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उस बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों की चिंता वाजिब, जिसका राष्ट्रगीत रवीन्द्रनाथ ने लिखा

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प्रेमकुमार मणि, पटना:

बांग्लादेश से आ रही खबरों के अनुसार वहाँ सांप्रदायिक हिंसा और तनाव का वातावरण है। बीते 15 अक्टूबर को नोआखाली के बेगमगंज से उठे एक अफवाह के कारण तनाव बना और देश के बड़े हिस्से में फ़ैल गया। प्रायः देखा गया है कि किसी भी समाज में बहुसंख्यक समुदाय हमलावर और अल्पसंख्यक समुदाय उसे भुगतने वाला होता है। बांग्लादेश में लगभग 90 फीसद लोग इस्लाम धर्मावलम्बी हैं और शेष लगभग 9 फीसद लोग हिन्दू हैं । एक प्रतिशत आबादी में बौद्ध और ईसाई भी हैं। इस तरह बंगलादेश में हिन्दू -बौद्ध और ईसाई अल्पसंख्यक हैं।

 

भारत में जिस तरह बहुसंख्यक हिन्दुओं का वर्चस्वप्राप्त तबका धार्मिक उन्माद खड़ा कर अपना वर्चस्व कायम करना चाहता है ,वैसा ही वहाँ का मुस्लिम वर्चस्वप्राप्त तबका भी करता है। हर जगह पंडों का उन्माद देख मुल्लों को, और मुल्लों का उन्माद देख पंडों को ख़ुशी होती है कि उनके भी दिन आने वाले हैं। पाकिस्तान का चूंकि निर्माण ही मजहब के आधार पर हुआ और आबादी का उसी आधार पर केन्द्रीकरण हुआ, उससे पाकिस्तान में सांप्रदायिक संघनन अधिक हुआ। जैसा कि सब जानते हैं 1971 के 16 दिसम्बर को एक युद्ध के बाद पूर्वी पाकिस्तान बंगलादेश बन गया। पश्चिमी पाकिस्तान की शुरू से कोशिश थी कि वहाँ सांप्रदायिक तनाव बने ; क्योंकि इसी के बूते वहाँ इस्लामी हुकूमत कायम रह सकती थी। बंगाल के मुसलमानों में आज़ादी के पहले से ही सांप्रदायिक की जगह समाजवादी भाव व्याप्त रहा है। 1937 के चुनाव में वहाँ की सबसे बड़ी पार्टी कृषक प्रजा पार्टी थी, जिसके नेता फज्जुल हक़ थे। मुस्लिम लीग को बहुत कम सीटें मिली थी। फज्जुल हक़ के नेतृत्व में कृषक प्रजा पार्टी और कांग्रेस की संयुक्त सरकार बनी थी। हक़ साहब ज़मींदारी उन्मूलन करना चाहते थ , जो उनकी पार्टी का मुख्य नारा था। लेकिन कांग्रेस अड़चन डाल रही थी। कांग्रेस की अदूरदर्शिता से फज्जुल हक़ अंततः मुस्लिम लीग के साथ चले गए और देश का इतिहास बदल गया। बावजूद इसके बंगाली मुसलमानों का सेक्युलर मिजाज कायम रहा। बांग्ला की जगह उर्दू लादने के जिन्ना के फैसले को बंगालियों ने कभी स्वीकार नहीं किया। काज़ी नजरुल और रवीन्द्रनाथ समान रूप से उनके प्रिय बने रहे। आज भी बांग्लादेश का राष्ट्रगीत रवीन्द्रनाथ की ही रचना है।

 

लेकिन इस्लामी कट्टरतावादी बार-बार धार्मिक उन्माद खड़ा करना चाहते हैं ताकि उनका निहित स्वार्थ पलता-पुसता रहे। 1970 के चुनाव में  जब पाकिस्तानी संसद में शेख मुजीब की पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला,  पूर्वी पाकिस्तान की केवल दो छोड़ तमाम सीटें उन्होंने जीत लीं, तब पाकिस्तान की तत्कालीन सरकार ने  ढाका यूनिवर्सिटी के हिन्दू छात्रों पर जुल्म ढा कर अपने नरसंहार की शुरुआत की। यह अपने जनतंत्र विरोधी कृत्य को मजहबी रंग देने की कोशिश थी। शेख मुजीब के विरोध के बाद उन्हें इस्लाम विरोधी करार देते हुए गिरफ्तार कर लिया गया। फिर जो हुआ सब को मालूम है। 

बंगलादेश आरम्भ में धर्मनिरपेक्ष देश घोषित हुआ, लेकिन 1975 अगस्त में शेख मुजीब की सपरिवार हत्या कर दी गई। उनकी बेटी शेख हसीना देश से बाहर थीं, इसलिए बची रह सकीं। मुजीब की हत्या के बाद फिर शरीअत कानून लागू हुआ और उसे इस्लामी देश घोषित कर दिया गया। बाद में शेख हसीना जब सत्ता में आईं, तब उन्होंने कुछ सुधार किए, लेकिन पहले जैसी स्थिति नहीं बन सकी। अभी हसीना वहाँ प्रधानमंत्री हैं और वह तनाव और हिंसा रोकने केलिए तत्पर भी हैं। उनकी पार्टी अवामी लीग  के हजारों कार्यकर्ताओं ने ढाका और अन्य जगहों पर  हिंसा रोकने और अमन कायम रखने केलिए प्रदर्शन भी किए हैं। अवामी लीग के कार्यकर्ताओं के हाथ में जो बैनर थे उसमें ' बच्चों को मुहब्बत सिखाओ , नफरत नहीं ' और ' सांप्रदायिक दुष्टता बंद करो ' जैसे नारे लिखे थे। हम अवामी लीग के धर्मनिरपेक्ष मित्रों को सलाम करते हैं, जो अपने समाज को मानवीय बनाए रखने केलिए तत्पर हैं। हम बांग्लादेशी कट्टरपंथियों के साथ अपने देश के कट्टरपंथियों की भी निंदा करते हैं, जो बांग्लादेश की खबरों को इस उम्मीद से देख रहे हैं कि उस आग पर उनकी भी रोटी सिंकेगी। हम बांग्लादेशी और भारतीय अकलियतों जो वहाँ मुख्यतः हिन्दू और यहाँ मुख्यतः मुस्लिम हैं की हिफाजत और खुशहाली चाहते हैं। तालिबानी और हिंदुत्ववादी प्रवृत्तियों तथा मनु और शरीअत संहिताओं के बूते आज कोई न्यायपूर्ण समाज नहीं बन सकता। हम इन सबकी निंदा करना चाहते हैं।

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(प्रेमकुमार मणि हिंदी के चर्चित कथाकार व चिंतक हैं। दिनमान से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक पांच कहानी संकलन, एक उपन्यास और पांच निबंध संकलन प्रकाशित। उनके निबंधों ने हिंदी में अनेक नए विमर्शों को जन्म दिया है तथा पहले जारी कई विमर्शों को नए आयाम दिए हैं। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।