logo

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से जुड़ी ऐसी जानकारी जो कभी न सुनी, न पढ़ी होगी

15151news.jpg

दीपक सैगल, दिल्ली:

अंग्रेज़ों की तरफ़ से कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स पहला शख़्स था, जिसने रानी लक्ष्मीबाई (19 नवम्बर 1828 – 18 जून 1858) को अपनी आँखों से लड़ाई के मैदान में लड़ते हुए देखा। उन्होंने घोड़े की रस्सी अपने दाँतों से दबाई हुई थी। वो दोनों हाथों से तलवार चला रही थीं और एक साथ दोनों तरफ़ वार कर रही थीं। उनसे पहले एक और अंग्रेज़ जॉन लैंग को रानी लक्ष्मीबाई को नज़दीक से देखने का मौका मिला था, लेकिन लड़ाई के मैदान में नहीं, उनकी हवेली में। जब दामोदर के गोद लिए जाने को अंग्रेज़ों ने अवैध घोषित कर दिया तो रानी लक्ष्मीबाई को झाँसी का अपना महल छोड़ना पड़ा था। उन्होंने एक तीन मंज़िल की साधारण सी हवेली 'रानी महल' में शरण ली थी। रानी ने वकील जॉन लैंग की सेवाएं लीं। जिसने हाल ही में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ एक केस जीता था। गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग के कार्यकाल में ही 1857 का गदर हुआ था।

 

'रानी महल' में लक्ष्मी बाई

लैंग का जन्म ऑस्ट्रेलिया में हुआ था और वो मेरठ में एक अख़बार, 'मुफ़ुस्सलाइट' निकाला करते थे। लैंग अच्छी ख़ासी फ़ारसी और हिंदुस्तानी बोल लेते थे और ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रशासन उन्हें पसंद नहीं करता था। क्योंकि वो हमेशा उन्हें घेरने की कोशिश किया करते थे। जब लैंग पहली बार झाँसी आए तो रानी ने उनको लेने के लिए घोड़े का एक रथ आगरा भेजा था। उनको झाँसी लाने के लिए रानी ने अपने दीवान और एक अनुचर को आगरा रवाना किया। अनुचर के हाथ में बर्फ़ से भरी बाल्टी थी जिसमें पानी, बियर और चुनिंदा वाइन्स की बोतलें रखी हुई थीं. पूरे रास्ते एक नौकर लैंग को पंखा करते आया था। झाँसी पहुंचने पर लैंग को पचास घुड़सवार एक पालकी में बैठा कर 'रानी महल' लाए जहाँ के बगीचे में रानी ने एक शामियाना लगवाया हुआ था।

रानी लक्ष्मीबाई को केवल एक अंग्रेज ने देखा, किताब में की उनकी सुंदरता की  तारीफ - Inkhabar

 

मलमल की साड़ी

रानी लक्ष्मीबाई शामियाने के एक कोने में एक पर्दे के पीछे बैठी हुई थीं। तभी अचानक रानी के दत्तक पुत्र दामोदर ने वो पर्दा हटा दिया। लैंग की नज़र रानी के ऊपर गई। बाद में रेनर जेरॉस्च ने एक किताब लिखी, 'द रानी ऑफ़ झाँसी, रेबेल अगेंस्ट विल।' किताब में रेनर जेरॉस्च ने जॉन लैंग को कहते हुए बताया, 'रानी मध्यम कद की तगड़ी महिला थीं। अपनी युवावस्था में उनका चेहरा बहुत सुंदर रहा होगा, लेकिन अब भी उनके चेहरे का आकर्षण कम नहीं था। मुझे एक चीज़ थोड़ी अच्छी नहीं लगी, उनका चेहरा ज़रूरत से ज़्यादा गोल था। हाँ उनकी आँखें बहुत सुंदर थी और नाक भी काफ़ी नाज़ुक थी। उनका रंग बहुत गोरा नहीं था। उन्होंने एक भी ज़ेवर नहीं पहन रखा था, सिवाए सोने की बालियों के। उन्होंने सफ़ेद मलमल की साड़ी पहन रखी थी, जिसमें उनके शरीर का रेखांकन साफ़ दिखाई दे रहा था। जो चीज़ उनके व्यक्तित्व को थोड़ा बिगाड़ती थी- वो थी उनकी फटी हुई आवाज़।'

रानी के घुड़सवार

बहरहाल कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स ने तय किया कि वो खुद आगे जा कर रानी पर वार करने की कोशिश करेंगे। लेकिन जब जब वो ऐसा करना चाहते थे, रानी के घुड़सवार उन्हें घेर कर उन पर हमला कर देते थे। उनकी पूरी कोशिश थी कि वो उनका ध्यान भंग कर दें। कुछ लोगों को घायल करने और मारने के बाद रॉड्रिक ने अपने घोड़े को एड़ लगाई और रानी की तरफ़ बढ़ चले थे। उसी समय अचानक रॉड्रिक के पीछे से जनरल रोज़ की अत्यंत निपुण ऊँट की टुकड़ी ने एंट्री ली। इस टुकड़ी को रोज़ ने रिज़र्व में रख रखा था। इसका इस्तेमाल वो जवाबी हमला करने के लिए करने वाले थे। इस टुकड़ी के अचानक लड़ाई में कूदने से ब्रिटिश खेमे में फिर से जान आ गई। रानी इसे फ़ौरन भाँप गई। उनके सैनिक मैदान से भागे नहीं, लेकिन धीरे-धीरे उनकी संख्या कम होनी शुरू हो गई।

 

सिर पर तलवार के वार से मारी गई थीं रानी लक्ष्मीबाई - BBC News हिंदी

 

ब्रिटिश सैनिक

उस लड़ाई में भाग ले रहे जॉन हेनरी सिलवेस्टर ने अपनी किताब 'रिकलेक्शंस ऑफ़ द कैंपेन इन मालवा एंड सेंट्रल इंडिया' में लिखा, "अचानक रानी ज़ोर से चिल्लाई, 'मेरे पीछे आओ।' पंद्रह घुड़सवारों को एक जत्था उनके पीछे हो लिया। वो लड़ाई के मैदान से इतनी तेज़ी से हटीं कि अंग्रेज़ सैनिकों को इसे समझ पाने में कुछ सेकेंड लग गए। अचानक रॉड्रिक ने अपने साथियों से चिल्ला कर कहा, 'दैट्स दि रानी ऑफ़ झाँसी, कैच हर।'" रानी और उनके साथियों ने भी एक मील ही का सफ़र तय किया था कि कैप्टेन ब्रिग्स के घुड़सवार उनके ठीक पीछे आ पहुंचे। जगह थी कोटा की सराय। लड़ाई नए सिरे से शुरू हुई।रानी के एक सैनिक के मुकाबले में औसतन दो ब्रिटिश सैनिक लड़ रहे थे। अचानक रानी को अपने बायें सीने में हल्का सा दर्द महसूस हुआ, जैसे किसी सांप ने उन्हें काट लिया हो। एक अंग्रेज़ सैनिक ने, जिसे वो देख नहीं पाईं थीं, उनके सीने में संगीन भोंक दी थी। वो तेज़ी से मुड़ी और अपने ऊपर हमला करने वाले पर पूरी ताकत से तलवार से टूट पड़ी।

राइफ़ल की गोली

रानी को लगी चोट बहुत गहरी नहीं थी, लेकिन उसमें बहुत तेज़ी से ख़ून निकल रहा था। अचानक घोड़े पर दौड़ते-दौड़ते उनके सामने एक छोटा सा पानी का झरना आ गया। उन्होंने सोचा वो घोड़े की एक छलांग लगाएंगी और घोड़ा झरने के पार हो जाएगा। तब उनको कोई भी नहीं पकड़ सकेगा। उन्होंने घोड़े में एड़ लगाई, लेकिन वो घोड़ा छलाँग लगाने के बजाए इतनी तेज़ी से रुका कि वो करीब करीब उसकी गर्दन के ऊपर लटक गईं। उन्होंने फिर एड़ लगाई, लेकिन घोड़े ने एक इंच भी आगे बढ़ने से इंकार कर दिया। तभी उन्हें लगा कि उनकी कमर में बाई तरफ़ किसी ने बहुत तेज़ी से वार हुआ है। उनको राइफ़ल की एक गोली लगी थी। रानी के बांए हाथ की तलवार छूट कर ज़मीन पर गिर गई। उन्होंने उस हाथ से अपनी कमर से निकलने वाले खून को दबा कर रोकने की कोशिश की।

मणिकर्णिका' रानी लक्ष्मीबाई झांसी के लिए लड़ीं या भारत की आज़ादी के लिए? -  BBC News हिंदी

 

रानी पर जानलेवा हमला

एंटोनिया फ़्रेज़र अपनी पुस्तक, 'द वारियर क्वीन' में लिखती हैं, "तब तक एक अंग्रेज़ रानी के घोड़े की बगल में पहुंच चुका था। उसने रानी पर वार करने के लिए अपनी तलवार ऊपर उठाई। रानी ने भी उसका वार रोकने के लिए दाहिने हाथ में पकड़ी अपनी तलवार ऊपर की. उस अंग्रेज़ की तलवार उनके सिर पर इतनी तेज़ी से लगी कि उनका माथा फट गया और वो उसमें निकलने वाले खून से लगभग अंधी हो गईं।" तब भी रानी ने अपनी पूरी ताकत लगा कर उस अंग्रेज़ सैनिक पर जवाबी वार किया। लेकिन वो सिर्फ़ उसके कंधे को ही घायल कर पाई। रानी घोड़े से नीचे गिर गई। तभी उनके एक सैनिक ने अपने घोड़े से कूद कर उन्हें अपने हाथों में उठा लिया और पास के एक मंदिर में ले लाया। रानी तब तक जीवित थीं। मंदिर के पुजारी ने उनके सूखे हुए होठों को एक बोतल में रखा गंगा जल लगा कर तर किया. रानी बहुत बुरी हालत में थी. धीरे धीरे वो अपने होश खो रही थी। उधर, मंदिर के अहाते के बाहर लगातार फ़ायरिंग चल रही थी। अंतिम सैनिक को मारने के बाद अंग्रेज़ सैनिक समझे कि उन्होंने अपना काम पूरा कर दिया है।

दामोदर के लिए...

तभी रॉड्रिक ने ज़ोर से चिल्ला कर कहा, "वो लोग मंदिर के अंदर गए है। उन पर हमला करो। रानी अभी भी ज़िंदा है।" उधर, पुजारियों ने रानी के लिए अंतिम प्रार्थना करनी शुरू कर दी थी। रानी की एक आँख अंग्रेज़ सैनिक की कटार से लगी चोट के कारण बंद थी। उन्होंने बहुत मुश्किल से अपनी दूसरी आँख खोली। उन्हें सब कुछ धुंधला दिखाई दे रहा था और उनके मुंह से रुक-रुक कर शब्द निकल रहे थे, "....दामोदर... मैं उसे तुम्हारी... देखरेख में छोड़ती हूँ... उसे छावनी ले जाओ... दौड़ो उसे ले जाओ।" बहुत मुश्किल से उन्होंने अपने गले से मोतियों का हार निकालने की कोशिश की। लेकिन वो ऐसा नहीं कर पाई और फिर बेहोश हो गई। मंदिर के पुजारी ने उनके गले से हार उतार कर उनके एक अंगरक्षक के हाथ में रख दिया, "इसे रखो... दामोदर के लिए।"

 

रानी का पार्थिव शरीर

रानी की साँसे तेज़ी से चलने लगी थीं। उनकी चोट से खून निकल कर उनके फेफड़ों में घुस रहा था। धीरे-धीरे वो डूबने लगी थीं। अचानक जैसे उनमें फिर से जान आ गई। वो बोली, "अंग्रेज़ों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए।" ये कहते ही उनका सिर एक ओर लुड़क गया। उनकी साँसों में एक और झटका आया और फिर सब कुछ शांत हो गया। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने प्राण त्याग दिए थे। वहाँ मौजूद रानी के अंगरक्षकों ने आनन-फानन में कुछ लकड़ियाँ जमा कीं और उन पर रानी के पार्थिव शरीर को रख आग लगा दी थी। उनके चारों तरफ़ रायफलों की गोलियों की आवाज़ बढ़ती चली जा रही थी।मंदिर की दीवार के बाहर अब तक सैकड़ों ब्रिटिश सैनिक पहुंच गए थे। मंदिर के अंदर से सिर्फ़ तीन रायफलें अंग्रेज़ों पर गोलियाँ बरसा रही थीं। पहले एक रायफ़ल शांत हुई... फिर दूसरी और फिर तीसरी रायफ़ल भी शांत हो गई।

चिता की लपटें

जब अंग्रेज़ मंदिर के अंदर घुसे तो वहाँ से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। सब कुछ शांत था। सबसे पहले रॉड्रिक ब्रिग्स अंदर घुसा। वहाँ रानी के सैनिकों और पुजारियों के कई दर्जन रक्तरंजित शव पड़े हुए थे। एक भी आदमी जीवित नहीं बचा था। उन्हें सिर्फ़ एक शव की तलाश थी। तभी उसकी नज़र एक चिता पर पड़ी जिसकीं लपटें अब धीमी पड़ रही थीं। उसने अपने बूट से उसे बुझाने की कोशिश की। तभी उसे मानव शरीर के जले हुए अवशेष दिखाई दिए। रानी की हड्डियाँ करीब-करीब राख बन चुकी थीं। इस लड़ाई में लड़ रहे कैप्टेन क्लेमेंट वॉकर हेनीज ने बाद में रानी के अंतिम क्षणों का वर्णन करते हुए लिखा, "हमारा विरोध ख़त्म हो चुका था। सिर्फ़ कुछ सैनिकों से घिरी और हथियारों से लैस एक महिला अपने सैनिकों में कुछ जान फूंकने की कोशिश कर रही थी।बार-बार वो इशारों और तेज़ आवाज़ से हार रहे सैनिकों का मनोबल बढ़ाने का प्रयास करती थी, लेकिन उसका कुछ ख़ास असर नहीं पड़ रहा था। कुछ ही मिनटों में हमने उस महिला पर भी काबू पा लिया। हमारे एक सैनिक की कटार का तेज़ वार उसके सिर पर पड़ा और सब कुछ समाप्त हो गया। बाद में पता चला कि वो महिला और कोई नहीं स्वयं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई थी।" रानी के बेटे दामोदर को लड़ाई के मैदान से सुरक्षित ले जाया गया। इरा मुखोटी अपनी किताब 'हिरोइंस' में लिखती हैं, "दामोदर ने दो साल बाद 1860 में अंग्रेज़ों के सामने आत्म समर्पण किया। बाद में उसे अंग्रेज़ों ने पेंशन भी दी। 58 साल की उम्र में उनकी मौत हुई। जब वो मरे तो वो पूरी तरह से कंगाल थे। उनके वंशज अभी भी इंदौर में रहते हैं और अपने आप को 'झाँसीवाले' कहते हैं।"

 

( लेखक स्वतंत्र लेखन करते हैं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।