पहले प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तेहत बनी हैं। हमारी टीम बाइक से जब आगे बढ़ती है, तो चौड़ी पगडंडी मिलती है। साथ-साथ पेड़ चलते हैं। हमें बाइक से उतरना पड़ता है। हरियाले खेत की बाहों में टीले पर ग्राम सनई टांगर बसा है। यहां से करीब 6 किमी अंदर गांव गढ़ाटोली है। 



कीचड़ से लथपथ सुअरों के बीच धमाचौकड़ी करते कुछ बच्चे 
कीचड़ से लथपथ सुअरों के बीच कुछ बच्चे धमाचौकड़ी करते मिले, हम अनजान को देख सहम से गए। कैमरा ने तो उनके होश फाख्ता कर दिये। मैट्रिक पास जोगेश्वर असुर बताते हैं कि मीडिया के लोग आज तक उनके गांव नहीं पहुंचे। नए चेहरे और कैमरे बच्चों के लिए अनजान ही हैं। हालांकि नन्ही सविता कुत्ते के एक बच्चे के साथ खेलती ही रही। खुले दरवाजे की ओट में खड़े बच्चे मनुहार के बाद बाहर आए, ताे सहज हुए। विनिता, झलकी, संदीप और प्रदीप ने बताया कि दो घंटा पैदल चलकर वो कक्षा पांच में पढ़ने ककरंगपाट प्राथमिक स्कूल जाते हैं। अखड़ा जैसे चबूतरे के पार कर्मा असुर और माझी असुर एक महिला को बोझा में ढाेकर लाते हुए दिखे। जिसे वो गेड़वा बोलते हैं। बताया कि चैनपुर अस्पताल ले जा रहे हैं। पहाड़ से जाने में कठिनाई तो है, लेकिन समय कम लगता है। गढ़ाटोली और बेसनपाट सहोदर गांव हैं। असुरों के लगभग 50-55 घर। न बिजली, न सड़क, न पानी। स्कूल और अस्पताल कोसों दूर। कुछ दिनों पहले एक गर्भवती ने अस्पताल जाने से पहले ही दम तोड़ दिया था। डोका पाट के ईदगिर्द हमने आधा दर्जन असुर और कोरवा बहुल गांव की जमीनी हकीकत जानने की कोशिश की। 


हर गांव की कहानी दर्दीली

हर गांव की कहानी दर्दीली मिली। कोई सरकारी कर्मचारी तक नहीं आता।  लेकिन तमाम मूलभूत सुविधाओं से वंचित हाेने के बावजूद जिंदगी जीने की उनकी ललक पहाड़ सी अटल, पौधे सी मुलायम और जल सी तरल है। पानी के लिए वो प्राकृतिक स्रोत पर निर्भर हैं, दाढ़ी किसी-किसी गांव से दूर भी है, पर उन्हें इसकी चाहत भी नहीं कि उनके पास चापाकल होता। बुज़ुर्ग मदन असुर की आंखों में रौशनी ज़रूर कम है, लेकिन वे बच्चों को विकास के प्रकाश दिखाना चाहते हैं। बोले, साहब सरकार तक हमारा दर्द ज़रूर पहुंचा देना ताकि मरहम मिल सके।

घने पेड़ों के बीच खाई में गूंजती है कोरवा बच्चे की कराह
इलाके में अधिकतर असुर गांव हैं। लेकिन टुटवा कोना के पूरब की ओर जब हमारी टीम जंगल में घुसी, तो एक बच्चे की कराह शाम के सन्नाटे को तोड़ती रही। उस आर्तनाद के पीछे-पीछे हम करीब डेढ़ किमी खाई में उतरते गए। जब नीचे पहुंचे तो छोटे टीले पर एक घर का दरवाजा खुला मिला। स्थानीय युवा जोगेश्वर ने दस्तक दी। काफी देर के बाद एक बूढ़ी महिला बुद्धमइन कोरवाइन बाहर निकली। जोगेश्वर ही भाषायी पुल बने। पीछे घर में लगभग एक वर्ष का बच्चा रोता हुआ मिला। मां मेना कोरवाइन ने बताया कि पता नहंी इसे क्या तकलीफ है। दिनभर रोता ही रहता है। इस गांव में दूर-दूर पर आदिम जनजाति कोरवा के एक दर्जन घर हैं। 


खुद से बनाए रास्ते और लकड़ी के पुल
जब हम गढ़ाटोली जा रहे थे तो बीच में बहुत ही कायदे से बसा असुर गांव सनईटांगर मिला था। गढ़ाटोली चैनपुर तो सनईटांगर घाघरा प्रखंड में पड़ता है। सनईटांगर से घाघरा की महज 45 किलोमीटर दूर है। लेकिन रास्ते दुर्गम होने के कारण गुरदरी, बनारी, बिशुनपुर होते हुए घाघरा बाइक से पहुंचना पड़ता है, यह दूरी 90 किलोमीटर पड़ती है। 5 किमी दूर पंचायत मुख्यालय दिरगांव बाईक से भी जाना काफी मुश्किल है। ग्रामीणों ने यहां चलने लायक रास्ते बनाए हैं, तो गढाटोली में लकड़ी के पुल। सनई टांगर के पास ही कोटेया गांव है। इसकी भी कहानी अलग नहीं। यानी न सड़क, न बिजली, न अस्पताल, न स्कूल। सरकार 24 घंटे बिजली की बात करती है। लेकिन कहीं-कहीं खंभे गाड़कर समझ लिया गया है कि बिजली दौड़ गई। 


खेती इतनी नहीं कि हो सके गुजर-बसर
पहाड़ और घने जंगलों के बीच बसे डोकापाट, लुपुंगपाट, भंडियापाट, बेसनापाट और नवाटोली आदि असुर गांव पहुंचने के रास्ते जिस तरह  टेढ़े-मेढ़े हैं, चलने के लायक नहीं। यहीं स्थिति यहां की जिंदगियों की है। मदन असुर काम करने बनारस गए थे। लॉक डाउन में लौटे हैं। कहते हैं कि मक्का, मड़ुवा और गुंदली की खेती मुश्किल से होती है। सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं। इतनी खेती नहीं होती कि परिवार का भरण-पोषण ठीक से हो सके। इसलिए लड़के मजदूरी करने दूसरे राज्यों में जाने को विवश हैं। लुपुंग ऊपर पाट पर है। पानी टंकी बनाई गई। लेकिन दो माह से नल खराब है। शिकायत के बाद भी कोई बनाने के लिए नहीं आता।