प्रेमकुमार मणि, पटना:
हिन्दी दिवस। 14 सितम्बर आ रहा है। हिन्दी को लेकर तमाम किस्म के आयोजन और औपचारिकताएं होंगी। कुछ कवि-लेखकों को अक्षत -चन्दन से दुलारा जाएगा। दूसरे किस्म के स्वांग भी होंगे। लेकिन हिन्दी जहाँ है वहीं रहेगी। मैं हिन्दीवादी बिलकुल नहीं हूँ। हाँ, मेरी भाषा हिन्दी ही है। इसी जुबान में मैं लिखता- बोलता हूँ। संयोग है कि यह हिन्दी है। यह बंगाली, गुजराती, तमिल भी हो सकती थी। या फिर विदेश में होता तो यह कोई अन्य जुबान भी होती। जो मेरी जुबान होती, उसमें मैं स्वयं को आज़ाद अनुभव करता। जुबानें गर्व-गुमान करने की चीज नहीं हुआ करतीं। वह हमारी अभिव्यक्ति का विश्वसनीय माध्यम होती हैं। उसके माध्यम से हम अपने को प्रकट करते हैं, खोलते हैं। कुछ लोग भाषा का साम्राज्य स्थापित करना चाहते हैं। अंग्रेजों ने अंग्रेजी का साम्राज्य स्थापित किया। पुराने ज़माने में संस्कृत का हुआ। आधुनिक ज़माने में हिन्दी का साम्राज्य स्थापित करने की भरसक कोशिश हुई। पुरुषोत्तम दास टंडन, सेठ गोविंददास, बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे अनेक लोगों ने आखिरकार हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिलवा ही दिया। जैसे क्लाइब और उसके साथियों ने मिल कर भारत में कंपनीराज स्थापित कर दिया था। हिन्दी इठला कर चलने लगी। इसके लेखक इतरा कर चलने लगे। पंद्रह वर्षों बाद 1965 से हिन्दी सर्वसत्तासम्पन्न हो जाएगी। लेकिन बखेड़ा खड़ा हो गया।दक्षिण भारत में हिन्दी का विरोध शुरू हो गया। इस विरोध को समझने का हिंदी वालों ने कभी प्रयास नहीं किया। इसे मैं तब समझ सका जब मैं चेन्नई गया और मित्र शौरी राजन जी से इस विषय पर लम्बी बात हुई।
जब गांधी ने हिन्दी वालों को लगाईं थी फटकार
हिन्दी को लेकर मैं भी भावुक होता हूँ, जैसे अपनी माँ या गाँव को लेकर होता हूँ। लेकिन दुनिया की तमाम माँओं और गाँवों का सम्मान करने से मेरे गाँव और माँ के प्रति मेरी भावुकता कमजोर नहीं होती। लेकिन कुछ लोग हैं कि अपनी माँ को सम्मानित करने के लिए दूसरों की माँ को कमतर देखना जरूरी समझते हैं। आज की दुनिया में हर जुबान दूसरी जुबान से जुडी है। एक जुबान से दूसरी जुबान में शब्दों की आवाजाही हो रही है। एक दूसरे के वाक्य विन्यास और व्याकरण से हम सीखते हैं। यह पहले के ज़माने में भी होता था। संचार माध्यमों के विकास से आज की दुनिया में तेजी से हो रहा है। संभव है, भविष्य में कोई ऐसी जुबान बन जाए जो पूरी दुनिया में धड़ल्ले से बोली समझी जाय। तो आगामी हिन्दी दिवस के अवसर पर हम हिन्दीवादियों से विनम्र अनुरोध करना चाहेंगे कि वे अपने गुमान और अकड़ पर पुनर्विचार करें। एक समय गांधी जी ने हिन्दी वालों को फटकार लगाईं थी कि आपके बीच कोई कोई रवीन्द्रनाथ टैगोर, जगदीशचंद्र बासु और प्रफुल्लचन्द्र घोष क्यों नहीं है। इसी बात पर निराला उनसे रंज हुए थे। निरालाओं का भोलापन आज भी कायम है। गांधी का सवाल वाजिब था। इसके गूढ़ार्थ को हमें समझने का प्रयास करना चाहिए। हम हिन्दी वाले ही हैं, जिनका पूरी दुनिया में मजाक बनाया जाता है। हमारी सामाजिक-आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर है। हमीं हैं जहाँ से राजनीति का दकियानूसी स्वर सब से तेजी से उभर रहा है। इन सब पर कौन सोचेगा ?
नेहरू ने हिन्दी में कभी क्यों नहीं लिखा
जवाहरलाल नेहरू राजनेता के साथ एक लेखक भी थे। उन्होंने इतिहास से अपने साक्षात्कार को दो जिल्दों ' ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री ' और ' डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया ' में खूबसूरत शैली में लिखा है। अपनी बेटी के पास लिखी चिट्ठियों का एक संकलन ' फादर'स लेटर टू हिज डॉटर ' भी है, जो अपने तरह की किताब है और जिसका हिन्दी अनुवाद कथाकार प्रेमचंद ने किया है। इसके अलावे उन्होंने आत्मकथा भी लिखी है, जो उनके समय की राजनीति और वैचारिकता का जीवंत दस्तावेज है। उनका लेखन अंग्रेजी में है। वह एक धनी रसूखदार वकील परिवार में पैदा हुए और उनकी शिक्षा -दीक्षा विलायत में हुई। मूलतः वह कश्मीरी थे, लेकिन अठारहवीं सदी के आरम्भ से ही उनके पूर्वज पहले दिल्ली और फिर आगरा में बस गए थे। उनके पिता ने इलाहाबाद को अपना ठिकाना बनाय , जो हिन्दी का एक प्रमुख गढ़ था। इलाहाबाद में ही जवाहरलाल नेहरू पले -बढे और यही से सार्वजानिक कार्यों से जुड़े। नेहरू से हिन्दी वालों को शिकायत रही कि उन्होंने हिन्दी में कभी क्यों नहीं लिखा। रवीन्द्रनाथ टैगोर और गांधी भी अंग्रेजी में लिख सकते थे ; लेकिन उन दोनों ने क्रमशः बंगला और गुजराती में अधिक लिखा। लेकिन नेहरू ने कभी-कभार भी हिंदी में नहीं लिखा। 1939 का लिखा हुआ कवि सूर्यकांत निराला का एक लेख है " नेहरू जी से दो बातें " ; जो उनके निबंधों के एक संकलन ' प्रबंध प्रतिमा ' में संकलित है। इसी संकलन में गाँधी से निराला की मुलाकात पर भी एक दिलचस्प लेख है। हिन्दी का मैं कभी छात्र नहीं रहा, लेकिन हिन्दी वालों से निराला के बारे में कुछ -कुछ उलटी -सीधी बातें प्रायः सुनता रहा था, जिसमें यह भी था कि वह गांधी से एक बार हिन्दी के सवाल पर उलझ पड़े थे। लेकिन ऐसा कुछ होता तो निराला लिखते। उन्होंने इन दोनों से हिन्दी के बारे में अपनी बातें जरूर रखी हैं। लेकिन दोनों ने ही निराला के प्रति उदासीनता प्रदर्शित की। इससे निराला कुछ क्षुब्ध अवश्य हैं। इन लेखों में इस भाव को अभियक्त भी किया गया है।
निराला जब नेहरू के बर्थ पर जाकर बैठ गए
निराला के नेहरू से मिलने का ब्यौरा दिलचस्प है। निराला लखनऊ से देहरा एक्सप्रेस ट्रेन पर सवार हुए हैं अयोध्या के लिए। उनके पास इंटर क्लास का टिकट है। उसी ट्रेन पर संयोगवश नेहरू भी हैं। जुगत निकाल कर वह नेहरू जी के डब्बे में घुस जाते हैं। नेहरू दरवाजे पर खड़े हो कर अपने साथियों से मिल-जुल रहे हैं और निराला भीतर आकर उसी बर्थ पर बैठ जाते हैं, जो नेहरू के लिए नियत था। सामने की बर्थ पर नेहरू के बहनोई आर एस पंडित बैठे हैं। .निराला ने अपना औचित्य बताते हुए टिप्पणी की है कि पहाड़ मेरे पास नहीं आता तो मैं पहाड़ के पास जाऊंगा। जब नेहरू जी आकर अपने बर्थ पर बैठ जाते हैं तब निराला ने उनसे कहा, ' आपसे कुछ बात करने की गरज से अपनी जगह से यहां आया हुआ हूँ ।' निराला को ही उद्धृत करना बेहतर होगा: " पंडित जी ने सिर्फ मेरी तरफ देखा। मुझे मालूम दिया, निगाह में प्रश्न है -तुम कौन हो ? मालूम कर, अख़बारों में और हिन्दी के इतिहासों में आई तारीफ का उल्लेख नाम के साथ करते हुए मैंने कहा,'यह सिर्फ थोड़ी -सी जानकारी के लिए कह रहा हूँ। प्रसिद्धि के विचार से आप खुद समझेंगे कि मैं जानता हूँ कि मैं किनसे बात कर रहा हूँ ।' पंडित जी मेरी बात से जैसे बहुत खुश हुए। मैंने कहा ' इधर हिंदुस्तानी के सम्बन्ध में आपके विचार देख कर आपसे बात करने की इच्छा हुई। आप उच्च शिक्षित हैं। हर तरह की शिक्षा की परिणति उच्चता है, न कि साधारणता। आपका देशव्यापी और विश्वव्यापी बड़प्पन भी उच्चता ही है। ज़बान जब अपने भावों के व्यक्तीकरण में समर्थ से समर्थ होती चलती है, तब वह साधार -से साधारण हो या न हो उच्च से उच्च जरूर होती है। भाषाजन्य बहुत सी कठिनाइयां सामने आती हैं जो हिंदुस्तानी जबान को मद्दे नजर रखते हुए दूर नहीं की जा सकतीं . ..।"
हिंदी और हिंदुस्तानी का निराला सवाल
निराला उन दिनों हिंदी और हिंदुस्तानी के सवाल पर उठे विवाद पर नेहरू को अपना नजरिया बता रहे थे। लेख से यह भी स्पष्ट होता है निराला को अपने ज्ञान का भी प्रदर्शन करना था। इस क्रम में वह अपने रूसी साहित्य विषयक ज्ञान और ब्रह्म ज्ञान की भी चर्चा कर जाते हैं। फिर वह उनकी आत्मकथा के उस अंश पर आते हैं ,जिसमें नेहरू ने हिंदी लेखकों को खरी-खोटी सुनाई थी। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में एक जगह बनारस की अपनी एक यात्रा का वर्णन करते हुए लिखा है - " बनारस की इस यात्रा के अवसर पर मुझे हिंदी साहित्य की एक छोटी -सी संस्था की ओर से मानपत्र दिया गया और वहां उसके सदस्यों से दिलचस्प बातचीत करने का अवसर मिला। मैंने उनसे कहा जिस विषय का मेरा ज्ञान बहुत अधूरा है उसपर उसके विशेषज्ञों से बोलते हुए मुझे झिझक होती है ; लेकिन फिर भी मैंने उन्हें थोड़ी-सी सूचनाएं दीं। आजकल हिन्दी में जो क्लिष्ट और अलंकारिक भाषा इस्तेमाल की जाती है , उसकी मैंने कुछ कड़ी आलोचना की। उसमें कठिन, बनावटी और पुराने शैली के संस्कृत शब्दों की भरमार रहती है। मैंने यह कहने का सहस भी किया कि यह थोड़े -से लोगों के काम में आने वाली दरबारी शैली अब छोड़ देनी चाहिए और हिंदी लेखकों को यह कोशिश करनी चाहिए कि वे हिन्दुस्तान की आम जनता के लिए लिखें और ऐसी भाषा में लिखें जिसे लोग समझ सकें। आम जनता के संसर्ग से भाषा में नया जीवन और वास्तविक सच्चापन आ जाएगा।इससे स्वयं लेखकों को जनता की भाव -व्यंजनाशक्ति मिलेगी और वे अधिक अच्छा लिख सकेंगे। साथ ही मैंने यह भी कहा कि हिन्दी के लेखक पश्चिमी विचारों या साहित्य का अध्ययन करें तो उससे उन्हें बड़ा लाभ होगा। यह और भी अच्छा होगा कि यूरोप की भाषाओं के साहित्य और नवीन विचारों के ग्रंथों का हिन्दी में अनुवाद कर डाला जाय। मैंने यह भी कहा कि आज गुजराती, बंगला और मराठी साहित्य इन बातों में हिन्दी से अधिक उन्नत है ;और यह तो मानी हुई बात है कि पिछले वर्षों में हिन्दी की अपेक्षा बंगला में कहीं अधिक रचनात्मक साहित्य लिखा गया है। "
प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल और जयशंकर प्रसाद की गोष्ठी
नेहरू के बनारस वाले वक्तव्य पर महीनों हिन्दी अख़बारों और पत्रिकाओं में बहस होती रही थी। नेहरू को बहुत भला -बुरा कहा गया था। इस संगोष्ठी के आयोजक थे प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल और जयशंकर प्रसाद। इन तीनों ने ही नेहरू के वक्तव्य की प्रशंसा की थी ; लेकिन निराला जैसे अनेक लोग थे , जिन्होंने नेहरू के विरुद्ध मोर्चा बनाया हुआ था। नेहरू ने आत्मकथा में अख़बारों में हुए विवाद की चर्चा की है।अपनी बात को विस्तार देते हुए आगे लिखा है - " यह घटना मेरे लिए आँख खोलने वाली थी। उसने बतलाया कि हिन्दी के साहित्यिक और पत्रकार कितने ज्यादा तुनुकमिजाज हैं। मुझे पता लगा कि वे अपने शुभचिंतक मित्र की सद्भावनापूर्ण आलोचना भी सुनने को तैयार नहीं थे। साफ़ ही यह मालूम होता है कि इस सबकी तह में अपने को छोटा समझने की भावना ही काम कर रही थी। आत्मालोचना की हिन्दी में पूरी कमी है और आलोचना का स्टैण्डर्ड बहुत ही नीचा है। एक लेखक और उसके आलोचक के बीच एक दूसरे के व्यक्तित्व पर गाली-गलौच होना हिन्दी में कोई असाधारण बात नहीं है। यहां का सारा दृष्टिकोण बहुत संकुचित और दरबारी -सा है और ऐसा मालूम होता है मानो हिन्दी का लेखक और पत्रकार एक दूसरे केलिए और एक बहुत ही छोटे -से दायरे केलिए लिखते हों। उन्हें आमजनता और उसके हितों से मानो कोई सरोकार ही नहीं है।" अपनी इस मुलाकात में निराला इस प्रसंग को छेड़ते हैं। उन्हें अवसर मिला था। पूरे विस्तार से वह हिन्दी साहित्य की वर्तमान स्थिति का एक खाका देते हैं। उन्हें इस बात पर अफ़सोस है कि प्रेमचंद जी और जयशंकर प्रसाद के निधन पर कांग्रेस ने अपने सालाना जलसे में एक शोक प्रस्ताव तक स्वीकृत नहीं किया। नेहरू ने निराला को बताया - जहाँ तक मुझे स्मरण है प्रेमचंद जी पर तो एक शोक प्रस्ताव पास किया गया था। निराला ने कहा -हाँ, मैं जानता हूँ, लेकिन उसकी वैसी महत्ता नहीं, जैसी शरतचंद्र वाले की है।"
अंततः हिंदी राजभाषा स्वीकार ली गई
इस मुलाकात के ब्योरे का समापन निराला उसी हेकड़ी के साथ करते हैं, जिसकी चर्चा नेहरू ने की है। यह है हिन्दी के रचनाकारों की हीनता-ग्रंथि। स्वयं को कमतर समझने का एक भाव उनके अवचेतन पर सवार रहता है। निराला के ही शब्दों में उनका स्वरूप देखें - " इसी समय अयोध्या-स्टेशन आ गया। .. मैं उठा, पंडित जवाहरलाल कुछ ताज्जुब से जैसे मेरा आकार-प्रकार देखने लगे, फिर जैसे कुछ सोचने लगे। मैंने कहा - पंडित जी ! ' आवाज गंभीर, भ्रम समझने वाले के लिए कुछ हेकड़ी-सी लिए हुए। जवाहरलाल ने दृप्त होकर देखा। मेरी निगाह आर. एस . पंडित की तरफ थी। उन्होंने निगाह उठाई। मैं नमस्कार कर दरवाजा खोल बाहर निकल आया। "हिन्दी कवि अपनी धज और काठी को लेकर कितना सतर्क है ! उसका यह अभिमान साहित्यिक -सांस्कृतिक दायरे में अश्लील भी हो सकता है, इसकी उसे कोई चिंता नहीं है। नेहरू ने क्या सोचा होगा, यह कोई कैसे जान सकता है। लेकिन निराला अपने ही व्यक्तित्व पर इतने आत्ममुग्ध हैं, यह ऐसा आचरण है जिससे आमतौर पर आज भी हिंदी लेखक मुक्त नहीं है। आज़ादी हासिल होने के साथ नेहरू देश के प्रधानमंत्री होते हैं। संविधानसभा में राजभाषा के सवाल पर लगभग साल भर लम्बी और दिलचस्प बहस होती है। अंततः हिंदी राजभाषा स्वीकार ली जाती है। हिन्दी भाषियों में इसे लेकर उत्साह तो अवश्य हुआ, कोई जिम्मेदारी का भाव कभी नहीं आया। हिन्दी को बाजार, विमर्श और कामकाज की भाषा बनाने के प्रयास कम हुए। विश्वविद्यालयों ने हिन्दी की दुर्गति करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। राजकीय स्तर पर सबसे बड़ा सवाल प्रांतीय भाषाओं के बीच संपर्क भाषा का था। अंग्रेजी हिन्दी की असमर्थता का लाभ ले रही थी।
नेहरू बोले, भाषाओं की उन्नति अनिवार्य रूप से राष्ट्र की उन्नति है
हिन्दी वाले आर्यावर्तीय मनोभूमि से निकलना ही नहीं चाहते थे। इसका मुख्य कारण उस पर द्विज प्रभाव था, जो आज़ादी के बाद सरकारी ख़ज़ानों का धन हड़पने के चक्कर में अश्लीलता की सारी हदें पार कर चुका था। विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग जातिवाद और द्विज वर्चस्व के नए अखाड़े बनने लगे। इन सब का अध्ययन-विश्लेषण जिस रोज उजागर होगा वह क़यामत का दिन होगा। हिन्दी ने तमिल-तेलुगु-मलयालम का तो छोड़िए उर्दू से कोई समन्वय नहीं स्थापित किया। नेहरू इसे साधारण जन से जोड़ने की वकालत कर रहे थे ; निराला का आदर्श उच्च से उच्च था। वह हिन्दी वालों का " वास्तविक " तौर पर प्रतिनिधित्व कर रहे थे। मैं कई दफा बतला चुका हूँ, हिन्दी का ठाट संस्कृत से अधिक द्विजवादी रहा है। लेकिन इस पर चर्चा को यहीं विराम देकर एकबार फिर नेहरू पर लौटें। नेहरू ने भाषा के प्रश्न पर कई बार संसद में हस्तक्षेप किया। लेकिन 24 अप्रैल 1963 को राजभाषा विधेयक पर बहस के दौरान उन्होंने जो कहा, उसे देखा जाना चाहिए। नेहरू ने स्वीकार किया है कि हमारी भाषाओं की उन्नति अनिवार्य रूप से हमारे राष्ट्र की उन्नति है। वह यह भी मानते हैं कि कोई भी जन-जागरण अंग्रेजी भाषा के माध्यम से भारत में नहीं हो सकता। कौन -सा तबका और क्यों अंग्रेजी की वकालत करता है इसे नेहरू स्पष्ट करते हैं। उन्ही के शब्द -" इसमें कोई शक नहीं कि अंग्रेजी के ज्ञान में स्वार्थ छुपा हुआ है। इससे हम स्वतः ही उन लोगों से अलग हो जाते हैं जो अंग्रेजी नहीं जानते। यह बहुत बुरी बात है। आज़ादी से पहले जातिवाद के इस देश में, सबसे निष्ठुर जाति अंग्रेजी जानने वालों, अंग्रेजी पोशाक पहनने वालों और अंग्रेजी ढंग से रहने वालों की थी। इससे हमारे और भारत की जनता के बीच दीवारें बन गई। हमें इन दीवारों को हटाना है . ... अंग्रेजी भारत की सामान्य संपर्क भाषा नहीं हो सकती। सामान्य संपर्क भाषा किसी भारतीय भाषा को ही होना है और भारतीय भाषाओं में केवल हिन्दी ही व्यावहारिक है।मैं यही मांग कर सकता हूँ । " नेहरू और निराला हिन्दी के प्रश्न पर जिन बिंदुओं पर उलझते हैं, उसके बीच समन्वय की जरूरत आज भी है। हिन्दी के प्रश्न आज अधिक मुश्किलें झेल रहे हैं। इन पर विवेक के साथ बहस जरूर होनी चाहिए।
क्रमश:
(प्रेमकुमार मणि हिंदी के चर्चित कथाकार व चिंतक हैं। दिनमान से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक पांच कहानी संकलन, एक उपन्यास और पांच निबंध संकलन प्रकाशित। उनके निबंधों ने हिंदी में अनेक नए विमर्शों को जन्म दिया है तथा पहले जारी कई विमर्शों को नए आयाम दिए हैं। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।)
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