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वीर! -2: क्या सावरकर की जीवन यात्रा को दो भागों में मूल्यांकित करना चाहिए

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गांधीवादी चिंतक डॉ. राजू पाण्डेय की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "सावरकर और गांधी" के संपादित अंश हम आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। आज दूसरी कड़ी। -सं.

 

डॉ. राजू पांडेय, रायगढ़:

क्या सावरकर की जीवन यात्रा को दो भागों में मूल्यांकित करना ठीक है? क्या उनके जीवन का गौरवशाली और उदार हिस्सा वह है जब वे -1857 का भारत का स्वाधीनता संग्राम- पुस्तक की रचना(आरंभ 1907- पूर्णता-1909) करते हैं। इस पुस्तक के विषय में कहा जाता है कि यह 1857 के  विद्रोह को स्वाधीनता संग्राम की व्यापकता प्रदान करती है। बाद में क्रांतिकारी गतिविधियों में संलिप्तता के कारण सावरकर को अंडमान की सेल्युलर जेल भेज दिया जाता है। अंडमान की इस जेल की भयंकर यातनाओं से सावरकर का मनोबल शायद कमजोर होने लगता है। विश्लेषकों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि इसके बाद सावरकर का एक नया रूप देखने में आता है जो कट्टर हिंदूवादी है और जिसे सर्वसमावेशी राष्ट्रीय आंदोलन से कुछ लेना देना नहीं है।

 

1857 का विद्रोह : प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम | Revolt of 1857 -  SabDekho

 

किंतु 1857 का भारत का स्वाधीनता संग्राम सावरकर की दृष्टि में स्वतंत्रताकामी भारतीय जनता के आक्रोश की अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि उनके अनुसार यह ईसाई धर्म के खिलाफ हिंदुओं और मुस्लिमों का विद्रोह है। वे जस्टिन मैकार्थी को उद्धृत करते हुए लिखते हैं- हिन्दू और मुसलमान अपनी पुरानी धार्मिक शत्रुता को भुलाकर ईसाइयों के खिलाफ एक हो गए। पवन कुलकर्णी अपने लेख – हाऊ डिड सावरकर अ स्टांच सपोर्टर ऑफ ब्रिटिश कॉलोनिअलिज्म कम टू बी नोन एज वीर में सावरकर को उद्धृत करते हैं- “चहुंओर लोगों को यह विश्वास को चला था कि सरकार देश के धर्म को नष्ट कर ईसाई धर्म को देश का प्रधान धर्म बनाने का निर्णय ले चुकी है।“ इस प्रकार सावरकर 1857 के स्वाधीनता संग्राम को एक धर्म युद्ध की भांति व्याख्यायित करते लगते हैं। बाद में जिस कट्टर हिंदुत्व की विचारधारा के प्रतिपादक के रूप में सावरकर को ख्याति मिली उसके बीज तो उनकी 1909 में पूर्ण हुई पुस्तक “1857 का भारत का स्वाधीनता संग्राम” में ही उपस्थित थे। 

 

बहरहाल सावरकर में आए परिवर्तनों में सेल्युलर जेल के भयावह माहौल और यंत्रणाओं के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। अनेक इतिहासकारों और अध्येताओं इस ओर संकेत किया है। प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम अपनी पुस्तक ‘सावरकर: मिथस एंड फैक्ट्स’ में लिखते हैं कि -"सावरकर का सेल सबसे ऊंची मंज़िल पर था, जहां से फांसी का तख्ता स्पष्ट दिखाई देता था। हर माह वहां किसी न किसी बंदी को फांसी दी जाती थी।  संभव है कि फांसी पर लटकाए जाने के इस भय ने उन्हें अंदर से तोड़ दिया हो।"


सावरकर पर महत्वपूर्ण शोध कार्य करने वाले निरंजन तकले का भी निष्कर्ष प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम जैसा ही है। निरंजन तकले बताते हैं- "अंडमान की इस जेल में सावरकर की रूमानी क्रांतिकारिता ध्वस्त हो गई। 11 जुलाई 1911 को सावरकर अंडमान पहुंचे और  वहाँ पहुंचने के डेढ़ महीने के अंदर 29 अगस्त को उन्होंने अपना पहला माफ़ीनामा लिखा,  इसके बाद 9 सालों में उन्होंने 6 बार अंग्रेज़ों को क्षमादान हेतु प्रार्थना पत्र दिए।"  निरंजन तकले के अनुसार जैसा बाद में त्रैलोक्यनाथ एवं अन्य साथी क्रांतिकारियों द्वारा दिए गए विवरणों से ज्ञात होता है, सावरकर के इन माफीनामों के विषय में इन्हें पता नहीं था। सावरकर के साथ ही सेल्युलर जेल में कैद क्रांतिकारी बरिंद्र घोष सावरकर की जेलर से नजदीकी का उल्लेख करते हैं और बताते हैं कि अन्य साथी क्रांतिकारियों को विद्रोह के लिए प्रेरित करने वाले सावरकर कभी स्वयं खुलकर सामने नहीं आते थे। बरिंद्र घोष जैसा ही अनुभव सावरकर के साथ जेल की सजा काट रहे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी त्रैलोक्यनाथ का भी है जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक थर्टी इयर्स इन प्रिजन में साझा किया है।

सावरकर अपने अनुयायियों को इस हद तक सम्मोहित कर लेते थे कि वे हिंसा की गतिविधियों को अंजाम देने के लिए उद्यत हो जाते थे। उनके समर्थकों की सावरकर पर श्रद्धा का आलम यह था कि जब हिंसक गतिविधि के बाद वे पकड़े जाते थे और मुकदमे का सामना करते थे जिसका परिणाम अनिवार्यतः मृत्युदंड जैसा भयंकर होता था तब भी वे सावरकर का नाम तक नहीं लेते थे और उनसे कोई भी संबंध होने तक से इनकार कर देते थे क्योंकि उन्हें ऐसा लगता था कि सावरकर का जीवन देशहित में उनके अपने जीवन से अधिक मूल्यवान है। जब मदनलाल धींगरा ने कर्नल वायली की हत्या की तब भी इस बात की व्यापक चर्चा होने के बावजूद कि वे सावरकर से प्रेरित थे उन्होंने सावरकर को बचाने का पूरा प्रयास किया। शायद यही स्थिति तब बनी जब गोडसे गांधी जी की हत्या के आरोप में मुकद्दमे का सामना कर रहा था। निरंजन तकले इस बात की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं कि - हर 15 दिन में सेल्युलर जेल में कैदी का वज़न लिया जाता था। जब सावरकर सेल्युलर जेल पहुंचे तब उनका वज़न 112 पाउंड था। सवा दो साल बाद जब उन्होंने सर रेजिनॉल्ड क्रेडॉक को अपना चौथा माफ़ीनामा दिया, तब उनका वज़न 126 पाउंड हो गया था। 

जारी

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(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। स्कूली जीवन से ही लेखन की ओर झुकाव रहा। समाज, राजनीति और साहित्य-संस्कृति इनके प्रिय विषय हैं। पत्र-पत्रिकाओं और डिजिटल मंच पर नियमित लेखन। रायगढ़ छत्तीसगढ़ में  निवास।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। सहमति के विवेक के साथ असहमति के साहस का भी हम सम्मान करते हैं।