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समाजवादी-ललक-6: जर्मनी में डाॅक्टरेट की तैयारी करते समय लोहिया सोशल डेमोक्रैट बन गए थे

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भारतीय समाज, राजनीति और धर्म को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले अहम व्यक्तित्व से फॉलोअप रुबरू कराना चाहता है। साबरमती का संत नाम से 50 क़िस्त के मार्फत महात्मा गांधी को समझने की कोशिश की गई थी। वहीं सदी के महाचिंतक स्वामी विवेकानंद पर केंद्रित करीब 20 क़िस्त भी आपने पढ़े होंगे। धुर समाजवादी लीडर डॉ .राममनोहर लोहिया के बारे में आप तीन किस्त पढ़ चुके हैं। गांधीवादी वरिष्ठ लेखक कनक तिवारी की क़लम से नियमित आपको पढ़ना मयस्सर होगा। आज पढ़िये 6वीं क़िस्त-संपादक

कनक तिवारी, रायपुर:

किशन पटनायक के साथ लोहिया के निकट रहे बुद्धिजीवी और अब देश के सबसे बुजुर्ग समाजवादी सच्चिदानंद सिन्हा ने बहुत संक्षिप्त लेकिन सूक्ष्म रूप से भारतीय समाजवादी आंदोलन में लोेहिया की एकमेवो द्वितीयो नास्ति भूमिका के आने का वर्णन करते हुए लिखा है ”जर्मनी में डाॅक्टरेट की तैयारी करते समय लोहिया सोशल डेमोक्रैट बन गए थे। 1933 में भारत आते-आते वे निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन में सक्रिय हो गए। आज़ादी के आंदोलन के दौर में और सोशलिस्ट आंदोलन के गठन की प्रक्रिया के अपने अनुभवों के आधार पर उन्होंने समाजवाद की अपनी परिकल्पना विकसित की। दरअसल अंतिम दौर में वे समाजवादी आंदोलन के एकमात्र नेता बच गए थे।.... जयप्रकाश नारायण, जो प्रारंभ में सबसे प्रभावशाली सोशलिस्ट नेता थे, राजनीति से अलग हो भूदान आंदोलन से जुड़ गए। अच्युत पटवर्धन और रामनंदन मिश्र अध्यात्म की ओर मुड़ गए। महान बौद्धिक व्यक्तित्व आचार्य नरेंद्रदेव का 1955 में निधन हो गया। अशोक मेहता कांग्रेस में चले गए। यह समाजवादी आंदोलन के लिए घोर-नेतृत्व शून्यता का दौर था और लोहिया ने इस शून्य को भरने की कोशिश की। उनका प्रयास ज्यादा मुश्किल इसलिए भी हो गया क्योंकि जवाहरलाल नेहरू देश की संपूर्ण राजनीति पर अपना वर्चस्व कायम करने का प्रयास कर रहे थे।.....            

नेहरू सत्ताधारी पार्टी के शीर्ष पर थे, पर साथ ही भीतर-भीतर यह कोशिश कर रहे थे कि विपक्ष भी उनका हिमायती बना रहे। इस चतुराई को निरस्त करने का लोहिया का प्रयास उन्हें अनुपात से कहीं अधिक कटु आलोचक के रूप में प्रस्तुत करता है। इस प्रयास ने समाजवादी आंदोलन को एक बड़ी भूमिका प्रदान की, जो महज सत्ता में दावेदारी से बड़ी थी। उन लोगों की भूमिका आज इसके विपरीत दिखाई देती है जो लोहिया का उत्तराधिकारी होने का दावा करते हैं।" गांधी से अपनी मुलाकातों का जिक्र करते लोहिया ने एक मर्मस्पर्शी अंतिम संस्मरण दर्ज किया है, जो घटना नहीं घटनी थी। इतिहास में कई बार हुआ है, जब इस तरह कुछ घटनाएं घटी हैं या उनके विलोप हुए हैं। बहुत कोशिश करने पर भी गांधी बेलूर मठ पहुंचकर भी विवेकानन्द से नहीं मिल पाए। अन्यथा उनकी मुलाकात के बाद भारतीय राजनीति में कुछ अभिनव अर्थ गांधी की ओर से विस्तारित किया जा सकता। गांधी को लेकर लोहिया की यह मर्मांतक टिप्पणी भारतीय ताजा इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटनाओं में एक है। 

 

”26 जनवरी को गांधी जी ने कहा कि तुमसे आवश्यक बातें करनी हैं। कल-परसों करूंगा। 28 जनवरी को फिर कहा कि समय नहीं बचता और तुमसे बातें विस्तार से करनी हैं। फिर 29 को कहा कि कल तुमसे ज़रूर ही बातें करूंगा। आखिर मुझे तुम्हारी पार्टी और कांग्रेस के बारे में कुछ निश्चय तो करना चाहिए। कल शाम ज़रूर आना पेट भरकर बातें होंगी। गांधी जी समझते थे कि हमारी पार्टी और कांग्रेस की पटरी मौजूदा रवैये में नहीं बैठ सकती। अतः इस संबंध में निर्णय लेने का गांधी का विचार बड़ा ही सामयिक और अनुकूल था। 30 की शाम को मैं एक टैक्सी लेकर गांधी जी से मिलने ‘बिड़ला भवन‘ की ओर चला। लेकिन रास्ते में ही गांधी जी की घृणित व नृशंस हत्या की ख़बर मिली। बिड़ला भवन पहुंचा तो वहां बहुत बड़ी भीड़ थी। केवल गांधी जी न थे। कमरे में उनका मृत शरीर पड़ा था। 

उस दिन लगा कि असली अर्थ में पहली बार अनाथ हुआ। देश का संतरी सामने मरा पड़ा था और देश के राजा बने लोग आंसू बहा रहे थे। गांधी जी के विश्वस्त चेर्लो-नेहरू व पटेल के गद्दी पर रहते भी गांधी जी की हत्या की गई। मुझे गांधी जी की ‘ईश्वर का विश्वास‘ वाली कहावत याद आ गई। मैं सोच रहा था कि ईश्वर में अटूट श्रद्धा रखने वाला, जिसने ज़िंदगी-भर अहिंसा का प्रचार किया, आज उसका हिंसा द्वारा हनन हुआ। यह कितनी विपरीत घटना थी। गांधी जी के मृत शरीर को देखकर मैं बुदबुदा पड़ा था-‘क्यों आपने मेरे साथ और देशवासियों के साथ ऐसे दगाबाजी की? क्यों आप इतनी जल्दी चले गए?‘ पर मुझे इसका उत्तर भला कौन देता!”

लोहिया गांधी के अन्धभक्त नहीं थे। उन्होंने कई मुद्दों और मौकों पर गांधी विचार को अपने तईं परिभाषित, व्याख्यायित, सांदर्भिक करते विद्रोही तेवर में अमल में लाने प्रयत्न किये। मनुष्य जाति की अखंडता के पक्षधर लोहिया विदेशी जननायकों से भी आकर्षित होते रहे। लोहिया ने भी कई विश्वचिंतकों को आकर्षित किया।  आज़ादी के बाद जवाहर लाल नेहरू ने कभी कभार जिम्मेदारियां सौपनी भी चाहीं, लेकिन अपने असमझौतावादी रुख के चलते लोहिया ने उन प्रस्तावों को खारिज किया। ऐतिहासिक परंपराओं को लेकर लोहिया की वैज्ञानिक समझ समकालीन नया दृष्टिबोध तैयार करती रहती। सबसे ज्यादा लोहिया राजनीति की उथलपुथल में जनजीवन को लगातार स्पंदित करते रहे थे। उन्होंने जयप्रकाश नारायण को पत्र में परेशानी भी बताई कि जे.पी. समाजवादी आंदोलन में मैदानी राजनीति का मोर्चा संभाल लें और लोहिया के लिए विचार और चिंतन का इलाका छोड़ दिया जाए। इससे दोनों मिलकर राजनीति में बेहतर सेवा और योगदान कर सकेंगे। आखिरकार लोहिया के निधन के सात आठ वर्षों बाद जयप्रकाश नारायण ने खुद को जनयुद्ध में झोंका ही। फिर भी राजनीति का कुतुबनुमा बन गये। तब तक लेकिन देर हो चुकी थी और जयप्रकाश कमज़ोर और बीमार हो चले थे।

जारी

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।