द फॉलोअप टीम : रांची, कॉमर्शियल माइनिंग का मामला सुर्खियों के आने के बाद कोयलांचल की राजधानी धनबाद में कोयले पर राजनीति शुरू हो गयी है। इन दिनों कोयला श्रमिक संगठनों की गतिविधियां बढ़ गयी हैं। कोयले की दुनिया में झरिया कोल माइंस का नाम विश्व के मानचित्र पर अंकित है। अंग्रेजों द्वारा 1890 में धनबाद के पास पहली बार कोयले की खोज होने के बाद से ही इस इलाके का शहरीकरण शुरू हो गया था। कालांतर में धनबाद तेजी से शहरीकरण की ओर बढ़ा, लेकिन झरिया हाशिये पर रहा। झरिया में कोयले के अकूत भंडार के अलावा एक समय झरिया में चारों ओर हरियाली थी। हरा-भरा जंगल हुआ करता था. लेकिन 18वीं शताब्दी में शुरू हुए कोयले के खेल ने इस शहर को जलती हुई भट्ठी में तब्दील कर दिया.
अगलगी के शताब्दी वर्ष पार हुए
झरिया के पुराने बाशिंदे आज भी बड़े गर्व से कहते हैं कि धनबाद की जो रौनक आज है, वो झरिया की देन है. झरिया न होता तो धनबाद कभी आबाद नहीं होता. झरिया के वजूद पर ही धनबाद टिका है। यह और बात है कि झरिया शहर ‘अगलगी’ के शताब्दी वर्ष को पार कर चुका है। धनबाद शहर में महोत्सव का आयोजन होता है तो झरिया में घुटन और खामोशी के साथ मातमी महोत्सव का माहौल दिखता है. कोयले की राजधानी के नाम से मशहूर धनबाद से सटे झरिया कोयलांचल की यही हकीकत है।
कीमती कोयला जल कर राख हो गया
झरिया में दुनिया का बेहतरीन कोयला है. यह कटू सत्य है कि पिछले सौ सालों में तीन करोड़ 17 लाख टन जलकर राख हो जाने के बावजूद यह माना जाता है कि एक अरब 86 करोड़ टन बचा हुआ है. झरिया की खदानों में जल रहा कोयला बहुत ही कीमती है. स्टील के निर्माण में प्रयोग होनेवाले उच्च स्तर के कोयले का देश में यही इकलौता स्रोत है. इस गुणवत्ता वाले कोयले को विदेश से मंगाने में भारत 4 बिलियन डॉलर खर्च करता है.
भूमिगत खदानों में 1916 से लगी है आग
झरिया और उसके आस-पास के कोयले की खदानों में 1916 से भूमिगत आग लगी हुई है. पहले यहां अंडरग्राउंड माइनिंग होती थी. आग लगने की वजहें तो बहुत सी हो सकती हैं, पर आग न बुझ पाने या न बुझाए जाने की वजहें बड़ी साफ हैं. झारखंड का झरिया शहर सौ सालों से जल रहा है. यह एक ‘ज्वलंत’ सच्चाई है. कोयला की दुनिया के तमाम वैज्ञानिक, कोयला विशेषज्ञों का समूह, कोल इंडिया और केंद्र-राज्य सरकारें भी मान चुकी हैं कि झरिया शहर आग के गोले पर बैठा हुआ है।
‘धधकते अंगारों पर जी रहे हैं’
वहां के बाशिंदे 100 से अधिक समय से लोग डर के साये में जी रहे हैं। सच पूछा जाये तो कोयले की भट्ठी बनी जमीन पर लोग बिना किसी भविष्य की उम्मीद में जीवन गुजार रहे हैं. झरिया के बस्ताकोला के एक पुराने बाशिंदे परवाज हुसैन बताते हैं कि झरियावासी लंबे अरसे से कोयले के धधकते अंगारों पर न सिर्फ चल रहे हैं, बल्कि जी भी रहे हैं और इसी सरजमीं में एक दिन दफन भी हो जायेंगे। दरअसल, भूमिगत आग के मुहाने पर बैठे मुट्ठी भर लोग आज भी ये शहर छोड़ने को तैयार नहीं हैं.
‘जी का जंजाल बन जायेगी कॉमर्शियल माइनिंग’
धनबाद जिला युवा कांग्रेस के महासचिव मुकेश राणा ने कहा कि केंद्र सरकार ने पिछले 6 साल में झरिया कोयलांचल की समस्याओं पर कभी समीक्षा करने की जरूरत नहीं समझी। झरिया की भूमिगत खदानों में सौ साल से अधिक समय से आग लगी हुई है। इसके बावजूद झरिया की खदानों में आउटसोर्सिंग कंपनियों को खनन का काम दे दिया गया। कंपनियों की कार्यसंस्कृति से अब झरिया की हवा में जहर घुल गया है। श्री राणा ने कहा कि अब मोदी सरकार की कॉमर्शियल माइनिंग प्लानिंग झरियावासियों के लिए जी का जंजाल बन जायेगा। श्री राणा ने कहा कि आउटसोर्सिंग कंपनियों के कारण लोग सांस की बीमारी से ग्रसित हो रहे हैं। शहर से सटे खदान एरिया में पानी का छिड़काव बंद है। उन्होंने बताया कि आउटसोर्सिंग कंपनियों में कार्यरत मजदूरों को 850 रुपये सैलरी के बदले 560 रुपये दिये जा रहे हैं। कंपनियां जी भर कर मनमानी पर उतारू हैं। उन्होंने कॉमर्शियल माइनिंग का पुरजोर विरोध करते हुए कहा कि झरियावासी किसी कीमत पर मोदी सरकार के कोयले के निजीकरण की मंशा को सफल नहीं होने देंगे।
2008 में आग बुझाने के प्रयास हुए
दरअसल, झरिया में लगी आग को बुझाने का पहला गंभीर प्रयास 2008 में किया गया। यानी आग लगने के लगभग 90 साल बाद एक हल्का प्रयास किया गया। जर्मन कंसलटेंसी फर्म डीएमटी ने आग के स्रोत का पता लगाकर उसे बुझाने की तकनीक से कोशिश की। इस तकनीक में आग के केन्द्र का पता लगाकर जमीन में बोरिंग कर आग को बुझाया जाता है और फिर खान के अंदर की खाली जगह को भर दिया जाता है, ताकि कोयला ऑक्सीजन के सम्पर्क में न आ पाए. आग तो बुझ जाती है लेकिन इस विधि से आग बुझाने में खर्च भी होता है. शायद यही कारण है कि ये खबर भी उड़ते-उड़ते ही झरिया की आग में ही धुआं हो गई.
2008 के बाद कंपनी ने गहरी और चौड़ी खुदाई करने के बजाय जलते हुए कोयले को हटाने का प्रयास किया था. यह प्रयास अधिक प्रभावी था, लेकिन जमीन की सतह को क्षतिग्रस्त करने की वजह से इस तरीके की खूब आलोचना हुई. गर्म कोयले को ठंडा करने के लिए जमीन के ऊपर पानी डालने और खदानों के आसपास पत्थर लगाने का तरीका भी अपनाया गया. यह भी असफल साबित हुआ।
नोट : अगले अंक में हम बीसीसीएल प्रबंधन और केंद्र-राज्य सरकारों के बीच हुए कई समझौते और उसके नतीजों पर प्रकाश डालेंगे।