(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है, छठवीं किस्त । आज 9 अगस्त भी है। काकोरी काण्ड के ठीक 17 साल बाद 1942 के साल इसी तारीख राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की थी। हालांकि एक दिन पहले भारतीय कांग्रेस समिति के मुम्बई अधिवेशन में इसकी घोषणा हो गई थी। आंदोलन के शुरू होते ही गिरफ्तारी आरंभ हो गई थीं। कांग्रेस को गैरकानूनी संस्था घोषित कर दिया गया था। महात्मा गांधी को भी नजरबंद कर दिया गया। अगर सरकारी आंकड़ों की मानें तो इस आंदेलन में 940 लोग मारे गए थे और 1630 लोग जख्मीे हुए थे।-संपादक। )
भरत जैन, दिल्ली:
पिछले कुछ सालों की राजनीति धर्म के इर्द-गिर्द सिमट गई है और इसमें एक ही दल कामयाब हो रहा है। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और सरकार किसी भी धर्म का समर्थन नहीं कर सकती। परंतु फिर भी खुलेआम देश के बड़े नेता एक विशेष धर्म के कार्यक्रमों में जाते हुए देखे गए हैं। देश का यह दुर्भाग्य है कि गांधी के देहांत के बाद कांग्रेस पार्टी धर्मनिरपेक्षता से हटकर धर्महीनता पर चली गई । गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी नेहरू थे और स्वभाव से धर्महीन व्यक्ति थे। यह उनकी सोच थी, इसमें कोई बुराई नहीं है। पश्चिम में रहकर इस बात की संभावना बहुत बढ़ जाती है कि व्यक्ति धार्मिक रीति-रिवाजों पर संदेह करना शुरू कर दें और उनसे दूर हो जाए। परंतु यह समझना जरूरी है कि भारत जैसे देश में जहां धर्म को लोग बहुत अधिक महत्व देते हैं आप धर्महीन होते हुए राजनीति में सफल नहीं हो सकते। हमने धर्म हीनता को ही धर्म निरपेक्षता समझ लिया है। यह एक बहुत बड़ी भूल है। इस कारण धर्म पर आधारित राजनीति के लिए विशेष दलों के लिए यह जगह खाली छूट गई है।
गांधी धार्मिक थे और धर्मनिरपेक्ष भी
गांधी भी धर्मनिरपेक्ष थे, इसमें कोई संदेह नहीं है। गांधीजी कभी किसी मंदिर ,मस्जिद या गुरुद्वारे में पूजा करते हुए नहीं देखे गए। परंतु गांधीजी पूर्ण से धार्मिक व्यक्ति थे। 'निर्बल के बलराम ' उनके मुख पर रहता था। गीता को अपनी माता कहते थे। सुबह-शाम प्रार्थना सभा में शामिल होते थे, जो कि इस बात का प्रमाण है कि गांधी धर्महीन नहीं थे, धर्म निरपेक्ष थे। उनके मन में हिंदू, मुसलमानों और दूसरे धर्म के धर्म के लोगों के लिए कोई भेदभाव नहीं था। पर विरोधी दल शासक दल की अति धार्मिकता को चुनौती नहीं दे पाए हैं। कुछ नेता चुनाव के समय दिखावे के लिए धार्मिक स्थानों पर देखे जाते हैं पर यह सोचना कि हार्ड हिंदुत्व का मुकाबला सॉफ़्ट हिन्दुत्तव से कर पाएंगे उनकी भूल है। हिंदुत्व की बात ना करके उन्हें धार्मिकता की बात करनी चाहिए। उसके लिए किसी मंदिर , मस्जिद या गुरुद्वारे में जाने की ज़रूरत नहीं है।
नैतिकता और धर्म के बीच में बहुत बारीक रेखा
गांधी ने जो मार्ग दिखाया था वही सर्वश्रेष्ठ है। धार्मिक बनो परंतु किसी धर्म विशेष के प्रति बहुत अधिक प्रेम या किसी के लिये तनिक भी नफरत की भावना मन में ना हो। और यह दिखना चाहिए। इसके लिए चुनाव में मंदिर या दरगाह में जाने की जरूरत नहीं है। बल्कि उनकी बातचीत में , उनके भाषणों में धार्मिक कहानियों का जिक्र होना चाहिए। वैदिक - पौराणिक कथाओं का कहीं ना कहीं उल्लेख होना चाहिए। बहुत मुश्किल बात नहीं है। किसी भी ऐसे सलाहकार की सहायता से जो धर्मज्ञान में निपुण हो, जिसके धार्मिक ग्रंथ पढे़ हुए हों उसकी सहायता से इस तरह की बातों को अपने भाषणों में कह सकते हैं, जिससे आम व्यक्ति को लगे कि वक्ता धर्म के विरुद्ध नहीं है। श्रवण कुमार और सत्य हरिशचंद्र ( जिनसे गांधी बहुत प्रभावित थे ) किसी धर्म के प्रतीक नहीं है बल्कि धार्मिकता के प्रतीक हैं , नैतिकता के प्रतीक हैं। नैतिकता और धर्म के बीच में बहुत बारीक रेखा होती है। आमतौर पर मतदाता दोनो में भेद नहीं कर पाता है।
भारत में धार्मिक दिखना बहुत ज़रूरी है। इस बात को हम बदल नहीं सकते।
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(लेखक गुरुग्राम में रहते हैं। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।