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बिहार में बाहुबली-1: सबसे पहले कैसे पहुंची ए के 47 राइफल, जानिये अशोक शर्मा के सम्राट बनने की कहानी

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प्रेम कुमार,  बेगूसराय:
अशोक सम्राट बेगूसराय की रंगदारी के इतिहास के मिथकीय पुरुष की हैसियत रखते थे। उनके संबंध में ढेरों किस्से-कहानियाँ तब भी चलतीं थीं बैठकियों में, आज भी चलती हैं। उनके जलवे का कालखंड 87-88 से लेकर 94-95 तक रहा। इस दौरान उन्हें कमोबेश एकीकृत बिहार (जिसमें झारखंड भी शामिल था) का सबसे बड़ा रंगदार या डॉन कह लीजिए की हैसियत हासिल थी। मैं उन्हें पहला मॉडर्न रंगदार मानता हूँ। क्योंकि गमछे, कुर्ते, टीके ,लाल बुलेट जैसे पारंपरिक रंगदारों के स्टीरियोटाइप को उन्होंने एक झटके में तोड़ दिया था और खुद हमेशा बढ़िया फिटिंग वाली पैंट शर्ट, जींस टीशर्ट,वेल स्टिच्ड सूट में ही नजर आते थे। सबसे बड़ी बात की अशोक सम्राट खुद बेहद हैंडसम और लंबी चौड़ी कद-काठी के थे सो पहली नजर में चलताऊ भाषा में कहूँ तो बिल्कुल हीरो टाइप नजर आते थे। मेरी उनसे दो बार आमने-सामने की मुलाकात थी। साथ ही तब के लिए अत्याधुनिक मानी जाने वाली मारुति वैन और ए के 47 को क्राइम में प्रयोग कर उसे उन्होंने अपना स्टाइल स्टेटमेंट सा बना लिया था।

जिसके लिए जान देने को तैयार रहते, उस दोस्‍त के प्राण लेने को आतुर
अशोक सम्राट की कहानी शुरू हुई थी बरौनी के पास के गांव शोकहारा से, जिसे बोलचाल में सोगराहा कहते हैं। एक साधारण से खेतिहर परिवार में पैदा हुए और पढ़ने-लिखने में औसत से अच्छे ही रहे थे। कहते हैं फुटबॉल और वॉलीबॉल के बढ़िया खिलाड़ी थे। वैसे भी उनके ननिहाल मधुरापुर गांव की ख्याति बेगूसराय में बेहतरीन वॉलीबॉल खिलाड़ियों को पैदा करने की रही है। बरौनी के ही स्थानीय कॉलेज में पढ़ते-लिखते उन्हें रंगदारी का चस्का लगा और स्थानीय तौर पर एक दबंग छात्र के रूप में उन्हें जाना जाने लगा। तब के बेगूसराय की आबोहवा ही कुछ ऐसी थी कि रंगदारी की ललक जैसे यहाँ की हवा से मिलने वाली ऑक्सीजन के साथ ही शरीर में पँहुच जाती थी। बताते हैं कि अशोक डबल एम ए थे। कॉलेज के जमाने में उनकी और मुखिया उर्फ मुखो की दोस्ती नामी थी। दोनों दोस्त स्थानीय स्तर पर खूब हनक बना चुके थे। कहते हैं जब एक बार मुखो ने पारिवारिक कारणों से जहर खाकर जान देने की कोशिश की थी, तब फ्रस्ट्रेशन में अशोक ने भी थ्री नट्टा (कट्टे) से अपने पेट में गोली मार ली थी। बहरहाल दोनों बच गए लेकिन समय के साथ उनकी गहरी दोस्ती जानी दुश्मनी में बदल गई।

कांग्रेस की ओर झुकाव, वाम के रहे आजीवन विरोधी
यहाँ भी तत्कालीन बेगूसराय में चलने वाली कांग्रेस-कम्युनिस्ट के बीच की खूनी राजनीति ने ही खेल दिखाया। चूंकि अशोक का झुकाव कांग्रेस की तरफ था सो कम्युनिस्ट खेमे ने मुखिया उर्फ मुखो को अपने पाले में खींच लिया। उस समय बाहुबलियों के लिहाज से कम्युनिस्ट पार्टी बेगूसराय में बीस बैठती थी सो उनका बल पा कर मुखो ने लगातार अशोक को निशाना बनाने की कोशिश करनी शुरू कर दी। ऐसे ही हालात में बचने और घात लगाने की लिहाज से अशोक ने मुजफ्फरपुर का रुख कर लिया। वहाँ मिनी नरेश ने एल एस कॉलेज के पी जी हॉस्टल थ्री (न्यू हॉस्टल) से मुजफ्फरपुर में अपना रंगदारी का साम्राज्य फैला रखा था। मिनी नरेश को अशोक का जबरदस्त समर्थन था। कहते हैं उनके बीच की ट्यूनिंग असाधारण थी। जिसके दम पर उन दोनों ने पूरे तिरहुत प्रमंडल के ठेकों में एकछत्र राज कायम कर लिया था जिसके लिए बेहिचक लाशें गिराई जा रही थीं।



बेगूसराय के अशोक शर्मा मुजफ्फरपुर में सम्राट घोषित
ऐसे में अशोक शर्मा बड़े नाम बनते चले गए। बताते हैं कि अशोक जबरदस्त हिम्मती और खुद बेहतरीन शूटर थे। उन्होंने कभी किसी दूसरे से हत्या नहीं करवाई। चूंकि अशोक पढ़े-लिखे और खिलाड़ी प्रवृति के खूबसूरत व्यक्ति थे। सो उनके पीछे बेगूसराय के छात्रों का हूजूम तब के मुजफ्फरपुर में लामबंद हो गया था। वे भी हॉस्टल में रहनेवालों के बीच खूब दोस्तों की माफिक रमते बैठते। ऐसे में ही एक दिन ड्यूक हॉस्टल के बड़े से आँगन के बीचोंबीच बनी चौड़ी सी छत पर अशोक और मिनी नरेश का मजमा लगा था तभी किसी छात्र ने कहा, "अशोक दा अब त तोहर एकछत्र राज होय रहलौ हन त तों अब सम्राट नै भेल्हो"(अब तो बेगूसराय से लेकर मुजफ्फरपुर तक आपका एकछत्र राज चल रहा है तो आप सम्राट हुए)।

छह-सात जिलों में चलने लगा सम्राट का सिक्का
बस यहीं से ध्वनिमत से लौंडों ने प्रस्ताव पारित कर दिया और बेगूसराय के अशोक शर्मा 'सम्राट' के नाम से पुकारे जाने लगे। और बाद के दिनों में रंगदारों, पुलिस प्रशासन सबके बीच वो अशोक सम्राट ही पुकारे जाते रहे। अशोक शर्मा भले ही मुजफ्फरपुर में एल एस कॉलेज के हॉस्टल के छात्रों द्वारा सम्राट घोषित किए गए लेकिन अपने रंगदारी का साम्राज्य उन्होंने सही मायनों में अपने दम, सूझबूझऔर बाहुबल पर बनाया था। अपने समय में सम्राट बिहार के सबसे बड़े डॉन माने जाते थे, गौरतलब है कि तब झारखंड भी साथ ही था। बेगूसराय और आसपास के छह सात जिलों में तो अपने समय में उनका सिक्का चलता ही था। लेकिन मैं उन्हें इसलिए भी बेगूसराय का पहला मॉडर्न रंगदार मानता हूँ क्योंकि उनके पहले तक अपहरण,लूट,छिनतई और बहुत हुआ तो गाँजे की स्मगलिंग तक ही रंगदारों के कार्यक्षेत्र हुआ करते थे।

बिहार-यूपी से लेकर बंगाल तक रेलवे और कोयले के कारोबार में हनक 
गोरखपुर से लेकर बंगाल तक रेलवे के टेंडर उनके इशारे के बगैर नहीं खुलते थे। कोयले के कारोबार में भी उन्होंने हनक के साथ दखल दिया था। सम्राट ने कभी लूट, अपहरण, डकैती जैसे अपराध की तरफ पलट कर भी नहीं देखा और उन्होंने संगठित अपराध से ही अकूत पैसा पैदा करना सिखा दिया। जिसे उनके आगे आनेवाले हर रंगदार ने अपनाया। संगठित अपराध में भी खासकर रिफाइनरी के ठेकों और रेलवे के ठेकों पर ही उनकी खुद की दखल रहती थी। बाकी ढ़ेर सारे अन्य विभागों के ठेके उनके इशारे पर उनके साथ रहनेवाले लोग उठाते थे।



बेगूसराय को बनाया अभेद्य दुर्ग, लोग क्‍यों मानते रहे अपना बेटा
सम्राट की खासियत यह रही कि उन्होंने बेगूसराय को अपने अभेद्य दुर्ग की तरह बरता। इसलिए कभी यहाँ के लोगों को उन्होंने परेशान नहीं किया। साधारण लोगों को उनसे कोई दिक्कत नहीं हुई। शालीनता की वजह से लोग उन्हें जिले का बेटा मानते रहे। वे खासे लोकप्रिय थे, अपनी छवि उन्होंने कमोबेश रॉबिनहुड सरीखी बनाई थी सो उनका एकछत्र राज था और कोई उन्हें चैलेंज नहीं कर पाया था। उस समय जिले में चलनेवाले न जाने कितने ही गांवों के फुटबॉल, वॉलीबॉल, क्रिकेट जैसे टूर्नामेंटों के लिए वे खुले हाथों पैसा देते थे। किसी भी जरुरतमंद की उनतक पँहुच हो जानी भर ही मदद के लिए काफी थी। गरीब-गुरबा परिवारों को शादी-ब्याह, अगलगी जैसी घटनाओं के समय वे बिना सोचे समझे जैसे पैसा लुटा देते थे।कितने ही गांवों के पुस्तकालयों के लिए उन्होंने पैसा दिया होगा चूंकि वो खुद पढ़ेलिखे और जहीन थे सो उस समय एल एस कॉलेज में पढ़ने वाले कितने ही साधारण परिवार के लड़कों का खर्च बेहिचक उठा लेते थे शायद यही कारण रहा कि वे कभी भी पकड़े नहीं गए, उनकी कोई पहचान पुलिस के पास नहीं थी और कम से कम बेगूसराय जिले में उनपर कोई हमला नहीं हो पाया।

डीजी रहे गुप्तेश्वर पाण्डेय ने भी माना सम्राट राजा और हीरो था
क्योंकि उनसे जुड़े और अनुगृहीत लोगों की ही इतनी बड़ी संख्या थी कि वो उनके लिए तगड़े इंटेलिजेंस का काम करते थे। ऐसा कोलंबिया के ड्रग कार्टेलों के सरगनाओं की रणनीति में देखने को जरुर मिलता है लेकिन बेगूसराय में सम्राट ने ही इसे अपनाया। 93 में बेगूसराय के एस पी रहे और बाद में राज्य के डीजी रहे गुप्तेश्वर पाण्डेय ने भी कई इंटरव्यू में कहा है कि सम्राट राजा था, हीरो था उसकी मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता था। कहते हैं जब सम्राट का काफिला निकलता था तो पुलिस प्रशासन रास्ते से हट जाते थे। शायद उनके पास तब के लिए अजूबा मानी जाने वाली ए के 47 का होना भी इसकी एक वजह थी। उनके पास ए के 47 के होने का भी बड़ा अजीब किस्सा है। बिहार में सबसे पहले सम्राट के पास ही ए के 47 की खेप पँहुची थी।

ए के 47 के सम्राट तक पहुंचने की कहानी क्‍या है
किंवदंतियाँ हैं कि तत्कालीन पंजाब के खालिस्तानी आतंकवादियों से होते हुए उन तक ए के 47 पँहुची थी। जबकि ज्यादा विश्वस्त थ्योरी ये है कि पंजाब के आतंकियों से जब्त ए के 47 को सरकारी मालखाने से उड़ा कर सम्राट तक पँहुचाया गया था। कहते हैं सम्राट तक ए के 47 बेगूसराय के रामदीरी गांव के मुन्ना सिंह के माध्यम से पँहुची थी। जिसका अपुष्ट सूत्रों के अनुसार पहला प्रयोग बरौनी के जीरोमाइल के पास एक ठेकेदार की हत्या में सम्राट ने किया। हाल में ही कुछ दिनों पहले मुन्ना सिंह मारे गए। मुन्ना सिंह तक ए के 47 पँहुचने के पीछे का किस्सा उस समय के बहुत से लोगों को पता होगा पर आजतक उस पर कोई बात नहीं करता। क्योंकि बेगूसराय में रामदीरी एक से एक भूपों की स्थली रही है सो इससे कन्नी काटना ही बेहतर है।



बेगूसराय के एसपी रहते गुप्तेश्वर पाण्डेय ने तब क्‍या किया 
गुप्तेश्वर पाण्डेय ने बेगूसराय के एस पी रहते हुए खूब नाम कमाया। जिले में 42 एनकाउंटर उनके नाम हैंं। लेकिन सम्राट ने उनको अपनी हवा तक लगने नहीं दी। बहुत पीछे पड़ने पर सम्राट ने दो या तीन ए के 47 रायफल और दो सौ राउंड गोली बक्से में रख कर अपने आदमियों से रात में गुप्तेश्वर पाण्डेय के एस पी कोठी के सामने फेंकवाया था। जिसकी बरामदगी ने एस पी साहब के जलते मर्मस्थल पर फाहे का काम किया। जबकि सम्राट के पास के ए के 47 के जखीरे में कोई खास कमी नहीं आई। क्योंकि उसके बाद भी वो 47 का प्रयोग बदस्तूर करते रहे।
क्रमशः

(कोई किसी किस्म का उपदेश दे या जज करे उससे पहले ही मैं साफ कर दूँ कि उस दौर में बड़े हो रहे हम जैसे मनबढ़ किस्म के लोगों को ऐसे लोग ही जबरदस्त रूप से आकर्षित करते थे और हम भी वैसा ही बनना चाहते थे। लेकिन बदकिस्मती से पढ़ने-लिखने के चक्कर में जगह छूटी और ऐसा हो न हो सका। मेरे बचपन का जिगरी दोस्त जिसकी 2011 में मौत हो चुकी है, मुजफ्फरपुर में ही पढ़ता था और हॉस्टल में रहने के साथ ही मेरे जैसी प्रवृत्ति का ही होने की वजह से सम्राट से गहरे जुड़ा था। सो उसका अहसान है, मुझपर की उसके द्वारा ढ़ेरों फर्स्टहैंड जानकारियां मुझे आपसी बातचीत में ही मिलीं थीं। सम्राट कथा की यह पहली किस्‍त है। दूसरी किस्‍त में आप जानेंगे कुछ और किस्‍से।)



(प्रेम कुमार बिहार के बेगुसराय में रहते हैं। स्‍वतंत्र लेखन करते हैं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।